भारत की अध्यक्षता में आयोजित जी-20 समूह के शिखर सम्मेलन में ‘नई दिल्ली घोषणा’ को सर्वसम्मति से अपनाना दो तरह से शुभ संकेत है। वैश्विक-राजनीति में थोड़ी देर के लिए ही सही शांति और सहयोग की संभावनाएं जागी हैं। दूसरे, इससे भारत की बढ़ती वैश्विक-भूमिका पर भी रोशनी पड़ती है। यह सम्मेलन शुरू होने के पहले सर्वानुमति की उम्मीद बहुत कम थी। माना जा रहा था कि यूक्रेन-युद्ध की तल्खी से निपट पाना भारत के लिए काफी मुश्किल होगा। विशेषज्ञों, राजनयिकों और अधिकारियों ने इस बात की उम्मीद बहुत कम ही लगा रखी थी कि भारत के वार्ताकार वह सर्वानुमति हासिल कर पाएंगे, जिसे अब तक कोई हासिल नहीं कर पाया है।
भारत की भूमिका इसलिए भी महत्वपूर्ण साबित हो
रही है, क्योंकि बढ़ते ध्रुवीकरण के बीच वह पश्चिमी देशों की धुरी और रूस-चीन
गठजोड़ के बीच संपर्क-सेतु के रूप में भी उभर रहा है। ब्रिक्स और एससीओ का सदस्य
होने के कारण भूमिका रूस-चीन गठबंधन के संपर्क में भी भारत है। तीसरे ‘ग्लोबल
साउथ’ की आवाज बनकर भी भारत उभरा है।
हालांकि घोषणापत्र में किसी भी राज्य की
संप्रभुता और अखंडता पर आक्रमण की निंदा की गई है, पर किसी भी रूप में रूस का नाम
नहीं लिया गया है। भारत ने इसके साथ ही पश्चिमी देशों का ध्यान इस बात की तरफ
खींचा कि ‘ग्लोबल साउथ’ देश यूक्रेन
पर रूसी कार्रवाई को पसंद नहीं करते, पर यूक्रेन ही एक मसला नहीं है। आप कोरोना और
जलवायु-परिवर्तन के दुष्प्रभावों के पीड़ित विकासशील देशों पर भी ध्यान दीजिए।
वैश्विक-ध्रुवीकरण
इस घोषणा के अलावा इस सम्मेलन में दो और
महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, जिनका असर वैश्विक-व्यवस्था पर दिखाई पड़ेगा। इनमें एक है
55 देशों के संगठन अफ्रीकन यूनियन को जी-20 की सदस्यता और भारत-अरब-यूरोप आर्थिक
कॉरिडोर का प्रस्ताव। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर
पुतिन की अनुपस्थिति ने भी ध्यान, जिसने बढ़ते वैश्विक-ध्रुवीकरण पर रोशनी डाली।
इस परिघटना के कुछ समय पहले एससीओ और ब्रिक्स का विस्तार हुआ है। उससे भी लगता है
कि दुनिया में एक नई ताकत उभरने का प्रयास कर रही है। जिस तरह जी-20 को जी-7 या
पश्चिमी देशों का संगठन माना जा रहा है उसी तरह एससीओ और ब्रिक्स को रूसी-चीनी प्रभाव
वाले संगठनों के रूप में देखा जा रहा है।
कुल मिलाकर वैश्विक मंच पर यह भारत के आगमन की
घोषणा है। वैसे ही जैसे 2008 के ओलिंपिक खेलों के साथ चीन का वैश्विक मंच पर आगमन
हुआ था। पर्यवेक्षकों की आमतौर पर प्रतिक्रिया है कि भारत में हुआ शिखर सम्मेलन और
भारतीय अध्यक्षता कई मायनों में अभूतपूर्व रही है। ऐसा मानने के दो कारण हैं। एक,
आयोजन की भव्यता और दूसरे, ऐसे दौर में जब दुनिया में कड़वाहट बढ़ती जा रही है,
सभी पक्षों को संतुष्ट कर पाने में सफल होना। भारत ने जी-20, जी-7, ईयू, रूस और
चीन जैसे विभिन्न हितधारकों के बीच अधिकतम सहमतियाँ बनाने की कोशिश की है।
सम्मेलन ने गरीब देशों और उनकी समस्याओं की ओर
दुनिया का ध्यान खींचा। ये देश अब इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि ब्लैक सी के
रास्ते यूक्रेन के गेहूँ के निर्यात पर लगी रोक को रूस हटाए। ताकि खाद्यान्न की
सप्लाई जारी रहे। वैश्विक खाद्य-संकट को टालने के लिए यह कदम बेहद जरूरी है। रूस
को भी इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि जी-20 ने उसकी सीधे आलोचना नहीं की है। यह
