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Thursday, December 8, 2022

इस तरह उलझता गया कश्मीर का मसला

 देस-परदेस

नेहरू, माउंटबेटन के चीफ ऑफ स्टाफ हेस्टिंग इज़्मे, माउंटबेटन और जिन्ना

कश्मीर की पहेली-2

तीन किस्तों के आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ

कैसे और कब होगी पाकिस्तानी कब्जे से ज़मीन की वापसी?

अविभाजित भारत में 562 देशी रजवाड़े थे. कश्मीर भी अंग्रेजी राज के अधीन था, पर उसकी स्थिति एक प्रत्यक्ष उपनिवेश जैसी थी और 15 अगस्त 1947 को वह भी स्वतंत्र हो गया. देशी रजवाड़ों के सामने विकल्प था कि वे भारत को चुनें या पाकिस्तान को.

देश को जिस भारत अधिनियम के तहत स्वतंत्रता मिली थी, उसकी मंशा थी कि कोई भी रियासत स्वतंत्र देश के रूप में न रहे. पर कश्मीर राज के मन में असमंजस था. इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत 15 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर पर भी अंग्रेज सरकार का आधिपत्य (सुज़रेंटी) समाप्त हो गया.

पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा को कई तरह से मनाने का प्रयास किया कि वे पकिस्तान में विलय को स्वीकार कर लें. स्वतंत्रता के ठीक पहले जुलाई 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें हर तरह की सुविधा दी जाएगी.

स्टैंडस्टिल समझौता

महाराजा ने भारत और पाकिस्तान के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौते’ की पेशकश की. यानी यथास्थिति बनी रहे. भारत ने इस पेशकश पर कोई फैसला नहीं किया, पर पाकिस्तान ने महाराजा की सरकार के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ कर लिया. इसके बावजूद उसने समझौते का अनुपालन किया नहीं, बल्कि आगे जाकर कश्मीर की नाकेबंदी कर दी और वहाँ पाकिस्तान की ओर से जाने वाली रसद की आपूर्ति रुक गई.

अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान सेना की छत्रछाया में कबायली हमलों के बाद 26 अक्तूबर को महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर दस्तखत कर दिए. एक दिन बाद दिन भारत के गवर्नर जनरल ने उसे मंजूर भी कर लिया. भारतीय सेना कश्मीर भेजी गई और करीब एक साल तक कश्मीर की लड़ाई चली. भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद नवम्बर में पाकिस्तानी सेना भी आधिकारिक रूप से बाकायदा इस लड़ाई में शामिल हो गई.

इस सिलसिले में कुछ और बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. 1.पुंछ में मुस्लिम आबादी ने बगावत की. 2.गिलगित-बल्तिस्तान में महाराजा की सेना ने बगावत की. सेना में ज्यादातर सैनिक मुसलमान थे और कमांडर अंग्रेज. 3.जम्मू में सांप्रदायिक हिंसा हुई और 4.कश्मीर के अलावा हैदराबाद और जूनागढ़ पर पाकिस्तान की नजरें थी.

माउंटबेटन की पेशकश

कश्मीर की लड़ाई चल ही रही थी कि लॉर्ड माउंटबेटन 1 नवम्बर 1947 को लाहौर गए, जहाँ उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात की. उन्होंने एक प्रस्ताव उनके सामने रखा कि उन सभी रियासतों में जिनके शासनाध्यक्षों ने दोनों में से किसी भी देश में विलय में दिलचस्पी नहीं ली है, स्वतंत्र जनमत-संग्रह कराया जाए और वहाँ की जनता की राय से फैसला कर लिया जाए.

इसका मतलब था कि हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर तीनों इलाकों में जनमत-संग्रह हो. जिन्ना ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया. वस्तुतः वे इन तीनों राज्यों को पाकिस्तान में शामिल कराना चाहते थे.

गिलगित-बल्तिस्तान

गिलगित-बल्तिस्तान को अंग्रेजों ने कश्मीर के महाराजा से 1935 में 60 साल के लीज पर ले रखा था. अंग्रेजों को रूस को लेकर चिंता रहती थी. यह इलाका ऊंचाई पर स्थित है, ऐसे में यहां से निगरानी रखना आसान था. यहां गिलगित स्काउट्स नाम की सेना की अंग्रेज टुकड़ी तैनात थी.

अंग्रेज़ जब भारत से जाने को हुए, तो 1 अगस्त 1947 को लीज़ खत्म कर के यह इलाका महाराज को लौटा दिया गया. महाराज ने ब्रिगेडियर घंसार सिंह को वहां का गवर्नर बनाया. महाराज को गिलगित स्काउट्स के जवान भी मिले, जिनके अफसर अंग्रेज़ होते थे. मेजर डब्ल्यूए ब्राउन और कैप्टन एएस मैटीसन महाराज के हिस्से में आई फौज के अफसर थे.

