सितंबर के आखिरी हफ्ते में सोशल मीडिया पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के तख़्तापलट की अफवाह फैली थी. इस अफवाह के पीछे चीन के ही नाराज़ लोग थे, जो भागकर अमेरिका या दूसरे देशों में रहते हैं. अफवाह इतनी तेजी से फैली कि वह ट्विटर की ट्रेंडिंग सूची में शामिल हो गई. इसे गति प्रदान करने में भारतीय ट्विटर हैंडलों की भी भूमिका थी.
महत्व उस अफवाह का नहीं, समय का था, जब यह
अफवाह फैली. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस 16 अक्तूबर को शुरू होने जा
रही है. इसमें दूसरे महत्वपूर्ण फैसलों के अलावा शी चिनफिंग को तीसरी बार पार्टी
महासचिव और देश का राष्ट्रपति चुनने की तैयारी है. ऐसे सवाल अपनी जगह पर हैं कि शी
ताकतवर हो रहे हैं या कमज़ोर, और चीन किस दिशा में जा रहा है?
असमंजस और असंतोष
चीन में आय की असमानता को लेकर असंतोष है.
पूँजीवादी रीति-नीति अपनाने के कारण कई प्रकार के अंतर्विरोध उभर कर आए हैं.
आर्थिक मंदी के बादल भी मंडरा रहे हैं. विदेश-नीति को लेकर सवाल हैं. भले ही शी
चिनफिंग का कार्यकाल बढ़ जाएगा, पर उनके उत्तराधिकारी और भविष्य के नेतृत्व की
संभावनाओं के लिहाज से भी यह कांग्रेस महत्वपूर्ण है. इसलिए शी चिनफिंग के उद्घाटन
भाषण को गौर से सुनना होगा.
तमाम बड़े फैसले पार्टी कांग्रेस के पहले ही कर
लिए जाते हैं, पर सम्मेलन का महत्व है, क्योंकि वहाँ फैसलों को औपचारिक रूप दिया
जाता है और उनकी घोषणा की जाती है. दूसरे नम्बर की आर्थिक महाशक्ति जो सामरिक ताकत
से लेकर ओलिम्पिक खेलों के मैदान तक अपना झंडा गाड़ चुकी है, अपने राजनीतिक नेतृत्व की अगली पीढ़ी को किस प्रकार आगे लाएगी या किस
प्रकार पुराने नेतृत्व में से कुछ को विश्राम देगी, यह इस सम्मेलन में देखने को
मिलेगा.
शिखर नेतृत्व
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ही चीन का लोकतंत्र है. इसके सदस्यों की संख्या नौ करोड़ से ज्यादा है. पिरैमिड जैसी इसकी संरचना में सबसे महत्वपूर्ण है शिखर यानी 25 सदस्यों का पोलित ब्यूरो. इसमें सैनिक अधिकारी, केंद्रीय और प्रांतों के नेता शामिल होते हैं. इन 25 के बीच चुनींदा सात सदस्यों की स्थायी समिति होती है, जो सीधे तौर पर बड़े फैसले करती है. इनमें ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री होते हैं.
इस समिति का प्रमुख पार्टी का महासचिव होता है,
जो इस समय शी चिनफिंग हैं. पार्टी के महासचिव के अलावा वे केंद्रीय सैनिक आयोग के
प्रमुख और देश के राष्ट्रपति भी हैं. इनमें पार्टी और सेना-प्रमुख के पद
महत्वपूर्ण हैं. राष्ट्रपति का पद अनुष्ठानिक या सेरेमोनियल है. विदेशी राजनेताओं
से हाथ मिलाने की औपचारिकताओं वगैरह के लिए.
बदलाव की झलक
अधिवेशन आमतौर पर सात दिन चलते रहे हैं. आखिरी
दिन सभी नेता अपने वरीयता क्रम से देश के सामने पेश होते हैं. पोलित ब्यूरो की
स्थायी समिति के सदस्यों की संख्या पहले नौ होती थी, जिसे घटाकर सात कर दिया गया
है, ताकि फैसले करने की प्रक्रिया आसान हो जाए.
हरेक पाँच साल में होने वाली पार्टी की
कांग्रेस में पोलित ब्यूरो और स्थायी समिति के कुछ सदस्य रिटायर होते हैं और कुछ
नए आते हैं. कुछ इसलिए रिटायर होते हैं, क्योंकि उन्हें पसंद नहीं किया जाता है और
कुछ उम्रदराज हो जाते हैं. आमतौर पर रिटायर होने की उम्र है 68 बरस है, पर शी चिनफिंग पिछले साल जून में 68 पार कर
चुके हैं. पूरी व्यवस्था अपारदर्शी है, इसलिए अक्सर पता नहीं लग पाता कि कौन क्यों
हटा और कौन क्यों आया.
