मगरिब से उठा जम्हूरी-तूफान
मिस्र का राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय आंदोलन के लगभग समानांतर ही चला था। अंग्रेज हुकूमत के अधीन वह भारत के मुकाबले काफी देर से आया और काफी कम समय तक रहा। सन 1923 में यह संवैधानिक राजतंत्र बन गया था। उस वक्त वहाँ की वाफदा पार्टी जनाकांक्षाओं को व्यक्त करती थी। सन 1928 में अल-इखवान अल-मुस्लिमीन यानी मुस्लिम ब्रदरहुड की स्थापना हो गई थी। पाबंदी के बावजूद यह देश की सबसे संगठित पार्टी है। सन 1936 में एंग्लो-इजिप्ट ट्रीटी के बाद से मिस्र लगभग स्वतंत्र देश बन गया, फिर भी वहाँ लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास नहीं हो पाया है। दूसरे विश्वयुद्ध में यह इलाका लड़ाई का महत्वपूर्ण केन्द्र था। 1952-53 में फौजी बगावत के बाद यहाँ का संवैधानिक राजतंत्र खत्म हो गया और 1953 में मिस्र गणराज्य बन गया।
पहले नासर फिर अनवर सादात और फिर हुस्नी मुबारक। तीनों नेता लोकप्रिय रहे, पर मिस्र में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास भारतीय लोकतंत्र की तरह नहीं हुआ। नासर के व्यक्तित्व के सहारे देश में तमाम प्रगतिशाल बदलाव हुए, पर वे अपने समर्थकों के एक छोटे ग्रुप के सहारे ही काम करते थे। और लगभग वही व्यवस्था चलता रही। नासर ने पश्चिमी देशों के बजाय रूस का साथ दिया, जबकि अनवर सादात और हुस्नी मुबारक ने पश्चिम के साथ रिश्ते अच्छे रखे। 11 फरवरी को हुस्नी मुबारक के हटने की घोषणा होने के बाद अगला सवाल था कि अब क्या होगा? यह सवाल उत्तरी अफ्रीका और पश्चिम एशिया के संदर्भ में है। जनता का आक्रोश समूचे इलाके में व्यक्त हो रहा है, पर ऐतिहासिक स्थितियाँ कहती हैं कि यहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं कायम होने में वक्त लगेगा। मिस्री संसद के दोनों सदन प्रभावहीन हैं। यों भी वहाँ चुनावों में दस-बारह प्रतिशत वोट पड़ते हैं। 20 मार्च को हुए जनमत संग्रह में चालीस फीसदी से ज्यादा वोट पड़ने पर माना जा रहा है कि जनता की भागीदारी बढ़ी है। शहरों से दूर के इलाकों के वोट भी पड़े हैं।
पिछले इतवार को मिस्र की जनता ने संविधान संशोधन के लिए हुए जनमत संग्रह पर अपनी मुहर लगा दी। अब वहाँ चुनाव होंगे। कहना मुश्किल है कि यह देश लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन संशोधनों का उन लोगों ने विरोध किया था, जिन्होंने हाल में मिस्र में जनांदोलन चलाया। विरोध करने वालों में मुहम्मद अल बरदाई और अम्र मूसा जैसे नरमपंथी नेता भी हैं। संविधान संशोधनों के बाद भी ऐसी कोई हालत नज़र नहीं आती कि वहाँ फौज का दखल कम होगा। फौजी सुप्रीम काउंसिल ने इसके पहले घोषणा की थी कि जून में संसदीय चुनाव होंगे। उसके बाद राष्ट्रपति पद के चुनाव होंगे। सन 2007 में हुए संवैधानिक संशोधन के बाद संसदीय चुनाव में आनुपातिक पद्धति का सहारा लेने की बात थी। वह एक जटिल प्रक्रिया है। क्या इतने कम वक्त में यह सम्भव होगा?