मेजर ब्राउन ने महाराज से गद्दारी की. उसने ब्रिगेडियर घंसार सिंह को जेल में डालकर पेशावर में अपने अंग्रेज़ सीनियर लेफ्टिनेंट कर्नल रोजर बेकन को खबर की कि गिलगित पाकिस्तान का हिस्सा बनने जा रहा है. 2 नवंबर 1947 को ब्राउन ने पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया.

चीनी दिलचस्पी

1947-48 में जिस वक्त यह विवाद चल रहा था, कम्युनिस्ट चीन का जन्म नहीं हुआ था. ब्रिटेन और अमेरिका की दिलचस्पी इस इलाके पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने में थी, क्योंकि उन्हें खतरा सोवियत संघ से लगता था. पर आज गिलगित-बल्तिस्तान में चीन की दिलचस्पी है.

अंग्रेज़ अफसर की गद्दारी से गिलगित-बल्तिस्तान पर कब्जा करने का मौका पाकिस्तान को मिल तो गया, पर सांविधानिक दृष्टि से वह पाकिस्तान का हिस्सा नहीं है. पाकिस्तान के साथ चीन की साठगाँठ है. दोनों देशों का आर्थिक सहयोग कॉरिडोर इस इलाके से होकर गुजरता है.

संरा प्रस्ताव के आधार पर पाकिस्तान जिस जनमत संग्रह की माँग कर रहा है, वह 1947 में उस विचार से भागता था. जिन्ना का कहना था, जनमत-संग्रह की कोई जरूरत नहीं है. आबादी के हिसाब से रियासतों का विलय भारत या पाकिस्तान में कर दिया जाए. उन्हें डर था कि भारतीय सेना और शेख अब्दुल्ला के रहते कश्मीरी पाकिस्तान के पक्ष में वोट नहीं देंगे. जब माउंटबेटन ने कहा कि संरा के माध्यम से जनमत-संग्रह करा लें, तब भी जिन्ना को अंदेशा था कि पाकिस्तान हार जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र में

कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के बाद भारत इस मामले को सुरक्षा परिषद में संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था. जो प्रस्ताव पास हुए थे, उनसे भारत की सहमति थी. वे बाध्यकारी भी नहीं थे. अलबत्ता आज भी विचार करने की जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका क्या रही?

सन 1948 से 1971 तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए हैं. इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए थे. उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के संदर्भ में थे. प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे. वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी.

पाकिस्तान पीछे हटा

प्रस्ताव 47 के तहत जनमत संग्रह के पहले तीन चरणों की एक व्यवस्था कायम होनी थी. इसकी शुरुआत पाक अधिकृत क्षेत्र से पाकिस्तानी सेना और कबायलियों की वापसी से होनी थी. पाकिस्तान ने ही उसे स्वीकार नहीं किया, तो उसे लागू कैसे किया जाता.

पाकिस्तान बुनियादी तौर पर जनमत संग्रह के पक्ष में था भी नहीं. नवम्बर 1947 में भारत के गवर्नर जनरल माउंटबेटन पाकिस्तान गए थे और उन्होंने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात करके उनसे पेशकश की थी कि कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ तीनों रियासतों में जनमत संग्रह के माध्यम से फैसला कर लिया जाए कि किसको किसके साथ रहना है. जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. भारतीय राजनेता उस वक्त आश्वस्त थे कि उन्हें आसानी से जनता का समर्थन मिलेगा.

भारत इस मामले को जब संरा सुरक्षा परिषद में ले गया, तब उसका कहना था कि कश्मीर के महाराजा ने भारत में विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत किए हैं, इसलिए कश्मीर अब हमारी सम्प्रभुता का हिस्सा है जिसपर पाकिस्तान ने हमला किया है. उसे वहाँ से वापस बुलाया जाए.

पाकिस्तान ने अपने जवाब में कहा कि हम कबायलियों की मदद नहीं कर रहे हैं. उनका पाकिस्तान से कोई सीधा रिश्ता नहीं है. इसके साथ ही पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा के विलय पत्र को ‘धोखाधड़ी और हिंसा के सहारे’ हासिल किया गया बताया. उसने यह भी कहा कि महाराजा हरि सिंह और भारत सरकार के बीच हुआ समझौता गैर-कानूनी है. इस सिलसिले में कोई भी फैसला कश्मीरी जनता की सहमति से ही होना चाहिए.

आयोग का गठन

भारत और पाकिस्तान के आवेदन-प्रतिवेदन के बाद सुरक्षा परिषद ने संरा चार्टर के अनुच्छेद 34 के आधार पर इस मामले की जाँच करने का फैसला किया और फिर प्रस्ताव 38 और 39 पास किए. 17 जनवरी 1948 का प्रस्ताव 38 सामान्य प्रस्ताव था, जिसमें दोनों पक्षों से स्थिति को बिगड़ने से रोकने का अनुरोध किया गया था.

