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Monday, August 8, 2011

काग्रेस में उत्तराधिकार को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है?



सरकार, पार्टी और मीडिया में सन्नाटा क्यों है?
राहुल गांधी को सामने आने दीजिए

जिन्हें याद है उन्हें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, पर जो नही जानते उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का समाचार देश के आधिकारिक मीडिया पर शाम तक नहीं आ पाया था। इसके कारण जो भी रहे हों, पर निजी चैनलों के उदय के बाद से देश में छोटी-छोटी बातें भी चर्चा का विषय बनी रहती हैं। पिछली 4 अगस्त को सारे चैनलों का ध्यान दो खबरों पर था। कर्नाटक में येदुरप्पा का पराभव और कॉमनवैल्थ गेम्स के बारे में सीएजी की रपट। बेशक दोनों खबरें बड़ी थीं, पर श्रीमती सोनिया गांधी के स्वास्थ्य और उनकी अनुपस्थिति में पार्टी की अंतरिम व्यवस्था के बारे में खबरें या तो देर से आईं या इतनी सपाट थीं कि उन्हें समझने में देर हुई। ये खबरें सबसे पहले बीबीसी और एएफपी जैसी विदेशी एजेंसियों ने जारी कीं। सरकार, सरकारी मीडिया और प्राइवेट मीडिया ने इसे बहुत महत्व नहीं दिया। बात ठीक है कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर कयासबाज़ी नहीं होनी चाहिए, पर सामान्य जानकारी देने में क्या कोई खराबी थी? कांग्रेस पार्टी की वैबसाइट तक पर इस विषय पर कोई जानकारी नहीं है। क्या ऐसा जानबूझकर है या इसलिए कि एक जगह पर जाकर पूरी व्यवस्था घबराहट और असमंजस की शिकार है?


राष्ट्रीय नेताओं के स्वास्थ्य को लेकर उन देशों में असमंजस ज्यादा होता है, जहाँ व्यवस्थाएं मजबूत धरातल पर नही होतीं। जून 2002 में अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका टाइम में अलेक्स पैरी ने अटल बिहारी वाजपेयी के स्वास्थ्य को लेकर एक रपट लिखी थी, जिसे लेकर देशभर में हंगामा हो गया था। अलेक्स पैरी से पूछताछ की गई और उसे अपनी सुरक्षा के लिए गार्ड रखने पड़े थे। हालांकि इस समय वैसी हड़बड़ाहट नहीं है, पर व्यवस्था की अपरिपक्वता आज भी दिखाई पड़ती है। वरिष्ठ पत्रकार राजिन्दर पुरी ने अपने कॉलम में जून में लिखा था कि सोनिया गांधी को लेकर क्या छिपाया जा रहा है। उनकी विदेश यात्राओं के दौरान ऐसा दिखाया जा रहा था कि मानों वे देश में हैं। बांग्लादेश दौरे के बाद सम्भवतः वे विदेश चली गईं। सोनिया जी का स्वास्थ्य देश की चिंता का विषय है, पर वह किस सीमा तक गोपनीयता का विषय होना चाहिए? बहरहाल आशा है कि सोनिया जी स्वास्थ्य लाभ कर शीघ्र देश वापस लौटेंगीं।

बहरहाल सोनिया जी के अमेरिका जाने के बाद पार्टी प्रवक्ता ने अत्यंत संक्षेप में जो सूचना दी, वह पर्याप्त थी। पर उसके निहितार्थ गहरे हैं। पहला सवाल नेतृत्व का है। सोनिया जी के बाद पार्टी में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति राहुल हैं, इसके बारे में दो राय कभी नहीं थीं, पर क्या राहुल के सामने आने का वक्त आ गया है? हाल में दिग्विजय सिंह ने सलाह दी थी कि राहुल को अब प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाना चाहिए। क्या वह घड़ी नज़दीक आ रही है? यदि नहीं तो वह घड़ी कब आएगी? सोनिया जी के स्वास्थ्य की स्थिति को देखते हुए दो विपरीत सम्भावनाएं एक साथ होती नज़र आती हैं। एक यह कि महत्वपूर्ण कुछ फैसले कुछ समय के लिए टाले जाएंगे। या जो फैसले कर लिए गए हैं, उन्हें क्रमशः लागू किया जाएगा।

