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Friday, August 5, 2011

फेसबुक लोकतंत्र का वक्त अभी नहीं आया



सन 2008 में यूरोप में आए वित्तीय संकट के केन्द्र में आइसलैंड जैसा छोटा देश था, जहाँ के बैंकों में लोगों ने अपनी बचत का सारा पैसा लगा रखा था। देखते-देखते आइसलैंड के बैंक बैठ गए। वहाँ की मुद्रा क्रोना की कोई हैसियत नहीं रह गई। उस आपाधापी में वहाँ की सरकार गिर गई। विश्व बैंक की मदद से पूरी अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाया गया। बहरहाल करीब सवा तीन लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने अपनी व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का निश्चय किया है। पिछले साल यहाँ की संसद ने संवैधानिक व्यवस्था को परिभाषित करने में जनता की सलाह लेने का निश्चय किया। और दुनिया में पहली बार सोशल नेटवर्किंग के सहारे संविधान का एक प्रारूप बनकर सामने आया है, जिसे पिछले शुक्रवार को वहाँ की संसद की अध्यक्ष को सौंपा गया। इस प्रारूप पर अक्तूबर के महीने में वहाँ की संसद विचार करेगी।


आइसलैंड के इस जनमत संग्रह के समानांतर पिछले हफ्ते दिल्ली में केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के चुनाव क्षेत्र चाँदनी चौक में अन्ना हज़ारे के समर्थकों ने एक जनमत संग्रह किया, जिसके निष्कर्ष तकरीबन वही हैं जैसा अन्ना समर्थक चाहते हैं। एक अरसे से हम सिविल सोसायटी और जन प्रतिनिधियों के रिश्तों को लेकर बहस से गुज़र रहे हैं। उस बहस के बीच तैयार हुआ, लोकपाल विधेयक संसद के सामने आ गया है। अब इस बहस का दायरा बढ़ जाएगा। पर क्या चाँदनी चौक और रेक्याविक की घटनाओं के रिश्तों को खोजा जाना चाहिए? क्या दोनों समाजों का आकार-प्रकार, गुणवत्ता और मसले इतने मिलते-जुलते हैं कि इनके भीतर से नई ताकत के उभरने की उम्मीद हो? यूरोप के बेहद अनुशासित और प्रौढ़ समाज और भारत के सद्यः विकसित लोकतंत्र की शक्तियाँ क्या एक जैसी हैं?

जनमत संग्रह एक प्रकार की डायरेक्ट डेमोक्रेसी है। अमेरिका के कुछ राज्यों में स्थानीय मसलों पर राय लेने के लिए रेफरेंडम की कानूनी व्यवस्था है। कनाडा ने पिछले कुछ दशकों में कम से कम तीन महत्वपूर्ण जनमत संग्रह कराए हैं। इनमें क्यूबेक का मसला शामिल है। भारत में कश्मीर के मसले को जनमत संग्रह के सहारे सुलझाने की सैद्धांतिक रूप से स्वीकृत व्यवस्था कभी लागू नहीं हो पाई। हमारे यहाँ आमतौर पर जब कभी चुनाव में बड़े फेर-बदल हो जाते हैं, जब उसे जनमत संग्रह का नाम दे दिया जाता है। बहरहाल बारीकी से देखने पर चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाले कारक कुछ और संकेत करते हैं। पर चाँदनी चौक में जो हुआ क्या वह हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है? क्या हमें कुछ दिन बाद देश की व्यवस्था के लिए भी क्या इसी प्रकार का जनमत संग्रह कराना चाहिए?

