आज़ादी के सपने-02
भारत सरकार ने गत 20 जुलाई को चावल के निर्यात को लेकर एक बड़ा फैसला किया. गैर-बासमती सफेद चावल के निर्यात पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गई. भारत के इस फ़ैसले के पीछे कारण है आने वाले त्योहार के मौसम में बढ़ने वाली घरेलू माँग और क़ीमतों पर नियंत्रण रखना.
भारत के इस फैसले से दुनिया भर के खाद्य बाज़ार
में चावल के दाम बढ़ने की आशंका है. भारत आज दुनिया में चावल का सबसे बड़ा
निर्यातक है. चावल के वैश्विक बाजार में भारत की हिस्सेदारी 42 प्रतिशत है. विश्व
व्यापार में साढ़े चार करोड़ टन चावल की बिक्री होती है, जिसमें
2.2 करोड़ टन भारतीय चावल होता है.
आत्मनिर्भर भारत
निर्यात-प्रतिबंधों का दुनिया की अर्थव्यवस्था
पर क्या असर पड़ेगा, वह विचार का अलग विषय है. हमें केवल इस
बात को रेखांकित करना है कि खाद्यान्न के मामले में अब हम आत्मनिर्भर हैं. भारत
140 से अधिक देशों को चावल निर्यात करता है.
इस परिस्थिति की तुलना करें साठ के दशक से जब भारत
को विदेशी खाद्य सहायता पर निर्भर रहना पड़ा था. पीएल-480 समझौते के तहत, भारत ने अमेरिका से गेहूं का आयात किया. उसके तहत ऐसे गेहूँ को
स्वीकार करना पड़ा, जो जानवरों को खिलाने लायक था.
भारत के प्राण उसके गाँवों में बसते हैं. देश का
विकास तभी होगा, जब गाँवों का विकास होगा. गाँवों के साथ भारतीय खेती का वास्ता
है. कृषि और ग्रामीण विकास के भारतीय कार्यक्रमों की लंबी कहानी है. इसमें पंचायती-राज और 73वें संविधान संशोधन की भी भूमिका है.
पंचायती राज
जनवरी 2019 तक की जानकारी के अनुसार देश में 630 जिला पंचायतें, 6614 ब्लॉक पंचायतें और 2,53,163 ग्राम पंचायतें हैं। इनमें 30 लाख से अधिक पंचायत प्रतिनिधि हैं. इनके पास कुछ वित्तीय अधिकार भी हैं. 2021-26 की अवधि के लिए बने 15वें वित्त आयोग ने ग्रामीण निकायों के लिए 2,36,805 करोड़ की धनराशि के आबंटन की सिफारिश की है.
सबसे निचले स्तर पर पंचायत-व्यवस्था में लगभग
प्रत्यक्ष-लोकतंत्र है. यानी कि अपनी समस्याओं के समाधान में जनता की सीधी
भागीदारी. यह व्यवस्था जितनी पुष्ट होती जाएगी, उतना
ही ताकतवर हमारा लोकतंत्र बनेगा.
2020 से 2022 के बीच कोविड-संकट के दौरान पीएम गरीब
कल्याण अन्न योजना के तहत 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त अनाज देने वाली भारतीय योजना
का शायद दुनिया में कहीं जवाब नहीं मिलेगा. इसके अलावा पीएम आवास योजना, ग्राम
सड़क योजना, आजीविका मिशन, मध्यांतर आहार, स्वच्छ भारत अभियान, मनरेगा, नल से जल,
उज्ज्वला, पीएम किसान सम्मान निधि वगैरह-वगैरह की एक लंबी सूची है.
गाँव की भूमिका
फरवरी 2018 में प्रकाशित सीएसडीएस के भारतीय
किसानों की दशा पर एक सर्वे में 64 फीसदी किसानों ने कहा कि हम खेती का काम छोड़कर
शहरों में जाना चाहेंगे, बशर्ते रोजगार की गारंटी हो. इसीलिए
शहरीकरण और गाँवों के विकास की जरूरत है. पर भारत के गाँव आज वैसे नहीं हैं, जैसे
1947 में थे.