एक ऐसा बिंदु है, जहाँ से समझौते और सहमति की आवाज़ निकलनी चाहिए।
यूक्रेन युद्ध
यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर पश्चिमी देशों के जी-7 समूह और ईयू की धुरी और रूस-चीन गठबंधन के बीच किसी प्रकार का
समझौता नहीं हो पा रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में, दोनों पक्षों के वीटो की वजह से इस मसले पर अब तक एक भी बयान पारित
नहीं हो पाया है। 2022 में इंडोनेशिया के बाली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में जारी किए गए घोषणापत्र में रूस की आलोचना (जी-7 ने इन पर जोर दिया था) की गई थी। पर यह सर्वानुमति ज्यादा देर तक टिकी
नहीं रही। रूस और चीन ने बाली की शब्दावली को इस साल इसे दोहराने से इनकार कर
दिया।
इसी वजह से भारत में इस साल जी-20 के संदर्भ
में हुई सभी मंत्रिस्तरीय बैठकों में संयुक्त बयान पर सहमति नहीं हो पाई। भारत की
वार्ता टीम ने यूक्रेन से जुड़े पैराग्राफ से निपटने से पहले अन्य मुद्दों पर आम
सहमति हासिल करने का एक ज्यादा सुविचारित नजरिया अपनाया। भारत को दिल्ली में सफलता
इसलिए मिली, क्योंकि जी-7 देश, रूस की आलोचना करने वाली भाषा के
अपने आग्रह से समझौता करते हुए अपेक्षाकृत ज्यादा तटस्थ पैराग्राफ रखने के लिए मान
गए। भारत उन्हें यह समझाने में कामयाब हो गया कि ‘ग्लोबल साउथ’ यानी विकासशील देश रूसी कार्रवाई के विरोध में हैं, पर
रूस की आलोचना पर ज़ोर देने के कारण सर्वानुमति बनाने में दिक्कत पेश आ रही है। इस
वजह से दुनिया में ऊर्जा का संकट, और खाद्य-असुरक्षा पैदा हो रही है। साथ ही
जलवायु-परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने की साझा-रणनीति नहीं बन पा रही है।
संधारणीय
विकास
‘ग्लोबल साउथ’ का प्रतिनिधित्व करने वाले कई
ऐसे सदस्य भी हैं, जो जी-20 के सदस्य भी हैं। वे इस झगड़े में
किसी का भी पक्ष लेने के अनिच्छुक हैं और इसके बजाय वैश्विक विकास के मुद्दों से
जुड़ी प्राथमिकताओं की ओर ध्यान देना चाहते हैं। 83 पेज के दिल्ली-घोषणापत्र में
संधारणीय और समावेशी विकास, अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय-व्यवस्था,
जलवायु-परिवर्तन, स्वास्थ्य-आपदाओं से लड़ने की वैश्विक-व्यवस्था, कर्जों के
भुगतान में आने वाली दुश्वारियों, बहुपक्षीय बैंकिंग प्रणाली में सुधार, डिजिटल
इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे सवालों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जो सामान्य-व्यक्ति के
जीवन में ज्यादा महत्व रखते हैं।
इस घोषणा ने क्रिप्टोकरेंसी के विनियमन के मसले
पर प्रगति की और दक्षिणी दुनिया के देशों के लिए जलवायु परिवर्तन संबंधी अनुकूलन
और उत्सर्जन में कमी लाने वाली परियोजनाओं के लिए आवश्यक लगभग 10 ट्रिलियन डॉलर का आँकड़ा तय किया। हालांकि, वह
जीवाश्म ईंधन को ‘चरणबद्ध तरीके से’ हटाने से जुड़ी किसी भी समय सीमा पर
सहमत होने में नाकाम रही। दुनिया
को यह याद दिलाया गया है कि संयुक्त राष्ट्र ने संधारणीय विकास के लिए 2030 तक
पूरे करने के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं, उनमें से केवल 12 प्रतिशत को ही
हासिल किया जा सका है। जलवायु-परिवर्तन के खतरों से बचाव करने के लिए हुए पेरिस
समझौते को लागू करने के लिए करीब 4 ट्रिलियन वार्षिक-व्यय की जरूरत है। विकसित देश
अभी तक 100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष देने के वायदे को पूरा नहीं कर पाए हैं।
बीच का रास्ता