परंपरा रही है कि हरेक पार्टी कांग्रेस में नया
महासचिव चुना जाता है. ज्यादा से ज्यादा वह दो कार्यकाल बाद हट जाता है. शी
चिनफिंग 2012 में चुने गए थे. इस लिहाज से उन्हें इस साल हट जाना चाहिए, पर ऐसा
होगा नहीं. माना जा रहा है कि वे अपने तीनों पदों पर बने रहेंगे.
कार्यकाल की सीमा
देश के औपचारिक संविधान में राष्ट्रपति पद के
कार्यकाल की सीमा का ही वर्णन है. 2018 में चीन की विधायिका यानी राष्ट्रीय जन
कांग्रेस ने अपनी सालाना बैठक में सांविधानिक संशोधन कर देश में दो बार से ज्यादा
राष्ट्रपति न बन पाने की बाध्यता खत्म कर दी.
ज्यादा महत्वपूर्ण है शी चिनफिंग का पार्टी के
महासचिव पद पर रहना. उनके तीसरे कार्यकाल का मतलब है देंग श्याओ फेंग के
दिशा-निर्देश से हटना. चीन की वर्तमान व्यवस्था के सूत्रधार देंग हैं, माओ ज़ेदुंग
नहीं.
माओ ज़ेदुंग आजीवन महासचिव थे, पर 1976 में
उनके निधन के बाद आए देंग ने देश में सत्ता परिवर्तन की एक अनौपचारिक व्यवस्था
बनाई कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दो कार्यकाल से ज्यादा काम नहीं करेगा. देंग के
दो पसंदीदा उत्तराधिकारियों जियांग ज़ेमिन और हू जिनताओ ने इस नियम को अपने ऊपर
लागू किया.
अर्थव्यवस्था
कुछ लोगों को लगता है कि दुनिया से कम्युनिज़्म
का सफाया हो चुका है, उनके लिए चीन गहरे अध्ययन का विषय है.
वहाँ की अर्थ-व्यवस्था एक नज़र में पूँजीवादी लगती है. कम से कम नीतियों के संदर्भ
में चीन के मुकाबले भारत ज़्यादा समाजवादी देश लगता है.
चीन के खुदरा बाज़ार में सौ फीसदी विदेशी निवेश
सम्भव है. भारत में सीमित निवेश का भी खासा राजनीतिक विरोध है. पश्चिमी देशों की
निगाह में न सिर्फ पूँजी निवेश के मामले में बल्कि व्यापार शुरू करने और उसे चलाने
के मामले में आज भी भारत के मुकाबले चीन बेहतर है.
चीन के पास अमेरिकी डॉलर का बड़ा भंडार है. इस
साल जुलाई के आँकड़ों के अनुसार अमेरिका ने कुल 7501.2 अरब डॉलर के सरकारी बॉण्ड
ज़ारी किए थे उनमें से 970 अरब डॉलर के चीन के पास हैं. सबसे ज्यादा जापान के पास 1234.3
अरब डॉलर के बॉण्ड हैं. भारत के पास 212 अरब डॉलर के.
चीन ने हाल में इन बॉण्ड को कुछ कम किया है,
अन्यथा दिसंबर 2021 में उसके पास 1069 अरब डॉलर के बॉण्ड थे. ये
बॉण्ड एक प्रकार का कर्ज है, जो अमेरिका ने दूसरे देशों से ले रखा
है और इनके सहारे वह अपनी घाटे की अर्थव्यवस्था चला रहा है. इनसे यह भी पता लगता
है अमेरिका के ऊपर चीन का आर्थिक प्रभाव किस कदर है.
सत्ता-परिवर्तन
सबसे बड़ा रहस्य है वहाँ का सत्ता परिवर्तन.
पिछले चार दशक से वहाँ के सत्ता परिवर्तन में निरंतरता है. माओ जे दुंग के निधन के
बाद तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष देंग श्याओ पिंग ने ‘चार आधुनिकीकरण’ के नाम से
कार्यक्रम चलाया जिसके तहत अपने बाज़ार को खोलने का कार्यक्रम भी शामिल था.
इसका घोषित उद्देश्य इक्कीसवीं सदी में चीन को
महाशक्ति बनाने का था और इसमें उसे कामयाबी मिली. अभी तक पार्टी में नेताओं की
उम्र का पालन सख्ती से हो रहा था, पर अब गाड़ी पटरी बदलती लग रही है. देखना हगा कि
इसबार पोलित ब्यूरो के मौजूदा सात नेताओं का क्या होता है.
