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Tuesday, August 2, 2011

संसदीय व्यवस्था को प्रभावी बनाना भी हमारी जिम्मेदारी है



अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता दिवस और 1942 की अगस्त क्रांति के सिलसिले में याद किया जाता है। या फिर हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों के कारण। लगता है कि इस साल अगस्त के महीने में कुछ और क्रांतियाँ होंगी। इसकी शुरूआत कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा के पराभव से हो चुकी है। लोकपाल संस्था प्रभावशाली होगी या नहीं, इसका संकेत कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने दे दिया है। जिन्हें अभी तक अन्ना हजारे के पीछे भाजपा का हाथ लगता था, शायद उनकी धारणा में कुछ बदलाव हो, पर इस मामले को राजनीति के ऊपर ले जाकर देखने की ज़रूरत है।
आज से शुरू होने वाले सत्र में महत्वपूर्ण संसदीय कार्य पूरे होंगे। ज्यादातर निगाहें लोकपाल विधेयक पर हैं इसलिए हम वहीं तक देख पा रहे हैं। पर केवल लोकपाल विधेयक ही कसौटी पर नहीं है। देश की व्यवस्था को परिभाषित करने के लिहाज से हम इस वक्त एक महत्वपूर्ण मुकाम पर खड़े हैं। संसद के इस सत्र में और आने वाले सत्र में अनेक नए कानून और संविधान संशोधन होंगे। दूसरे अगले लोकसभा चुनाव के पहले के राजनैतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत अब होगी। और तीसरे तमाम घोटालों, बवालों और झमेलों पर एक सार्थक बहस संसद में होगी, बशर्ते उसे होने दिया जाए। चौथे अन्ना का अनशन हो या न हो, जनता की खुली संसद का दायरा बढ़ने वाला है। 
मूल्य वृद्धि, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना, एयर इंडिया, रिटेल में एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून, मुम्बई धमाके और विदेश-नीति से जुड़े अनेक मामले कतार में खड़े हैं। इधर ए राजा ने अदालत में पी चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पर आरोप लगाकर भाजपा और वाम मोर्चे को अच्छे हथियार दे दिए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यूपीए सरकार की टोपी में लगी कलगी की तरह है। पर इस योजना को लागू करने में अनियमितताओं की लम्बी सूची भी विपक्ष के पास है। तो इसलिए बेहद रोचक शो शुरू होने वाला है। राजनीति में टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। देखना यह है कि किसका होमवर्क सटीक है। और इस दौरान कुछ नई बातों का पर्दाफाश भी होगा। येदुरप्पा से छुटकारा पाकर भाजपा नैतिकता के ऊँचे धरातल पर खड़े होने का दावा करेगी। उधर बेल्लारी के रेड्डी बंधु भी कुछ नए रहस्य खोलने वाले हैं। कई व्यक्तिगत और कई सार्वजनिक रहस्यों के खुलने का दौर भी शुरू होगा अब।
शोर-शराबे को संसदीय कर्म मानें तो हमारे यहाँ इसकी कमी नहीं। पर गम्भीर काम-काज के लिहाज से हम काफी पीछे हैं। संसद के पिछले दो सत्रों में हमारी संसद ने सिर्फ पाँच बिल पास किए हैं। दोनों सदनों के पास 81 बिल विचारार्थ पड़े हैं। उम्मीद है कि भूमि अधिग्रहण बिल, डायरेक्ट टैक्सेज कोड बिल, उच्च शिक्षा में सुधार के बाबत विधेयक, महिलाओं को पंचायत में 50 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक, केन्द्रीय शिक्षा संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा विधेयक औस तमाम विधेयक है। इनमें से कुछ स्थायी समिति में हैं। कुछ की रिपोर्ट आ गई हैं। उनपर विचार तभी होगा, जब संसद को समय मिलेगा।
लोकपाल विधेयक को पेश करने के पहले स्थायी समिति में भेजा जाएगा। यह मसला राजनैतिक रंग ले चुका है, इसलिए शायद हमारा ध्यान उधर ही रहेगा, पर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर अभी कई कानून और हैं। इनमे एक है ह्विसिल ब्लोवर बिल, जिसकी माँग लम्बे अर्से से हो रही है पर जो बन नहीं पा रहा। इसी तरह ज्युडीशियल एकाउंटेबिलिटी बिल है, जिसके आधार पर सरकार न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है। विदेशी अधिकारियों को भारतीय कम्पनियाँ घूस न देने पाएं इसके लिए भी एक बिल है। अभी हम खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के बारे में ज्यादा बात ही नहीं कर पाए हैं। बहरहाल, व्यवस्था को पारदर्शी, जिम्मेदार और कुशल बनाने के लिए अनेक कानूनों का प्रस्ताव है। यदि आप संसद के सामने विचाराधीन कानूनों की सूची पर ध्यान दें तो समझ में आएगा कि ये कानून कितने महत्वपूर्ण हैं और इनके बारे में फैसला करने में देरी का अर्थ क्या है। बेशक यह सब राजनैतिक चक्रव्यूहों को पार किए बगैर सम्भव नहीं होगा।
अन्ना हजारे के अनशन के बाद सरकार ने उनके पाँच सदस्यों को शामिल करके एक ड्राफ्टिंग कमेटी ज़रूर बनाई, पर आज उसका कोई मतलब समझ में नहीं आता। अंततः सरकार ने बिल का जो समौदा तैयार किया है, वह संयुक्त समिति का मसौदा नहीं है। तो क्या अन्ना को फिर से अनशन करना चाहिए? या फिर संसद के विवेक पर सब कुछ छोड़ देना चाहिए? कानून तो संसद में ही बनेगा, पर संसद के बाहर की आवाजों को भी भीतर तक सुना जा सकता है। हाल के घटनाक्रम के बाद कम से कम इतना ज़रूर हुआ है कि मूल्य, विचार और नैतिकता की बातें सुनी जाने लगीं हैं। जिस वक्त कैबिनेट में इस मसौदे पर चर्चा हो रही थी थी, मनमोहन सिंह समेत कुछ मंत्रियों ने सुझाव दिया कि इसमें प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे के भीतर लाना चाहिए। उनका कहना था कि ऐसा करके हम जनता को बेहतर संदेश देते हैं। बहरहाल कैबिनेट का फैसला हो चुका है। अब यह कानून देश की राजनीति के पाले में हैं। क्या यह कानून अगले चुनाव का मुद्दा बन सकता है?
शायद कोई अकेला कानून किसी चुनाव का मुद्दा न बने, पर व्यवस्थागत पारदर्शिता बन सकती है। धीरे-धीरे हम विचार के दायरे को फोकस करते जा रहे हैं। इसकी एक शुरुआत आज से होगी, भारतीय संसद में।   

  

2 comments:

  1. हमारे यहाँ भी अब कानून सुधार आंदोलन चलाये जाने की नितांत आवश्यकता है। अन्ना ब्रांड तानाशाही के खतरे को भी देखते हुये लोकतन्त्र बचाने के उपाय करने चाहिए वरना हर कोई व्यवस्था को जब-तब चुनौती देने लग जाएगा। अन्ना का आंदोलन गैर-लोकतान्त्रिक विधि से संचालित हो रहा है जो घातक है।

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  2. आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें
    वाह ...बेहतरीन प्रस्‍तुति ।
    आप का बलाँग मूझे पढ कर अच्छा लगा , मैं भी एक बलाँग खोली हू
    लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
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