इस घोषणापत्र ने वह हासिल किया जो ध्रुवीकरण के
दौर में नामुमकिन सा है। फिर भी भारत ने ‘बीच का रास्ता’ निकालने में सफलता हासिल कर ली। ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी द्वारा साल भर के दौरान जी-20 के कई नेताओं से व्यक्तिगत रूप से
संपर्क साधने की भी भूमिका रही। एक और पहल अफ्रीकन यूनियन को जी-20 में शामिल करने
की रही। इस कदम ने उस असंतुलन को दुरुस्त कर दिया है जो अब तक सिर्फ यूरोपीय संघ
को ही जी-20 में एक क्षेत्रीय समूह के रूप में दाखिल होने
की इजाजत देता था।
वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन (ग्लोबल बायोफ्यूल
एलायंस) उस दुनिया के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के बारे में और ज्यादा अनुसंधान
और वितरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम रहा जो अभी भी जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है।
अंत में, अमेरिकी निवेश के वादे के साथ एक भारत-मध्य
पूर्व-यूरोप कॉरिडोर के निर्माण से जुड़ी चमकदार संभावनाएं हैं। हालांकि, इसके वित्तपोषण और कार्यान्वयन का विवरण तैयार किया जाना बाकी है।
अनूठी पहल
जी-20 को नीरस और एक
ही जगह पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के ढर्रे से बाहर ले जाने और 60 से ज्यादा शहरों में 200 बैठकें आयोजित
करने, 125 देशों के एक लाख से अधिक अतिथियों की मेजबानी
करने के भारत के प्रयास को एक अनूठी पहल के रूप में देखा गया है। अब यह देखना बाकी
है कि भविष्य के जी-20 शिखर सम्मेलनों में यह चलन जारी रहेगा या
नहीं। जी-20 जैसे आयोजन को भारत ‘जनता के बीच’ ले गया, जिसे अब तक एक नीरस और उबाऊ कार्यक्रम के रूप में देखा जाता
रहा है। ऐसे कार्यक्रमों में विश्व के नेता तो एक मंच पर आते हैं, पर जनता की
भूमिका कुछ नहीं होती।
ऐसे मंचों पर हुई बातों की समीक्षा नहीं होती। इस
लिहाज से, जी-20 की अध्यक्षता
छोड़ने से पहले इस साल नवंबर में एक वर्चुअल समीक्षा सम्मेलन आयोजित करने का भारत
का फैसला भी महत्वपूर्ण है। इन सब बातों के कारण कहा जा सकता है कि भारत ने इस
सम्मेलन के मार्फत विश्व-व्यवस्था में कुछ वैचारिक तत्व जोड़े हैं, जो उसे
महत्वपूर्ण बनाते हैं।
भारत का रसूख
सम्मेलन के आखिरी दिन कुछ देशों के बयानों और
वैश्विक-मीडिया की कवरेज से भारत के बढ़ते महत्व को भी बेहतर तरीके से समझा जा
सकता है। भारत के नज़रिए से सबसे रोचक बयान तुर्किये के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान
का रहा, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का
समर्थन किया। एर्दोगान को भारत के आलोचक नेताओं में शामिल किया जाता है। उनका
पाकिस्तान की ओर झुकाव ज़ाहिर है, पर इस मामले में उन्होंने बड़े साफ शब्दों में
भारत का समर्थन किया है। उन्होंने यह भी कहा कि इतनी बड़ी दुनिया में पाँच देश ही
क्यों? दुनिया इन पांच देशों से कहीं ज्यादा बड़ी है।
उन्होंने आगे कहा कि अगर भारत जैसे देश को संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाया जाता है तो हमें गर्व महसूस होगा। साथ ही यह भी कि गैर-स्थायी
सदस्यों को बारी-बारी से सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने का मौका दिया जाना चाहिए। यानी
कि सभी 195 देशों को रोटेशनल आधार पर मौका मिलना चाहिए। पीएम मोदी ने 10 सितंबर को राष्ट्रपति एर्दोगान के साथ द्विपक्षीय बैठक भी की। इस
