नाटकीयता भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा गुण है। नरेंद्र मोदी की सफलता के पीछे नाटकीयता की बड़ी भूमिका है। मुलायम सिंह के बाद अखिलेश के ताकतवर बनने का मौका नाटकीय घटनाक्रम से भरा रहा। इस राजनीतिक-नाटकीयता के जन्म का श्रेय भी कांग्रेस को ही जाता है। स्वतंत्रता के पहले गांधी और सुभाष, स्वतंत्रता के बाद नेहरू और टंडन, फिर 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में नाटकीयता चरम पर थी। 1998 में सीताराम केसरी को नाटकीय परिस्थितियों में हटाकर ही सोनिया गांधी आई थीं।
अब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के मौके पर
परिस्थितियों ने नाटकीय मोड़ ले लिया। शुरुआत अशोक गहलोत के प्रत्याशी बनने की
संभावनाओं और फिर उनके समर्थकों की बगावत से हुई। पार्टी हाईकमान और अशोक गहलोत
दोनों एक तीर से दो निशाने लगा रहे थे। हाईकमान को लगा कि गहलोत को जयपुर से हटाकर
दिल्ली बैठाने से सचिन पायलट को काम मिल जाएगा। गहलोत की योजना थी कि दिल्ली जाएंगे,
पर जयपुर में अपना कोई बंदा बैठाएंगे। सचिन पायलट की कहानी शुरू नहीं होने देंगे।
गहलोत प्रकरण फिलहाल पृष्ठभूमि में चला गया है, पर यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि वह खत्म हो गया है। इसका दूसरा अध्याय पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के बाद शुरू होगा। फिलहाल देखें कि नए अध्यक्ष के चुने जाने की औपचारिक घोषणा होने के पहले या बाद में नाटकीय परिस्थितियों की गुंजाइश है या नहीं? पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह समझना है कि नया पार्टी अध्यक्ष 2024 के चुनाव में पार्टी की संभावनाओं को बेहतर करने में मददगार होगा या नहीं।
राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर की ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ पर निकले हुए हैं। रास्ते में उनका अच्छा
स्वागत हो रहा है और पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह की लहर है। क्या यह यात्रा
2024 के चुनाव में मददगार होगी? यह यात्रा पार्टी के झंडे के पीछे नहीं है। सबसे
आगे तिरंगा झंडा है। क्या यह रणनीति फलदायी होगी? इस
सवाल का जवाब आने में करीब चार महीने बाकी हैं। यात्रा पूरी होने में पाँच महीने
से कुछ ज्यादा समय लगेगा और अभी पहला महीना पूरा हुआ है।
मल्लिकार्जुन खड़गे अनुभवी, शांत और समझदार
नेता हैं। परिवार के विश्वस्त भी हैं। पर क्या वे सोनिया गांधी या राहुल की तुलना
में ज्यादा शक्तिशाली साबित होंगे? पार्टी को प्रभावशाली और ताकतवर नेता की जरूरत है। मई 2019 में राहुल
गांधी ने इस्तीफा देते हुए असहायता भी व्यक्त की थी। उन्हें जिस सहयोग और समर्थन
की आशा थी, वह उन्हें नहीं मिला। खड़गे क्या वह सहयोग और समर्थन हासिल कर पाएंगे?
खड़गे की भी सीमा है। वे अस्सी साल के हैं।
सोनिया गांधी से करीब साढ़े चार साल बड़े। उनके पास अनुभव है, पर कांग्रेस के
भविष्य को देख पाने की स्थिति में क्या वे हैं? जिस
नई दृष्टि की जरूरत है, क्या वे उसे प्रदान कर पाएंगे? संभव
है कि राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उस मूल-तत्व को खोज लें, जिसकी
पार्टी को जरूरत है। पर क्या वे खड़गे के माध्यम से उस ऊर्जा को पार्टी में
प्रवाहित करने में कामयाब होंगे?
पार्टी को ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है, जो परिवार
का वफादार हो। गुलाम नबी आज़ाद के शब्दों में ‘कठपुतली।’ इतने भर से पार्टी में नई ऊर्जा प्रवाहित नहीं होगी। वह
ऊर्जा शिखर से ही प्रवाहित होगी। शिखर पर राहुल गांधी रहेंगे, पर व्यावहारिक कामकाज अध्यक्ष के मार्फत ही होंगे। पार्टी को ‘हाईकमान से आशीर्वाद प्राप्त अध्यक्ष’
चाहिए। हाईकमान मायने क्या? पिछले कुछ वर्षों का घटनाक्रम बता रहा है कि पार्टी की
धुरी कमज़ोर है। अब दो धुरी हो जाएंगी।
इस समय पार्टी की
प्राथमिकता क्या है- संगठन या 2024
का चुनाव? हो सकता है कि इन सभी सवालों पर पार्टी के भीतर
गहराई से विचार किया गया हो, पर राजस्थान से अकस्मात उठी चिंगारी से लगता है कि
होमवर्क में कमी है। कुछ ऐसा ही मामला छत्तीसगढ़ का है, जहाँ ‘ढाई-ढाई
साल’ मुख्यमंत्री बनने का फ़ॉर्मूला लागू नहीं हुआ, जिससे टीएस सिंहदेव नाराज़ हैं।
अध्यक्ष की भूमिका क्या होगी, कितनी उसकी चलेगी
और कितनी परिवार की, जिसे हाईकमान कहा जाता है? और अध्यक्ष
के रहते क्या कोई हाईकमान भी होगी? गैर-गांधी अध्यक्ष खुद कब तक चलेगा? इन
सवालों की अनदेखी भले ही कर दें, पर सवाल तो रहेंगे।
शाह टाइम्स में प्रकाशित
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