भारत और पाकिस्तान को आसमान से देखें तो ऊँचे पहाड़, गहरी वादियाँ, समतल मैदान और गरजती नदियाँ दिखाई देंगी। दोनों के रिश्ते भी ऐसे ही हैं। उठते-गिरते और बनते-बिगड़ते। सन 1988 में दोनों देशों ने एक-दूसरे पर हमले न करने का समझौता किया और 1989 में कश्मीर में पाकिस्तान-परस्त आतंकवादी हिंसा शुरू हो गई। 1998 में दोनों देशों ने एटमी धमाके किए और उस साल के अंत में वाजपेयी जी और नवाज शरीफ का संवाद शुरू हो गया, जिसकी परिणति फरवरी 1999 की लाहौर बस यात्रा के रूप में हुई। लाहौर के नागरिकों से अटल जी ने अपने टीवी संबोधन में कहा था, ‘यह बस लोहे और इस्पात की नहीं है, जज्बात की है। बहुत हो गया, अब हमें खून बहाना बंद करना चाहिए।‘ भारत और पाकिस्तान के बीच जज्बात और खून का रिश्ता है। कभी बहता है तो कभी गले से लिपट जाता है।
संयोग की बात है कि वाजपेयी जी की भारत वापसी के कुछ दिन बाद देश की राजनीति की करवट कुछ ऐसी बदली कि उनकी सरकार संसद में हार गई। दूसरी ओर उन्हीं दिनों पाकिस्तानी सेना कश्मीर के करगिल इलाके में भारतीय सीमा के अंदर ऊँची पहाड़ियों पर कब्जा कर रही थी। कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी को अचानक आन पड़ी आपदा का सामना करना पड़ा। नवाज़ शरीफ के फौजी जनरल परवेज मुशर्रफ की वह योजना गलत साबित हुई, पर वह साल बीतते-बीतते शरीफ साहब को हटाकर परवेज मुशर्ऱफ देश के सर्वे-सर्वा बन गए। उन्हें सबसे पहली बधाई अटल जी ने दी, जो चुनाव जीतकर फिर से दिल्ली की कुर्सी पर विराजमान हो गए थे।
अगले तीन दिन भारत-पाक रिश्तों के लिए रोमांचकारी होंगे। सोमवार और मंगल को दिल्ली में दोनों देशों के गृह-सचिवों की बैठकें हैं और बुध को मोहाली में मैच। प्रधानमंत्री ने मैच देखने का न्योता पाकिस्तानी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों को भेजा है। जज्बात और खून के रिश्ते हैं। हम-जुबान, हम-खाना, हम-दीवाना। खेल की डिप्लोमेसी क्या कमाल करती है। लोगों को लगता है कि दोनों के रिश्ते जंगी हैं। वे खेल को भी जंग मानते हैं। ऐसा नहीं है। हमें याद नहीं सन 2004 में भारत की टीम ने जब लाहौर में पाकिस्तान को हराया था तो स्टेडियम में पटाखे दग रहे थे। दो दशक में बहुत कुछ बदल गया है। बदमज़गी नहीं है। हमारे टीवी स्टेशनों पर पाकिस्तानी खिलाड़ी एक्सपर्ट बनकर आते हैं। हम उनके कमेंट पसंद करते हैं। पाकिस्तान से आए दर्शक पंजाब के घरों में मेहमान बनकर रहते हैं। जनरल जिया-उल-हक से लेकर परवेज मुशर्रफ तक क्रिकेट दर्शक बनकर भारत आ चुके हैं।
कोई एक क्रिकेट या हॉकी मैच दोनों देशों की तकदीर नहीं बदल सकता। हमारे पास 26/11 जैसे उदाहरण भी हैं। अलबत्ता खेल के जोशो-जुनून पर गौर करें तो दोनों मुल्कों की पब्लिक करीब आने के तमाम दरवाजे खोल सकती है। सन 2004 में भारतीय क्रिकेट टीम के पाकिस्तान दौरे के ठीक पहले पेच फँस गया था। शिवसेना का तो विरोध था ही आडवाणी जी का गृह मंत्रालय भी इस दौरे के पक्ष में नहीं था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने दौरे की अनुमति दे दी। यह दौरा बेहद सफल रहा और भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया। पाकिस्तानी पत्रकार नजम सेठी ने उस दौरे की अनुमति को अटल जी की ओर से पाकिस्तान को वैलेंटाइन डे की गिफ्ट बताया था।
क्रिकेट की कारोबारी तहज़ीब पर न जाएं तो खेल का इस्तेमाल तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान में हो सकता है। खेल के मैदान में राष्ट्रवादी और कबाइली जुनून भी देखने को मिलते हैं, पर धीरे-धीरे दर्शक बेहतर खिलाड़ी और टीम के कौशल को सराहने लगते हैं। ऐसा करते वक्त वे खिलाड़ी के धर्म या जाति को नहीं देखते। पाकिस्तान के शोएब अख्तर या जावेद अफरीदी को हम पसंद करते हैं और सचिन, सहवाग और धोनी को पाकिस्तानी दर्शक। यह भावना हमें उदार और समझदार बनाती है। दोनों समाजों में कट्टरपंथी-संकीर्ण भावनाओं और विचारों की कमी नहीं है, पर सीमा के दोनों ओर समझदार लोग भी रहते हैं। पाकिस्तानी दर्शकों ने लाहौर और कराची में अपनी टीम को भारत के हाथों देखा है और भारतीय दर्शकों ने चेन्नई और दिल्ली में अपनी टीम को पाकिस्तान के हाथों हारते देखा है। यह खेल की भावना है, जो हमें जीवन का पाठ भी पढ़ाती है।
पाकिस्तानी समाज की गतिशीलता के बारे में अच्छी तरह नहीं कहा जा सकता। वहाँ कट्टरपंथी कार्रवाइयों के किस्से अक्सर अखबारों में होते हैं। पाकिस्तानियों को भी हमारे बारे में कई बातें पता हैं। कुछ सच हैं और कुछ गलत। सिर्फ क्रिकेट और हॉकी से ही रिश्ते नहीं बनेंगे। यह एक रास्ता है। दोनों देशों के बीच गीत-संगीत, थियेटर, सिनेमा, कॉमेडी कलाकारों वगैरह के रिश्ते भी बने हैं। इसके बाद किताबों-पत्रिकाओं और अखबारों का आदान-प्रदान, टीवी चैनलों को काम करने और प्रसारण की छूट भी होनी चाहिए। दोनों देशों के सामान्य पाठकों के लिए कोई ऐसी पत्रिका कभी शुरू की जा सकती है, जिसकी भाषा एक हो, फर्क सिर्फ लिपि का हो। इंटरनेट पर यह काम शुरू हुआ है। यह संवाद कई बार गाली-गलौज तक उतर आता है। इसे रोकना सम्भव नहीं। संवाद का रास्ता एकदम समतल भी नहीं होगा। पथरीला ही सही, पर वह होना चाहिए।
दैनिक जन संदेश में प्रकाशित
आपका कहना और चाहना सही है .जनता तो एकता समर्थक है.दोनों तरफ साम्राज्यवादियों के हिमायती साम्प्रदायिक चश्मे से विभेद उत्पन्न कर देते हैं.
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