गाँव का मतलब है असुविधाएं. शिक्षा, स्वास्थ्य,
परिवहन, नागरिक सुविधाओं से वंचित क्षेत्र ही गाँव है. सुस्त औद्योगीकरण भी इनकी बदहाली
की एक वजह है. लगभग 30 फीसदी आबादी शहरों में रह रही है, जबकि
चीन में 53 फीसदी शहरों में आ गई है. विकसित देशों में 80 से 90 फीसदी तक आबादी
शहरों में है.
दूसरी तरफ छोटी जोत, तकनीक
का विस्तार न हो पाने, तकरीबन 60 फीसदी खेती मौसम के भरोसे
होने, फसल बीमा जैसी सुविधाओं की कमी और ग्रामीण
क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाएं नहीं होने के कारण भी समस्याएं पैदा हुईं हैं.
बदलती तस्वीर
कोविड-19 प्रकोप का हमारी अर्थव्यवस्था पर
विपरीत प्रभाव पड़ा था. इसके कारण 2020-21 में जीडीपी में 7.3 प्रतिशत का संकुचन
हुआ. आजादी के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था को पाँच बार संकुचन का सामना करना पड़ा
है. इसकी वजह आमतौर पर अकाल, बाढ़ या खेती के मोर्चे पर मिली विफलताएं
होती थीं, पर इसबार की विफलता गाँवों के कारण नहीं थी.
अर्थव्यवस्था के इस संकुचन के विपरीत उस साल
कृषि उपज में रिकॉर्ड वृद्धि हुई थी. पिछले छह वर्षों में हमारी कृषि की संवृद्धि
औसतन 4.6 प्रतिशत रही है. सरकार ने 2016-17 के केंद्रीय बजट में 2022 तक किसानों
की आय को दोगुना करने का नीतिगत लक्ष्य निर्धारित किया था. उस लक्ष्य के अनुरूप
परिणाम नहीं मिले, पर केंद्रीय बजट के कृषि-परिव्यय पर
नज़र डालें, तो बदलाव दिखाई पड़ता है.
गाँव बदलाव की कहानी लिखने के लिए तैयार हैं. वित्तमंत्री
निर्मला सीतारमण ने पिछले साल के आम बजट में डिजिटल कनेक्टिविटी से जुड़ी कुछ बड़ी
घोषणाएं की थीं. ग्रामीण भारत को डिजिटली सशक्त बनाने के लिए 2025 तक हर गाँव तक
ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाने का काम पूरा करने का लक्ष्य है. भारतनेट ब्रॉडबैंड 2025
तक तैयार हो जाएगा.
करीब सवा छह लाख गाँवों में पूरी तरह लागू हो
जाने के बाद यह दुनिया का सबसे बड़ा ग्रामीण ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी नेटवर्क होगा.
गाँवों की हर पंचायत को ऑप्टिकल फाइबर से जोड़ा जा रहा है, जिससे
बुनियादी सुविधाएं जैसे जाति प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र,
राशन कार्ड समेत कई सुविधाओं को गाँव में ही प्राप्त हो सकेंगी.
खाद्य-संकट
स्वतंत्रता के बाद के पहले बीस साल यानी साठ
के उत्तरार्ध तक भारत खाद्य-संकट से जूझता रहा. इस संकट की पृष्ठभूमि 1943 में लिखी गई थी, जब ब्रिटिश
प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अकाल के दौरान बंगाल जाने वाले चावल को रोककर उसे
अंग्रेजी सेना के लिए भेजने का हुक्म दिया. यों भी अंग्रेजी राज में भारतीय गाँवों
की दशा दयनीय थी.
पचास और साठ के दशक में हम अमेरिका से मिले
पीएल-480 के गेहूँ की रोटियाँ खाने को मजबूर थे, जो जानवरों के खाने लायक भी नहीं
था. बहरहाल दिसंबर 1971 में भारत ने अमेरिका से गेहूँ का आयात बंद किया. अमेरिका
से हमारे रिश्ते खराब हो रहे थे, और भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया
था.
तब और आज में जमीन-आसमान का फर्क है. पिछले 76
वर्षों में हमारे यहाँ गेहूँ का उत्पादन 15 गुना, चावल
का पाँच गुना, मक्का का 14 गुना और दूध का आठ गुना हो
गया है. 1951 में देश में करीब पाँच करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था,
जो इस साल 33 करोड़ टन से ज्यादा होने की आशा है.
