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Monday, January 29, 2024

गणतांत्रिक-व्यवस्था और ‘लोकतंत्र की जननी’ भारत

साँची के स्तूप में अंकित मल्ल महाजनपद की राजधानी कुशीनगर। इतिहासकार मानते हैं कि गौतम बुद्ध के समय में मल्ल क्षेत्र में दुनिया की पहली गणतांत्रिक व्यवस्था थी

इस साल गणतंत्र दिवस परेड में देश की सांस्कृतिक विरासत और विविधता को एक नए रूप में पेश किया गया. परेड की मुख्य थीम थी, विकसित भारतऔर भारत-लोकतंत्र की मातृका. यह परेड महिला केंद्रित भी थी. 

पहली बार इस परेड के आगे सैनिक बैंड के बजाय 100 महिला कलाकार भारतीय वाद्ययंत्रों के संगीत की खुशबू बिखेरती हुई चल रही थीं और शेष परेड उनके पीछे थी. 

इसके पहले सैनिक टुकड़ियों का नेतृत्व करती महिला अधिकारी आपने देखी हैं, पर इसबार तीनों सेनाओं की 144 महिला कर्मियों की मिली जुली टुकड़ी भी इस परेड में थी.

लोकतंत्र की जननी

यह परेड भारत को 'लोकतंत्र की जननी' के रूप में प्रदर्शित करने का प्रतीक बनेगी. लोकतंत्र अपेक्षाकृत आधुनिक विचार है, और उसका काफी श्रेय पश्चिमी समाज के दिया जाता है. हालांकि उसके विकास में उन समाजों की भी भूमिका है, जो अतीत में उन मूल्यों से जुड़े थे, जो आज लोकतंत्र की बुनियाद हैं.

हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.

इस सफलता के बावजूद हमारे लोकतंत्र को लेकर कुछ सवाल हैं. शायद यही वजह है कि पिछले कुछ समय से भारत सरकार दुनिया के सामने भारतीय लोकतांत्रिक-परंपराओं को शोकेस करना चाहती है.

प्राचीन विचार

पिछले साल अमेरिका ने कोस्टारिका, नीदरलैंड्स, दक्षिण कोरिया और ज़ाम्बिया के साथ मिलकर दूसरा लोकतंत्र शिखर सम्मेलन आयोजित किया. इस वर्चुअल सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि महाभारत, वेद और सभी ऐतिहासिक संदर्भ साबित करते हैं कि पहले गैर-वंशानुगत शासकों की परंपरा भारत में शुरू हुई थी.

उन्होंने कहा, निर्वाचित नेताओं का विचार प्राचीन भारत में, शेष विश्व की तुलना में बहुत पहले आ गया था. प्राचीन भारत में गणतंत्र राज्यों के कई ऐतिहासिक संदर्भ हैं, जहां शासक वंशानुगत नहीं थे. भारत वास्तव में लोकतंत्र की जननी है. महाभारत में लिखा है कि नागरिकों का पहला कर्तव्य अपने स्वयं के नेता को चुनने का है.

इसके पहले नरेंद्र मोदी ने सितंबर 2021 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत को लोकतंत्र की जननी’  बताया था. आमतौर पर धारणा है कि छठी शताब्दी में यूनानी नगर-राज्यों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की शुरुआत हुई थी. इसके लिए 'डेमोस' और 'क्रेटोस' शब्दों को लिया गया.

दिल्ली में प्रदर्शनी

इस शिखर सम्मेलन के बाद पिछले साल सितंबर में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान 'भारत: लोकतंत्र की जननी' विषय पर एक प्रदर्शनी भी लगाई. इसमें उन भारतीय परंपराओं को दर्शाया गया, जो हमारे देश की लोकतांत्रिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं.

प्रदर्शनी में बताने का प्रयास किया गया कि भारत में लोकतंत्र सदियों पुरानी अवधारणा है. भारतीय लोकाचार के अनुसार, लोकतंत्र में स्वतंत्रता, स्वीकार्यता, समानता और समावेशिता के मूल्य शामिल होते हैं. यह व्यवस्था नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण और सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर देती है।

ऋग्वेद और अथर्ववेद की पंक्तियों में सभा, समिति और संसद जैसी सहभागी संस्थाओं का उल्लेख किया गया है. भारतीय साहित्य में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि शासन करने का अधिकार योग्यता या आम सहमति के माध्यम से अर्जित किया जाता है, यह वंशानुगत नहीं है.