इसके बाद 20 जनवरी को प्रस्ताव 39 पास किया गया, जिसमें भारत और पाकिस्तान के लिए संरा आयोग (यूएनसीआईपी) का गठन किया गया, जिसे दो बातों की जाँच करने की जिम्मेदारी दी गई. 1.इस समस्या के उत्पन्न होने के पीछे कारण क्या हैं और 2.हालात को सुधारने के लिए किसी प्रकार की मध्यस्थता करना और इस सिलसिले में हुई प्रगति की जानकारी सुरक्षा परिषद को देना.

सुरक्षा परिषद का यह आयोग इस इलाके में जाकर अध्ययन करता उसके पहले ही सु.प. ने 21 अप्रेल 1948 को प्रस्ताव 47 पास कर दिया. यही वह प्रस्ताव है, जिसका कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में बार-बार उल्लेख किया जाता है.

इसमें दो काम मुख्य रूप से होने थे. 1.क्षेत्र का विसैन्यीकरण और 2.जनमत संग्रह. इसमें पाकिस्तान से कहा गया था कि वह इस क्षेत्र से कबायलियों और अन्य पाकिस्तानी नागरिकों को वापस बुलाए. इसके बाद भारत की जिम्मेदारी थी कि वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक न्यूनतम उपस्थिति को बनाए रखते हुए अपनी शेष सेना को वापस बुलाए. इस तरह विसैन्यीकरण के बाद सं.रा. द्वारा नियुक्त जनमत संग्रह प्रशासक के निर्देशन में स्वतंत्र और पक्षपात रहित जनमत संग्रह की प्रक्रिया होनी थी.

विलय का जिक्र नहीं

ध्यान देने वाली बात है कि सु.प. के प्रस्ताव में महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र का जिक्र नहीं था. मई 1948 में जब सं.रा. आयोग जाँच के लिए भारतीय भूखंड में आया, तबतक पाकिस्तानी नियमित सेना कश्मीर में प्रवेश कर चुकी थी. यह सेना कश्मीर पर हमलावर उन कबायलियों की सहायता कर रही थी, जो भारतीय सेना से लड़ रहे थे.

वस्तुतः सिविलियन वेश में भी पाकिस्तानी सैनिक ही थे. 3 जून को सु.प. ने प्रस्ताव 51 पास करके आयोग से जल्द से जल्द कश्मीर जाने का आग्रह किया. प्रस्ताव 47 में ‘पाकिस्तानी नागरिकों’ को हटाने की बात थी, जबकि तब तक तो औपचारिक रूप से सेना भी आ गई थी.

स्थिति में बदलाव

जुलाई में जब सं.रा. आयोग कश्मीर में आया, तो वहाँ पाकिस्तानी सेना को देखकर उसे विस्मय हुआ. इसके बाद 13 अगस्त 1948 को सं.रा. आयोग के पहले प्रस्ताव में इस बात का जिक्र है. इसमें कहा गया है कि पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति के कारण मौलिक स्थितियों में ‘मैटीरियल चेंज’ आ गया है.

इसके बावजूद इस प्रस्ताव में या इसके पहले के प्रस्तावों में ‘विलय पत्र’ का कोई जिक्र नहीं है. यानी एक तरफ पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति की अनदेखी हुई वहीं ‘विलय पत्र’ का जिक्र भी नहीं हुआ. विलय पत्र को नामंजूर भी नहीं किया.

ब्रिटेन की भूमिका

विलय पत्र का जिक्र होता, तो पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति को ‘भारतीय क्षेत्र पर आक्रमण’ माना जाता. पाकिस्तान को ‘विलय पत्र’ भी स्वीकार नहीं था, और महाराजा की संप्रभुता को भी उसने अस्वीकार कर दिया था, हालांकि महाराजा के साथ उसने ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ किया था.

पाकिस्तान का कहना था कि आजाद कश्मीर आंदोलन के कारण महाराजा का शासन खत्म हो गया था. इतना होने के बावजूद संरा आयोग ने पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति की भर्त्सना नहीं की. संरा की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान को एक पलड़े पर रखा जाने लगा. कश्मीर के विलय की वैधानिकता और नैतिकता के सवाल ही नहीं उठे.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

विशेषज्ञों का एक वर्ग मानता है कि संरा सुरक्षा परिषद की राजनीतिक भूमिका के पीछे सबसे बड़ा हाथ ब्रिटेन का था, जो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है. स्वतंत्रता के साथ ही ब्रिटेन को भारत की भावी भूमिकाओं को लेकर चिंता थी.

ब्रिटिश सरकार के इरादों का पता सन 1948 में उस वक्त लगा, जब गिलगित-बल्तिस्तान में बगावत करने वाले मेजर ब्राउन को सम्राट का विशेष सम्मान प्रदान किया गया.

तीसरी समापन किस्त में पढ़ें: अब हम वापस कैसे लेंगे अपनी खोई ज़मीन?

 

 

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