हरित क्रांति
‘हरित क्रांति’ शब्द का इस्तेमाल उल्लेख कृषि
विशेषज्ञों ने पचास और साठ के दशकों में विकसित नई कृषि प्रौद्योगिकी के लिए किया था.
इनमें मैक्सिको स्थित अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूँ सुधार केंद्र और फिलीपींस में
अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान के कृषि विशेषज्ञ शामिल थे.
डॉ नॉर्मन बोरलॉग और रॉकफैलर फाउंडेशन के कृषि विशेषज्ञों
की टीम ने पचास के दशक में मैक्सिको में गेहूँ पर गहन अनुसंधान किया और ज्यादा पैदावार
वाली बौने गेहूँ की किस्मों को तैयार करने में सफलता हासिल की. इन दो केंद्रों में
विकसित तकनीक का फायदा भारत और दूसरे विकासशील देशों को मिला.
पहली पंचवर्षीय योजना में भारत का फोकस खेती पर
था, पर दूसरी में फोकस बदल गया. उस दौरान भारत ने गंभीर खाद्य-संकट का सामना किया.
1957-58 में जब खाद्यान्न का उत्पादन पाँच साल के न्यूनतम स्तर 6.2 करोड़ टन पर
पहुँच गया, तब भारत सरकार ने 1958 में अमेरिका के डॉ एसएफ जॉनसन की अध्यक्षता में
विशेषज्ञों की एक टीम को आमंत्रित किया.
इस टीम ने 1959 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि
भारत को उन क्षेत्रों पर फोकस करना चाहिए जहाँ कृषि उत्पादकता बढ़ाने की संभावना
अधिक है. इसके बाद साठ के दशक में दो मुख्य कार्यक्रम सघन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम
(1961) और सघन कृषि जिला कार्यक्रम (1964) शुरू किए गए.
डॉ स्वामीनाथन
नॉर्मन बोरलॉग के प्रयोग को भारत में आगे
बढ़ाने का काम डॉ॰ स्वामीनाथन ने किया. उन्होंने गेहूं की ज़्यादा उपज वाली किस्म
को अपनाने के लिए लोगों को जागरूक करना शुरू किया. उन्हें बढ़ावा दिया लाल बहादुर
शास्त्री की सरकार में कृषिमंत्री चिदंबरम सुब्रह्मण्यम ने.
ज़्यादा उपज देने वाले बीजों के इस्तेमाल का
ऐसा असर हुआ कि एक साल बाद ही, अनाज की उपज बढ़कर 1.7 करोड़ टन हो गई.
यह पिछले साल की तुलना में 50 लाख टन ज़्यादा थी. कृषि भूमि के बढ़ने के साथ,
1971 में अनाज की कुल पैदावार 10.4 करोड़ टन तक पहुंच गई.
सूखे से प्रभावित रहे दो सालों (1965-1966) की
तुलना में, पैदावार में 40% की बढ़त. इसके साथ पौध संरक्षण
पर भी विशेष ध्यान दिया गया. खरपतवार व कीटों का नाश करने के लिए दवा का छिड़काव होने
लगा. बहुफ़सली उत्पादन यानी एक ही भूमि पर साल में एक से ज्यादा फसलें ली गईं.
उसी दौरान डेयरी-सेक्टर पर भी ध्यान दिया गया.
गुजरात के आणंद में वर्गीज़ कुरियन के नेतृत्व में दुग्ध-उत्पादन का सहकारी
कार्यक्रम शुरू हुआ. ऑपरेशन फ्लड अब पूरे देश में फैल चुका है. इस आंदोलन की ताकत
है कि बड़ी से बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियाँ भारत में अमूल के सामने जम नहीं पाईं.
आत्मनिर्भरता
वर्तमान समय में अनाज के चार सबसे बड़े उत्पादक
देश हैं चीन, भारत, अमेरिका और
ब्राजील. मोटे तौर पर चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर है. बावजूद इसके हम दलहन और
तिलहन का आयात करते हैं. इसे ठीक करने के लिए खेती में हस्तक्षेप की जरूरत है.