रामायण व्यक्तियों के कल्याण के लिए शासन पर ज़ोर देती है, जैसा कि राम के सर्वसम्मति से अयोध्या के राजा के रूप में चयन में देखा गया था. महाभारत में धर्म, आचार, नैतिकता और शासन पर प्रकाश डाला गया है. विशेष रूप से युद्ध के मैदान में युधिष्ठिर को भीष्म की सलाह और भगवद् गीता में कर्त्तव्यों का मार्गदर्शन.

अकबर का सुलह-ए-कुल

बादशाह अकबर (1556-1605) ने सुलह-ए-कुलके माध्यम से जिस समावेशी शासन को लागू करने की कोशिश की थी, उसकी जड़ें भी भारतीय परंपराओं में ही थीं. उनके नवरत्न परामर्शदाता भी एक प्रकार से लोकतांत्रिक आदर्शों को स्थापित करते थे. भारतीय परंपरा राजाके साथ कुछ मानवीय मूल्यों को जोड़ती है. उसकी कुछ जिम्मेदारियाँ थीं.

प्राचीन भारतीय प्रणालियों में एक प्रमुख विशेषता, महाजनपद शासन मॉडल में देखने को मिली. उत्तर-वैदिक युग की इस शासन में गैर-राजतंत्रीय, गणतांत्रिक राज्य होते थे. ये गणतंत्र एक ही व्यक्ति में निहित प्राधिकार के विपरीत बहुलवादी राजनीतिक व्यवस्था का क्रमिक विकास थे.

बौद्ध और जैन धर्म  के आरंभिक ग्रंथों में 16 महाजनपद  का उल्लेख मिलता है.  जनपद शब्द का अर्थ है ऐसा भू-खंड जहाँ जन अथवा लोग अपने पाँव रखते हों, अर्थात बसे हों. इस प्रकार महाजनपदका अर्थ था, बड़ी राजनीतिक-भौगोलिक इकाइयाँ.

ये महाजनपद आज के उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान से पूर्वी–बिहार तक और दक्षिण में गोदावरी नदी के बेसिन तक फैले हुए थे. कालांतर में मगध महाजनपद इन सभी महा जनपदों में सबसे शक्तिशाली उभरा और भारत का प्रथम साम्राज्य बना.

सोलह महाजनपद

बौद्ध ग्रंथों में भारत को पाँच भागों में विभाजित किया गया है–उत्तरापथ (पश्चिमोत्तर भाग), मध्यदेश, प्राची (पूर्वी भाग), दक्षिणापथ तथा अपरांत (पश्चिमी भाग). ये 16 महाजनपद थे: 1.काशी, 2.कोशल, 3.अंग, 4.मगध, 5.वज्जि, 6.मल्ल, 7.चेदि, 8.वत्स, 9.कुरु, 10.पांचाल, 11.मत्स्य, 12.शूरसेन, 13.अश्मक, 14.अवंति, 15.गांधार और 16.कंबोज.

600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व की अवधि के बीच लगभग 60 कस्बों और शहरों की स्थापना की गई, जो शिल्प विकास और व्यापारिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे. पाणिनी के अष्टाध्यायी में लोकतांत्रिक संस्थाओं- गण, पूग, निगम, जनपद पर प्रकाश डाला गया है.

जैन धर्म, अनेकांतवाद के माध्यम से बहुलवाद को बढ़ावा देता है. वह कहता है कि सत्य के कई पहलू होते हैं। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप सह-अस्तित्व और सहिष्णुता को बढ़ावा देता है।

ईसा पूर्व गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित बौद्ध संघ, प्रारंभिक लोकतांत्रिक प्रथाओं का उदाहरण है. इस भिक्षु समुदाय ने बौद्ध सिद्धांतों और लोकतांत्रिक परंपराओं को बरकरार रखा.

परंपराओं की खोज

बात केवल इतनी है कि हजारों साल पहले हमारे पूर्वज न केवल सभ्यता के उच्चतर मूल्यों से परिचित थे, बल्कि अपनी विविधता को संरक्षित रखने के तौर-तरीकों को समझते भी थे. यह लोकतांत्रिक-दृष्टि अनायास नहीं थी. बेशक इस दौरान हमारे समाज ने भी प्रतिगामी और नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भी देखीं. उन्हें याद करने के साथ अपनी श्रेष्ठता को याद करने में हर्ज नहीं है.