बैठक में व्यापार और निवेश, रक्षा और सुरक्षा, नागर विमानन और शिपिंग जैसे क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग की
संभावनाओं पर चर्चा की गई। एर्दोगान ने फरवरी 2023
में तुर्किये में आए भूकंप के बाद ऑपरेशन दोस्त के तहत त्वरित राहत के लिए भारत को
धन्यवाद भी दिया और चंद्रयान मिशन की सफलता पर बधाई और आदित्य मिशन के लिए
शुभकामनाएं दीं।
द्विपक्षीय बैठकें
सम्मेलन के हाशिए पर पीएम नरेंद्र मोदी ने कई
देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ द्विपक्षीय बैठकें कीं। इनमें जापान, ब्रिटेन,
फ्रांस, इटली और जर्मनी, तुर्की, यूएई, दक्षिण कोरिया, ईयू/ईसी, ब्राज़ील, नाइजीरिया और बांग्लादेश के नेताओं से मुलाकातें मायने रखती हैं। इसी कड़ी में रविवार को उन्होंने
कनाडा के पीएम जस्टिन ट्रूडो से मुलाकात की। जस्टिन ट्रूडो पर भी भारतीय मीडिया की
नज़रें थीं। सूत्रों के अनुसार, पीएम मोदी ने इस दौरान कनाडा के पीएम
जस्टिन ट्रूडो के सामने खालिस्तान का मुद्दा भी उठाया। हालांकि कनाडा और भारत के
रिश्ते परंपरागत रूप से अच्छे हैं और कोई वजह नहीं है कि वे खराब हों, पर
खालिस्तानी मुद्दा ‘गले की फाँस’ की तरह अटका है। सिख अलगाववादियों ने
खालिस्तान के नाम से एक अलग देश बनाने की माँग को लेकर अस्सी के दशक में पंजाब में
खून की नदियाँ बहा दी थीं। 1985 में मांट्रियल से दिल्ली के लिए रवाना
हुए एयर इंडिया के जम्बो जेट ‘कनिष्क’ को इन आतंकवादियों ने ध्वस्त कर दिया था,
जिसमें 329 लोगों की मौत हुई थी।
कनाडा में करीब पाँच लाख सिख रहते हैं, जो कुल आबादी का करीब 1।4 फीसदी है। ट्रूडो सिखों के इतने प्रिय हैं कि उन्हें मजाक में
जस्टिन सिंह भी कहा जाता है। अपनी लिबरल पार्टी के खालिस्तानियों के साथ रिश्तों
को लेकर ट्रूडो गोल-मोल बातें करते हैं। बहरहाल दिल्ली-सम्मेलन के दौरान वे कुछ
फीके रहे।
आकर्षक-भारत
दिल्ली-सम्मेलन को लेकर वैश्विक-मीडिया की कुछ
रोचक टिप्पणियाँ भी सामने आई हैं। सम्मेलन की तारीफ चीन के सरकारी अख़बार ‘ग्लोबल
टाइम्स’ से लेकर अमेरिकी अखबार ‘वॉशिंगटन
पोस्ट’ तक ने की है। ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने
लिखा है-जी-20 सम्मेलन ने बढ़ते मतभेदों के बीच बुनियादी एकजुटता प्रदर्शित की है।
सम्मेलन में अंततः साझा बयान स्वीकार कर
लिया गया जिसमें बहुत बुनियादी एकजुटता और यूक्रेन युद्ध को लेकर तटस्थ नज़रिया है।
किसी भी देश की प्रत्यक्ष निंदा इसमें नहीं की गई है, जो 2022 से भिन्न स्थिति है।
अखबार ने फुडान यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट
ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर ली मिनवांग को इस प्रकार उधृत किया है-भारत ने
इस सम्मेलन का मेज़बान होने के नाते बहुत कुछ हासिल किया है। उसने खुद को ‘बहुत आकर्षक’ बना लिया है, क्योंकि
उसे पश्चिम और रूस दोनों पसंद कर रहे हैं। उसने यह भी लिखा
है कि जी-20 शिखर सम्मेलन की सफलता भारत में मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी के
शासन को मज़बूत करेगी।
रूस की समाचार एजेंसी तास ने जर्मन अख़बार ‘डाई
ज़ीट’ का हवाला देते हुए लिखा है कि जी-20 के साझा
बयान में रूस की निंदा नहीं होने से साबित होता है कि पश्चिमी देश रूस को अलग-थलग
करने में नाकाम रहे। जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा
कि दिल्ली-घोषणा सफल रही।
बाली को बदला
अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने जी-20 घोषणापत्र को बड़े जतन और मेहनती-विमर्श का नतीजा बताया