2022-23 के अस्थायी डेटा के अनुसार भारत में
धान का उत्पादन 13.55 करोड़ टन, गेहूँ का 11.27 करोड़ टन, मक्का का 3.59 करोड़ टन, दालों का 2.75 करोड़
टन और दूसरे अन्य अनाजों को मिलाकर खाद्यान्न का सकल उत्पादन 33.05 करोड़ टन हुआ. 1950-51
में कुल 5.1 करोड़ टन अन्न उत्पादन हुआ था. पिछली फसल में चीन का गेहूँ उत्पादन
करीब सवा 13 करोड़ टन था.
किसान-आंदोलन
आर्थिक विकास और रूपांतरण को लेकर अनेक
अवधारणाएं हैं. इन बातों के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. यह बात लगभग डेढ़ साल तक चले
किसान-आंदोलन से रेखांकित भी हुई. किसान-आंदोलन की शुरुआत तब शुरू हो गई थी,
जब केंद्र सरकार कोरोना काल के बीच जून, 2020
में तीन कृषि अध्यादेश लाई. इसका विरोध विपक्षी दलों के साथ-साथ किसान संगठनों ने किया.
धीरे-धीरे यह बड़ा आंदोलन बन गया.
सितंबर में संसद ने आवश्यक वस्तु (संशोधन)
कानून-2020, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और
सुविधा) कानून-2020, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत
आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून- 2020
पास कर दिए, जिनपर 27 सितंबर को तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हस्ताक्षर भी
कर दिए.
लंबे चले किसान-आंदोलन के दबाव में अंततः सरकार
झुकी और इन्हें वापस ले लिया गया. ये कानून वापस जरूर हो गए, पर भारतीय खेती से
जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न छोड़ गए हैं. अनाज की सरकारी खरीदारी, मंडी, एमएसपी और
वाजिब कीमत जैसे सवाल देश के सामने हैं. इससे जुड़े सामाजिक प्रश्न भी हैं.
ग्रामीण-विसंगतियाँ
ग्रामीण समाज में असंतुलन भी है. मोटे तौर पर
60 फीसदी लोग ग्रामीण मजदूर हैं. 28 फीसदी छोटे किसान हैं, जिनके
पास 0.01 से 0.40 हेक्टेयर तक जोतने लायक जमीन है. 12 फीसदी के पास मझोली और बड़ी
जोत लायक ज़मीन है. ज्यादातर खेत मजदूर या तो दिहाड़ी पर काम करते हैं या बँटाई पर
खेती.
2011 की जनगणना के अनुसार, देश में कुल 26.3 करोड़ परिवार खेती-किसानी के कार्य में लगे हुए हैं. इसमें से महज 11.9 करोड़ किसानों के पास खुद की
जमीन है, जबकि 14.43 करोड़ किसान भूमिहीन हैं. भूमिहीन
किसानों की एक बड़ी संख्या 'बँटाई' पर
खेती करती है.
नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा भी चाहिए.
सरकारी अन्न खरीद सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चलाए रखने के लिए होती है. उसके लिए अनाज
खरीदने और किसानों को फसल का उचित मूल्य दिलाने की दोहरी जिम्मेदारी सरकारों की है.
उत्पादकता के सवाल
अन्न उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नंबर
का देश है, पर 2018 में भारत में अन्न से होने वाली प्रति
व्यक्ति आय 305 अंतरराष्ट्रीय डॉलर थी, जो चीन की प्रति
व्यक्ति आय 630 डॉलर की आधी से भी कम थी.
दुनिया में दूध का सबसे बड़ा और फलों तथा
सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भारत है. दालों, गन्ने
और कपास का अग्रणी उत्पादक है. बावजूद इस श्रेष्ठता के भारत की अन्न उत्पादकता चीन,
ब्राजील और अमेरिका की तुलना में 30 से 60 फीसदी कम है.
दुनिया में उपलब्ध कुल पानी का 4 फीसदी भारत
में उपलब्ध है. इसमें से 90 फीसदी खेती में लगता है. भारत की खेती चीन और ब्राजील
की खेती में लगने वाले पानी की तुलना में दुगने पानी को खर्च करती है. कहने का
मतलब यह है कि भारतीय खेती को विश्वस्तरीय बनाने के लिए तकनीक और पूँजी दोनों की
जरूरत है.
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नागरिक हैं ‘भारत भाग्य
विधाता’
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