संसद का वर्तमान सत्र कई मानों में महत्वपूर्ण है। आर्थिक उदारीकरण और राजनैतिक-सामाजिक कल्याण का एजेंडा एक साथ लागू होने जा रहा है। उदारीकरण के कारण हो या न हो, पर सरकार की छवि कॉरपोरेट-मुखी हो गई है। दो साल पहले तक अत्यंत सौम्य नज़र आने वाले मनमोहन सिंह की छवि दिन-पर-दिन खराब होती जा रही है। आर्थिक मोर्चे पर सरकार की दशा बिगड़ने वाली है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था इस हफ्ते फिर से मंदी की मार से घिर गई है। इसका असर हमें जल्द देखने को मिलेगा। कोई आश्चर्य नहीं कि हम भी मंदी के सहायक उत्पादों के शिकार हों। सन 2012 में यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने जा रहे हैं। कांग्रेस इन चुनावों में अपनी स्थिति बेहतर बनाना चाहती है। राहुल गांधी को इन चुनावों में बेहतर अनुभव हासिल होगा।

राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर न बैठाने के पीछे मंतव्य यह होता है कि वे अनुभवहीन हैं। पर ठीक 41 साल की उम्र में राजीव गांधी भी प्रधानमंत्री बने थे। राजीव के पास राजनीति का उतना अनुभव नहीं था, जितना राहुल के पास है। उन्हें 2014 में प्रधानमंत्री बनाने की कल्पना तब करें जब 2014 में पार्टी की विजय की सम्भावनाएं पूरी हों। इससे बेहतर क्या यह नहीं होगा कि राहुल को नया प्रधानमंत्री बनाकर पार्टी चुनाव में उतरे। नए नेतृत्व और नए कार्यक्रमों के साथ। इसमें जोखिम है, पर सम्भावनाएं भी ज्यादा हैं। सन 1971 में इंदिरा गांधी इसी तरह नई उम्मीदें लेकर आईं थीं।

श्रीमती सोनिया गांधी अपनी अनुपस्थिति में जो अंतरिम व्यवस्था बनाकर गईं हैं, उसमें एक संदेश तो यह है कि सरकार के महत्वपूर्ण चेहरे इसमें नहीं हैं। केवल एके एंटनी का नाम इनमें है। एंटनी अपेक्षाकृत सादे और सरल व्यक्ति हैं। बेशक यह पार्टी के संचालन की व्यवस्था है। पर यह काम तो कांग्रेस कार्य समिति भी कर सकती थी। एक अनुमान है कि राहुल गांधी कुछ समय के लिए सोनिया जी की जगह पार्टी अध्यक्ष का काम देखें और एंटनी को सरकार की जिम्मेदारी दी जाए। बहरहाल किसी न किसी स्तर पर बड़े फैसले करने की घड़ी आ गई है। हाल में हुए मंत्रिमंडलीय फेर-बदल में कुछ नहीं हुआ और पार्टी के हाथ से स्थितियाँ बाहर निकलती जा रहीं हैं। बहरहाल इस मामले में जैसा सन्नाटा खिंचा हुआ है, वह जल्द टूटना चाहिए।

जन संदेश टाइम्स में प्रकाशित

1 comment:

  1. हैप्पी फ़्रेंडशिप डे।

    Nice post .

    हमारी कामना है कि आप हिंदी की सेवा यूं ही करते रहें। ब्लॉगर्स मीट वीकली में आप सादर आमंत्रित हैं।
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