है। उसने इस बात को रेखांकित किया है कि इसमें रूस की निंदा नहीं की गई है। इसबार
का दस्तावेज बाली के दस्तावेज के मुकाबले काफी बदला हुआ है, जिसमें यूक्रेन पर
रूसी हमले की निंदा की गई थी और रूस से सेना वापस बुलाने को कहा गया था।
‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने
लिखा है कि जी-20 का घोषणापत्र यूक्रेन को लेकर बढ़ते मतभेद और ग्लोबल साउथ (भारत
जैसे विकासशील देशों) के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। मेज़बान भारत अलग-अलग समूहों
से अंतिम बयान पर दस्तख़त कराने में कामयाब रहा, लेकिन
यूक्रेन में रूस के युद्ध के विवादित मुद्दे पर भाषा को नरम करके ऐसा किया गया।
भारत-अरब कॉरिडोर
शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने घोषणा की कि शीघ्र ही भारत से पश्चिम एशिया के रास्ते से होते हुए यूरोप
तक एक कनेक्टिविटी कॉरिडोर के निर्माण का कार्य शुरू होगा। इस परियोजना को ‘इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर’ का नाम दिया गया है। इसमें
शिपिंग कॉरिडोर से लेकर रेल लाइनों तक का निर्माण किया जाएगा। सैकड़ों साल पुराना
भारत-अरब कारोबारी माहौल फिर से जीवित हो रहा है। कारोबार और भू-राजनीति दोनों
दृष्टिकोणों से यह परियोजना गेम चेंजर साबित होगी। अभी इस परियोजना के एमओयू पर दस्तखत हुए हैं, इसलिए इसके
बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। मसलन यह कब शुरू होगा, क्या खर्च आएगा, इसकी
फंडिंग कैसे होगी वगैरह।
इतनी जानकारी जरूर है
कि परियोजना में दो कॉरिडोर बनेंगे। एक पूर्वी कॉरिडोर, जो भारत से जोड़ेगा और
दूसरा उत्तरी (या पश्चिमी) कॉरिडोर, जो यूरोप तक जाएगा। इसके पहले ईरान और मध्य
एशिया के देशों के रास्ते यूरोप तक जाने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर पर भी काम चल
रहा है। उसमें भी भारत की भूमिका है, पर ईरान और रूस के कारण पश्चिमी देशों की
भूमिका उस कार्यक्रम में नहीं है। पश्चिम एशिया के इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन की
दिलचस्पी भी है। हाल में चीन ने ईरान, सऊदी अरब और यूएई के साथ संबंधों को प्रगाढ़
किया है। एक तरह से यह चीन के ‘बीआरआई’ और पश्चिम के ‘बी3डब्लू (बिल्ड
बैक बैटर वर्ल्ड)’ के बीच प्रतियोगिता होगी।
पश्चिम एशिया के देश
इस समय अपनी अर्थव्यवस्था के रूपांतरण पर विचार कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि
खनिज तेल पर आधारित अर्थव्यवस्था ज्यादा समय तक चलेगी नहीं। नई अर्थव्यवस्था के
लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होगी। जून, 2022 में जी-7 देशों ने जर्मनी में हुए
शिखर सम्मेलन में चीन के बीआरआई के जवाब में एक वृहद कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा
की थी। इसके बाद इस साल हिरोशिमा में इस विचार को और पक्का किया गया है। इसके तहत
निम्न और मध्य आय वर्ग के देशों की सहायता के लिए 600 अरब डॉलर से इंफ्रास्ट्रक्चर
का विकास किया जाएगा।
दिल्ली में की गई
घोषणा उसी विचार के तहत है। यह कार्यक्रम ऐसे समय में घोषित किया गया है, जब
पश्चिमी देश खुद मंदी के शिकार हो रहे हैं। इसलिए परीक्षा इस कार्यक्रम की भी है।
राजनीतिक-निहितार्थ
सऊदी अरब ने अपने
रूपांतरण के लिए विज़न-2030 तैयार किया है, जिसका अर्थ है 2030 तक लागू होने वाला कार्यक्रम।