अन्ना हजारे को इस बात का श्रेय जाना चाहिए कि उन्होंने देश का ध्यान एक महत्वपूर्ण बात की ओर खींचा। पूरी व्यवस्था की उदासीनता के कारण हम अब तक लोकपाल कानून नहीं बना पाए। बावजूद इसके कि इसकी अवधारणा इसी संसदीय व्यवस्था से निकली थी। इसके कारणों को खोजा जाय तो अनेक बातें सामने आएंगीं। व्यक्तियों और शक्तियों के अलावा परिस्थितियों की भी भूमिका इसमें रही होगी। इस दौरान देश की संसद ने कम से पंचायत राज, आरक्षण, चुनाव आयोग, आरटीआई, शिक्षा के अधिकार जैसे काम भी किए हैं। इसलिए सारी बातों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

अपने न्यूज़ चैनलों की कवरेज पर ध्यान दें तो आपको कभी राजस्थान के, कभी झारखंड के या कभी उत्तराखंड के किसी चैनल पर कोई व्यक्ति या समूह सीधे न्याय करता दिखाई पड़ता है। किसी सरकारी अधिकारी के कपड़े फाड़ती महिला, चोरों, लुटेरों और बलात्कारियों का मुँह काला करके अपमानित करती भीड़ दिखाई पड़ती है। लगभग इतने ही वीभत्स विवरण पुलिस कार्रवाई के दिखाई पड़ते हैं। ये बातें बताती हैं कि अभी हम अराजकता के दौर में हैं। हमने अब मंत्रियों को जेल जाते हुए देखना शुरू किया है। हमारी न्याय व्यवस्था ने सक्रियता दिखाई है। पर यह एक दौर है। इसे न तो पर्याप्त कहा जा सकता है और न यह कहा जा सकता है कि सारे लोग चोर हैं। जब आप पुलिस, प्रशासन और राजनीति के करीब जाएंगे तो जितने कारण निराश होने के मिलेंगे उससे कई गुना उत्साह बढ़ाने वाले भी मिलेंगे। पर हमें एक चीज़ समझ लेनी चाहिए कि जो कुछ हासिल होना है, वह इसी व्यवस्था के प्रस्थान बिन्दु से होगा। इस या तो हम बदलेंगे या खत्म भी करेंगे तो वैकल्पिक व्यवस्था की खोज कर लेने के बाद। यह काम जनता ही करेगी, जो धीरे-धीरे जागरूक हो रही है।

पर जनता भी निरंकुश हो सकती है। सुकरात को ज़हर देने वाली व्यवस्था डायरेक्ट डेमोक्रेसी से निकली थी। नक्सली प्रभाव वाले इलाकों में चलने वाली जन अदालतें एक परिभाषा से न्याय करतीं हैं, और दूसरी से अन्याय। जिस अमानवीय लोकतंत्र ने गरीब आदिवासियों को नक्सली बना दिया उसके विकल्प में पेश किया गया लोकतंत्र अभी तक कहीं नज़र नहीं आया। उसे बनाने, लागू करने और सुधारने की राजनीति बंदूक की नाल से निकलती है। देश की व्यवस्था कैसे काम करती है, इसे देखने के लिए दिल्ली की सड़कों पर दौड़ते ट्रैफिक पर गौर करें। जिस तरह ओलिम्पक की 100 मीटर रेस में सारे धावक सीना आगे करके सिर्फ टेप को छूना चाहते हैं, लगभग उसी अंदाज़ में हर कार, ट्रक, बस, ऑटो, और बाइक वाला दूसरे को पीछे छोड़ देना चाहता है। कोई लेन में किसी के पीछे नहीं चलना चाहता। और सबको, सबसे शिकायत है।

भारत को जितनी ज़रूरत अच्छे नेताओं की है, उतनी ही अच्छे नागरिकों की भी है। दुर्भाग्य से नागरिकता के शिक्षण का हमारी व्यवस्था में कहीं जिक्र नहीं हैं। स्कूलों में माताएं अपने लाड़ले को दूसरे बच्चे से आधा अंक ज्यादा दिलाने के लिए जान की बाज़ी लगा देतीं हैं। इस संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण दंगल उत्तर भारत के मैदानों में होता है। संस्कृति, कला, संगीत, दर्शन, विचार, सूचना और संचार के नाम पर चौपट इस भौगोलिक क्षेत्र में रचनात्मक क्रांति की ज़रूरत है। अन्ना, बाबा या किसी और नेता की पुकार पर हम अचानक एकत्र हो सकते हैं। और बगैर किसी दुर्भावना के सरकारों पर दबाव भी बना सकते हैं। पर उसके पहले हमें गाँव-गाँव, गली-गली सार्वजनिक विमर्श के संतुलित केन्द्रों की ज़रूरत है। लोकतंत्र की बात करें तो खाप पंचायतें भी लोकतांत्रिक हैं। ये पंचायतें बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं, बशर्तें उनकी धार-कोर आधुनिक, मानवीय और वैज्ञानिक हो। सिविल सोसायटी के लिए उर्वर समाज की ज़रूरत भी हमें है।