चीनी राजनीति में भी सिद्धांत और व्यवहार अलग-अलग
चलते हैं. वहाँ भी बैकरूम पॉलिटिक्स काम करती है. सिद्धांततः पार्टी कांग्रेस, केंद्रीय समिति के सदस्यों का चुनाव
करती है जो पोलित ब्यूरो और इसकी स्थायी समिति को चुनते हैं. व्यावहारिक रूप से
बड़े नेता महत्वपूर्ण फैसले करते हैं, जिन्हें पार्टी
संगठन मान लेता है.
व्यक्तिगत राग-द्वेष
अधिवेशन का विचार-विमर्श खुले में नहीं होता.
केवल घोषणाएं होती हैं. इसलिए यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कितने किस्म के
विचार चीनी राजनीति में प्रचलित हैं. नेताओं के बीच व्यक्तिगत स्पर्धा भी होती है
और समर्थन या आशीर्वाद भी. पूरे नेतृत्व पर देंग श्याओ पिंग के समर्थक हावी हैं.
माओ समर्थक लगभग खत्म हो चुके हैं.
शी से पहले के राष्ट्रपति हू जिनताओ को उनसे
पहले के नेता जियांग ज़ेमिन का पूरा समर्थन प्राप्त था. जियांग ज़ेमिन को देंग का.
2011-12 में लोकप्रिय नेता बो शिलाई को अलग-थलग किया गया, जिनकी
पत्नी पर एक ब्रिटिश व्यापारी की हत्या का आरोप था. इसमें जियांग ज़ेमिन ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई.
देश को बाजार अर्थ-व्यवस्था से जोड़ने में भी जियांग
ज़ेमिन की भूमिका थी. बावजूद खराब स्वास्थ्य के वे काफी समय तक पोलित ब्यूरो को
सलाह देते रहे. हाल में खबर थी कि 105 वर्ष के एक नेता भी पार्टी में सक्रिय हैं.
उत्तराधिकार की व्यवस्था
माओ ज़ेदुंग और देंग श्याओपिंग के समय तक शीर्ष
नेताओं ने अपने उत्तराधिकारियों का नाम खुद तय किया था. फिर भी यह रहस्य है कि माओ
ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में हुआ ग्वो फेंग को चुना या देंग श्याओ पिंग को.
पता नहीं सत्ता का हस्तांतरण सहज था या बगावत. ‘गैंग ऑफ फोर’ के
रूप में धिकृत नेताओं में माओ के करीबी लोग भी थे.
माओ के बाद तीन दशक तक लगा कि चीन की राजनीति
में ताकतवर राजनेताओं का दौर खत्म हो गया है. पर शी चिनफिंग को देखकर लगता है कि
चीजें बदल रही हैं. दूसरी तरफ दुनिया भी बदल रही है और पश्चिम का प्रभाव लगातार
बढ़ रहा है.
चीन के वर्तमान राजनीतिक ढाँचे को पश्चिम की
मल्टी पार्टी व्यवस्था में बदला नहीं जा सकता, पर
चीन में निचले स्तर पर चुनाव होने लगे हैं. राजनीतिक सुधारों की जरूरत बढ़ती जा
रही है. लेकिन कुछ ताकतवर समूह हैं जो बुनियादी बदलाव का विरोध करते हैं.
बदलाव कैसा?
स्थायी समिति के सभी सदस्य अभी तक पुरुष ही
होते हैं. इसबार कोई स्त्री सदस्य बने, तो उसे बदलाव माना जाएगा. देश के
प्रधानमंत्री ली खछ्यांग अगले साल मार्च में सेवानिवृत्त हो जाएंगे. इसलिए यह देखना
होगा कि नए प्रधानमंत्री कौन बनते हैं.
देंग के बाद के दो नेताओं ने अपने उत्तराधिकारी
तय कर दिए थे, पर शी चिनफिंग ने अभी तक अपने उत्तराधिकारी का नाम तय नहीं किया है.
देखना होगा कि नई स्थायी समिति के जो सदस्य आएंगे, उनकी उम्र क्या है. उससे भविष्य
के नेताओं का अनुमान लग सकेगा.
इस समय ज्यादातर नेता पचास-साठ से ऊपर के हैं.
उनके उत्तराधिकारी बनने की संभावना कम है, क्योंकि कम से कम पाँच-पाँच साल के दो
कार्यकाल जो व्यक्ति पूरे कर सके, उसे ही उत्तराधिकारी बनाना व्यावहारिक होगा.
माना जाता है कि शी चिनफिंग ने अपने
प्रतिस्पर्धियों का दमन कर दिया है और वे माओ की तरह ताउम्र नेता बने रहना चाहते
हैं. कोविड-19 के दौरान कठोर नीतियों के कारण वे अलोकप्रिय भी हुए हैं, पर चीन में
पार्टी महासचिव बनने के लिए लोकप्रियता कोई पैमाना नहीं है. महत्वपूर्ण होता है
पार्टी का विश्वास.
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