ईसा पूर्व अतीत से लेकर वर्ष सत्रहवीं सदी के अंत तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक था. उस दौर में दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में भारत का योगदान 20 से 40 प्रतिशत तक रहा. सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी.

यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी. इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि भारतीय सभ्यता मिली-जुली है. इस आधार ‘भारतीय-सभ्यता’ को खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि समझना यह चाहिए कि कैसी कुशलता के साथ इस समाज ने एकसाथ रहना सीखा.

भारतीय समाज अनगिनत समुदायों का समुच्चय है। इन अनगिनत समुदायों को कोई धागा जोड़ता भी है. नहीं जोड़ता, तो एक भौगोलिक या सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारत का मतलब कुछ भी नहीं है.

भारतीय-सामर्थ्य

भारत की आजादी के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कहना था कि भारत सिर्फ एक भौगोलिक पहचान है. वह कोई एक देश नहीं है, जैसे भूमध्य रेखा कोई देश नहीं है. शायद उन्होंने हमारा हजारों साल पुराना इतिहास नहीं पढ़ा था. वे आज होते, तो अपने बयान पर शर्मिंदा होते.

पुरानी परंपराओं की तारीफ या आलोचना राजनीति के दायरे में भी आती है. यह कहने पर कि भारत लोकतंत्र की जननी है, इस बात के राजनीतिक निहितार्थ को भी देखना चाहिए. अंग्रेजी शासन के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान यह बताने की कोशिशें हुईं कि शासन करना हमें भी आता है. हमने औपनिवेशिक चालाकियों को पहचाना नहीं और दासता की गिरफ्त में आ गए.

श्रेष्ठता की कहानी

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जो उचित था, वह स्वतंत्रता के बाद क्या अनुचित होना चाहिएनवंबर 2022 में भारतीय इतिहास परिषद ने एक पुस्तक जारी की, जिसका शीर्षक था, इंडिया: द मदर ऑफ डेमोक्रेसी. इस किताब के साथ यह बहस भी शुरू हुई कि हम अपनी श्रेष्ठता की कहानी को किस हद तक और किस रूप में कहें.

एक समय तक यूरोप के लोग भारतीय परंपराओं से परिचित नहीं थे. उनमें से बहुत से लोग इस इलाके को असभ्य और असंस्कृत मानते थे. इसके पीछे विदेशी धार्मिक नजरिया भी था. वे भारतीय विचारों को निरंकुश और जन-विरोधी साबित करते रहे.

बावजूद इसके भारतीय इतिहास, दर्शन और संस्कृति पर पश्चिमी विद्वानों ने अध्ययन भी किया और बेहतरीन साहित्य रचा. उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मद्रास के गवर्नर टॉमस मुनरो ने ब्रिटिश संसद में कहा, भारत और ब्रिटेन के बीच यदि सभ्यता कोई कारोबारी वस्तु होती, तो मैं यकीनन कहता कि हमें भारत से बहुत कुछ आयात करने की जरूरत है.

महिमामंडन

यह अनुभव और ज्ञान पर निर्भर करता है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण कैसा होगा. भारत की लोकतांत्रिक-परंपराओं का उल्लेख केवल महिमामंडन के लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि उन उदात्त मूल्यों के संवर्धन के लिए भी होना चाहिए, जिनका हवाला हम दे रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि हम वस्तुनिष्ठ तरीके से इन बातों का अध्ययन करें.

महिमामंडन और हीनभावना दोनों से बचते हुए हमें वस्तुनिष्ठ और न्यायपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचने का प्रयास करना चाहिए. इसके साथ ही यह भी देखने और समझने का प्रयास करें कि लोकतांत्रिक-मूल्यों, दायित्वों और संस्थाओं का वैश्विक-इतिहास क्या है.

इसमें केवल हमारा ही योगदान नहीं है. इन दोनों के मेल से ही हम एक स्वस्थ और वैज्ञानिक-दृष्टि का निर्माण कर सकेंगे. हाँ, निराशा से बाहर निकलने के लिए अपने गौरवपूर्ण अतीत को याद करना भी जरूरी है.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

 

 

 

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