जबसे सिविल सोसायटी आंदोलन शुरू हुआ है सरकार और सिविल सोसायटी के बीच, बल्कि मुख्याधारा की राजनीति और सिविल सोसायटी के बीच बचकाना बातें हो रहीं हैं। इस जनमत संग्रह के परिणाम अखबारों में प्रकाशित हुए हैं। इसके जवाब में सिब्बल समर्थकों ने ऐसी सीडी बनाई हैं, जिनसे पता लगता है कि जनमत संग्रह कार्यकर्ता भाजपाई थे। प्रत्य़क्षतः ऐसा जनमत संग्रह बचकाना लगता है। कपिल सिब्बल से किसी को शिकायत हो तो कोई बात नहीं, पर जनमत के जिस मंच का आप इस्तेमाल कर रहे हैं, उसकी साख भी बनाएं। यदि आपको लगता है कि कपिल सिब्बल को इस सवाल पर चुनाव हराना है तो चुनाव तक इंतज़ार कीजिए। यों भी लोकपाल बिल का विचार किसी एक नेता के घर के दरवाजे से  नहीं रुकता। दिक्कत यह है कि हमारे दिमाग कांग्रेसी, भाजपाई, वामपंथी वगैरह-वगैरह हो चुके हैं।

जनमत संग्रह पश्चिमी समाज के रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा है। वहाँ अक्सर जनता किस तरह सोचती है, इसे सामने लाने के काम होते रहते हैं। हमारे यहाँ भी यह कला प्रवेश कर रही है। चुनाव के पहले तमाम चैनलों से सर्वेक्षणो की बाढ़ लग जाती है। सच यह है कि आज तक एक भी विश्वसनीय एजेंसी सामने नहीं आई है जो इस मामले में अपनी साख कायम रखने के बारे में सोचती हो। इसके दो प्रमुख कारण हैं। एक, हमारा समाज बहुत बड़ा, विविध और अनेक स्तरीय है। उसके मन को पढ़ने वाले टूल और टेक्नॉलजी हमारे पास नहीं हैं। दूसरे वस्तुगत ढंग से काम करने की प्रवृत्ति कमज़ोर है। हमें नाटकीयता पसंद है। टीवी चैनलों के एंकरों को देखे। उनकी लोकप्रियता और नाटकीयता की तुलना करें। बहरहाल हम फेसबुक युग में हैं सो वहाँ हमारे मसले पहुँच चुके हैं। उस बहस को संज़ीदा और शालीन बनाने की ज़रूरत है।


जनवाणी में प्रकाशित

2 comments:

  1. प्रमोद जी, शायद हम फेसबुक के द्वारा जनमत संग्रह के दौर से अभी दूर हैं, लेकिन भारत की समस्याओं का समाधान भारतीय उपायों से ही किया जा सकता है. आज जिस तरह हर व्यक्ति के पास मोबाइल फ़ोन आ चुका है, अगर कुछ सालों के बाद हम मोबाइल के द्वारा जनमत संग्रह करना शुरू कर दें, तो मुझे क्षणिक भी अचरज नहीं होगा. आज की तारीख में हम मोबाइल से वोट तो डालते ही हैं: कौन सा फिल्मस्टार कितना मोटा है, एस पर तो हर चैनल SMS के द्वारा जनमत संग्रह करता ही रहता है, तो फिर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में इसका प्रयोग क्यों न हो?

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  2. Younger Indians are using facebook lot much. Surveys can be done on facebook and mobile phones and already Congress party and Some other parties have done surveys in UP on mobiles.

    Issues in this article are very serious, In our country not only government is not working properly but also peoples are not behaving like citizens.

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