जनता ने जिन संविधान संशोधनों को मंजूर किया है उनमें से एक है कि राष्ट्रपति पद का कार्यकाल दो बार से ज्यादा नहीं होगा। एक चीज़ यह जोड़ी गई है कि उसकी दोहरी नागरिकता न हो और उसने किसी गैर-मिस्री से विवाह न किया हो। यह माँग किसी ने की नहीं थी, पर से शामिल करने के पीछे शायद यह अंदेशा है कि विदेशों में रहने वाले मिस्री देश की राजनीति पर कब्जा न कर लें। सन 2005 के पहले तक राष्ट्रपति पद के लिए केवल एक प्रत्याशी का नामांकन संसद करती थी। जनता केवल उसके समर्थन या विरोध में वोट देती थी। 2005 में एक से ज्यादा प्रत्याशियों का सिद्धांत शुरू हुआ, पर किसी निर्दलीय व्यक्ति का चुनाव में उतर पाना अव्यावहारिक था। अब इसे थोड़ा और आसान किया जा रहा है।
संविधान के अनुच्छेद 5 के अनुसार धार्मिक आधार पर बनी पार्टियाँ चुनाव नहीं लड़ सकतीं। संविधान संशोधन के लिए बनी कमेटी में मुस्लिम ब्रदरहुड के सदस्य भी थे। उन्होंने इस व्यवस्था को खत्म कराने की कोई कोशिश नहीं की। वस्तुतः हुस्नी मुबारक ने भी मुस्लिम ब्रदरहुड के सदस्यों को निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव में भाग लेने की अनुमति दे रखी थी। यह संगठन व्यावहारिक अर्थ में बहुत प्रभावशाली है। उसकी तमाम शैक्षिक, सामाजिक संस्थाएं चलतीं हैं। अस्पताल तथा अन्य दातव्य कार्य यह संस्था करती है। चुनाव के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड और हुस्नी मुबारक की नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी ही तैयार हैं। बाकी कोई महत्वपूर्ण संगठन नहीं है।
हाल के आंदोलन में शामिल वामपंथी और उदारवादी तत्व चाहते थे कि पहले संस्थाएं बन जाएं, फिर चुनाव हों। इसीलिए वे संविधान संशोधनों का विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि जनता संविधान संशोधनों को नामंजूर करके सरकार को संदेश दे सकती है कि हमारी राय सरकारी राय से अलग है। इसे स्वीकार कराने के पक्षधर कहते थे कि इसके बहाने जनता को लगेगा कि लोकतंत्र एक कदम आगे बढ़ा है। संविधान संशोधन में शायद एक क्रातिकारी काम यह हुआ है कि राष्ट्रपति देश में मनमर्जी से आपतकाल नहीं लगा सकेगा। उसकी पुष्टि संसद से होगी। एक माने में मिस्र सन 1939 से आपतकाल में है।
उत्तरी अफ्रीका का मगरिब और पश्चिम एशिया के देशों के बीच अनेक असमानताएं है, पर कुछ समानताएं भी हैं। ईरान को अलग कर दें तो अरब राष्ट्रवाद इन्हें जोड़ता है। लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मिस्र, सीरिया, बहरीन, यमन से लेकर सऊदी अरब तक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। लोकतांत्रिक विरोध व्यक्त करने के तरीके विकसित न होने और सत्ता परिवर्तन का शांतिपूर्ण तरीका पास में न होने के कारण इस पूरे इलाके में अजब तरह का असमंजस देखने में आ रहा है। इस लिहाज से पश्चिम एशिया में सबसे अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था ईरान में है। इसके बाद मिस्र और इराक हैं, जहाँ आधुनिकीकरण बेहतर है।
लीबिया में कर्नल गद्दाफी की सरकार के जाने के बाद क्या होगा, कोई नहीं जानता। गद्दाफी के विरोधियों के पास हथियार भी हैं और उन्हें पश्चिमी देशों से समर्थन भी हासिल है। गद्दाफी को इलाके के देशों का समर्थन भी हासिल नहीं है। अरब लीग तक ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। पर क्या उत्तर-गद्दाफी व्यवस्था लोकतांत्रिक होगी? इराक का अनुभव बेहतर है, अफगानिस्तान का खराब। अराजकता और असमंजस के बीच इस इलाके में कबायली संघर्ष होने और अल-कायदा का प्रभाव बढ़ने का खतरा भी है।
इन सारे देशों की पृष्ठभूमि एक जैसी नहीं है। इनकी समस्याओं के समाधान भी अलग तरीके के हैं। फेसबुक, ब्लॉग-विमर्श और नेट-सम्पर्क से विकसित वर्च्युअल राजनीति व्यावहारिक ज़मीन पर उतनी ताकतवर साबित नहीं हुई, जितनी अपेक्षा थी। इसकी शुरूआत ट्यूनीशिया से हुई थी। वहाँ नए प्रधानमंत्री बेजी कायद एसेबसी आए हैं। देश में 24 जुलाई को संविधान सभा का चुनाव होगा। नया चुनाव लिखने के बाद देश की व्यवस्था आगे बढ़ेगी। इस बीच लाबियाई शरणार्थियों के रूप में ट्यूनीशिया के सामने एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है। ट्यूनीशिया ने ही तानाशाहों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूँका था। बहरहाल यह देश बेहतर ढंग से अपने अंतर्विरोधों को सुलझा रहा है।
मगरिब के मुकाबले खाड़ी देशों में हालात अब बिगड़ने जा रहे हैं। यमन का राजधानी साना में विरोध प्रदर्शन जारी हैं। वहाँ 32 साल से राज कर रहे राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह के खिलाफ विपक्ष भी अपेक्षाकृत संगठित है। यमन का लोकतांत्रक इतिहास भी बेहतर है। वहाँ सार्भौमिक वयस्क मताधिकार है। 301 सदस्यों की संसद है। बावजूद इसके राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त 111 सदस्यों की शूरा काउंसिल ज्यादा ताकतवक है। बहरीन से भी जनांदोलन की खबरें मिल रहीं हैं। इस इलाके में गल्फ कोऑर्डिनेशन काउंसिल और सऊदी अरब का राजनैतिक प्रभाव है। यह सब कुछ परिवारों के हाथ की ताकत को बताता है। शायद यह ज्यादा नहीं चलेगा। सके विकल्प में जनता की ताकत किस तरीके से उभरेगी यह बड़ा सवाल है। अल कायदा की उपस्थित एक दूसरे तरह के खतरे का संकेत भी करती है। लोकतांत्रिक संस्थाएं ठीक तरीके से बनती रहें तो अंततः सब ठीक होगा।
दैनिक जनवाणी में प्रकाशित
तमाम ख्हमियों के बावजूद भारत विदेशी चालों को विफल कर देता है. बाकी देशों में यह कमी है इसी लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास न हो सका है.अब हो जाए तो भला है.
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