इस रूपांतरण के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलू भी हैं। बदलाव इन सभी
क्षेत्रों में आएगा। सऊदी अरब और खाड़ी के देशों के पास रेलवे लाइनें नहीं हैं। यह
समझौता उसका समाधान करेगा। यह रूट विकसित होने से भारत के लिए पश्चिम एशिया से तेल
लाना और अपना माल भेज पाना आसान हो जाएगा।
इससे पश्चिम एशिया में
भी हालात बेहतर होंगे। स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के नए अवसर पैदा होंगे। यहाँ
के देश एक दूसरे के क़रीब आएंगे। क्योंकि रेल नेटवर्क देशों को व्यापारिक रूप से
क़रीब लाते हैं। रेलमार्ग से जुड़ने पर सामाजिक-संपर्क भी बेहतर होता है। अमेरिका
इस कोशिश में है कि फलस्तीन की समस्या का समाधान भी इसके साथ हो जाए। यानी कि
फलस्तीनियों को अपना स्वतंत्र देश मिले और अरब देश इसरायल को मान्यता दे दें। यह
आसान काम नहीं है, पर यदि राजनीतिक-समझौता नहीं हुआ, तो कॉरिडोर की परियोजना को
सफल बनाने में भी दिक्कतें पेश आएंगी।
इस परियोजना में भारत, अमेरिका,
सऊदी अरब, यूएई, यूरोपियन संघ, फ्रांस, इटली और जर्मनी शामिल होंगे। समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार इस डील के
तहत समुद्र के अंदर एक केबल भी डाली जाएगी जो इन क्षेत्रों को जोड़ते हुए दूरसंचार
एवं डेटा ट्रांसफर में तेज़ी लाएगी। इस समझौते में ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन एवं
ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था भी की जाएगी।
चीनी गतिशीलता
स्पेन के यूनिवर्सियाड डे नवार्रा में
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्राध्यापक प्रोफेसर माइकेल टैंकम ने 2021 में इस संभावना को जताया था कि मुंबई से
ग्रीक बंदरगाह पिरेयस तक एक इंडो-अरब-भूमध्य सागरीय मल्टी-मोडल कॉरिडोर बनाया जा
सकता है। इसमें इसरायली बंदरगाह हाइफ़ा और दुबई की बड़ी भूमिका होगी। यह रास्ता
सऊदी अरब की मुख्य-भूमि से होकर गुजरेगा। उधर चीन पहले से ही पिरेयस के बंदरगाह को
नियंत्रित करता है, जो ग्रीस का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह
है। इसके अलावा तुर्की के तीसरे बड़े पोर्ट कुंपोर्ट पर भी चीन का नियंत्रण है।
कई मायनों में चीन बड़े साहूकार के
रूप में उभर रहा है। तमाम देशों को पूँजी की जरूरत भी है, क्योंकि उनके यहाँ
इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत कमज़ोर है। सड़कों, पुलों, रेलमार्गों, बंदरगाहों वगैरह की
उन्हें जरूरत है। चीन को इसका राजनीतिक-लाभ भी मिला है, जिसके सहारे उसकी
सामरिक-शक्ति का विस्तार भी हुआ है। दूसरी तरफ चीन के इस कार्यक्रम के दोष भी
उजागर हुए हैं। कई देशों के सामने कर्ज के भुगतान की समस्या खड़ी हुई है। अब चीन
भी अपने इस कार्यक्रम को नियंत्रित कर रहा है, क्योंकि उसे अपनी पूँजी पर बेहतर
मुनाफे की दरकार है।
चीन के ज्यादातर सौदे
अपारदर्शी हैं। कर्जों को सुचारु बनाए रखने की उसकी शर्तें भी खतरनाक हैं। दूसरी
तरफ वह खुद भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं से कर्ज लेता है। इसके
अलावा चीन की अर्थव्यवस्था अचानक मंदी की शिकार हो रही है। उसने अपने यहाँ उत्पादन
का बड़ा आधार तैयार कर लिया है, पर माँग अचानक कम हो रही है। उसके प्रतिस्पर्धी
देशों ने एक नई सप्लाई-चेन पर काम शुरू कर दिया है। पश्चिमी देशों की कंपनियाँ
पूँजी निवेश के लिए चीन जाने से हिचकने लगी हैं।
भारत-वार्ता में प्रकाशित
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