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Sunday, March 31, 2019

महागठबंधन का स्वप्न-भंग

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पिछले साल 23 मई को बेंगलुरु में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में और फिर इस साल 19 जनवरी को कोलकाता में हुई विरोधी एकता की रैली ‘ब्रिगेड समावेश’ में मंच पर एकसाथ हाथ उठाकर जिन राजनेताओं ने विरोधी एकता की घोषणा की थी, उनकी तस्वीरें देशभर के मीडिया में प्रकाशित हुईं थीं। अब जब चुनाव घोषित हो चुके हैं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विरोधी-एकता की जमीन पर स्थिति क्या है। कर्नाटक की तस्वीर को प्रस्थान-बिन्दु मानें तो उसमें सोनिया, राहुल, ममता बनर्जी, शरद यादव, अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, चन्द्रबाबू नायडू, सीताराम येचुरी, फारुक़ अब्दुल्ला, अजित सिंह, अरविन्द केजरीवाल के अलावा दूसरे कई नेता थे। डीएमके के एमके स्टालिन तूतीकोरन की घटना के कारण आ नहीं पाए थे, पर उनकी जगह कनिमोझी थीं।

उस कार्यक्रम के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने अपनी शुभकामनाएं भेजी थीं। ओडिशा के नवीन पटनायक बुलावा भेजे जाने के बावजूद नहीं आए थे। इन सब नामों को गिनाने का तात्पर्य यह है कि पिछले तीन साल से महागठबंधन की जिन गतिविधियों के बारे में खबरें थीं, उनके ये सक्रिय कार्यकर्ता थे। अब जब चुनाव सामने हैं, तो क्या हो रहा है? हाल में बंगाल की एक रैली में राहुल गाँधी ने ममता बनर्जी की आलोचना कर दी। इसके बाद जवाब में ममता ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि राहुल अभी बच्चे हैं। तीन महीने पहले तेलंगाना में हुए चुनाव में तेदेपा और कांग्रेस का गठबंधन था। अब आंध्र में चुनाव हो रहे हैं, पर गठबंधन नहीं है।


ज्यादातर फोटोऑप्स में अरविन्द केजरीवाल भी रहते हैं। इन दिनों उनका एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें वे कह रहे हैं, ‘'हम कांग्रेस को मना-मना कर थक गए कि गठबंधन कर लो, गठबंधन कर लो। उनकी समझ में नहीं आ रहा…।’ दिल्ली और हरियाणा के गठबंधन को लेकर भ्रम की स्थिति है। बावजूद इसके कि कांग्रेस ने गठबंधन की मनाही की है, अब भी लगता है कि गठबंधन हो जाएगा। बेंगलुरु में सोनिया गांधी और मायावती ने एक-दूसरे के बराबर खड़े होकर तस्वीर खिंचवाई, पर जब यूपी में गठबंधन का मौका आया, तो सपा और बसपा के बीच हुआ, कांग्रेस को दोनों ने बिसरा दिया। मायावती ने तो कई तरह की कड़वी बातें भी कही हैं। देश की राजनीति और आपसी हितों को देखते हुए यह अटपटी बात नहीं है, पर अपने अजब अंदाज के कारण देश में गठबंधन की राजनीति मजाक का विषय बन गई है।

एनडीए और यूपीए के रूप में दो राजनीतिक गठबंधन स्पष्ट रूप से देश में हैं, पर पिछले तीन साल से ‘साम्प्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए महागठबंधन’ का जिक्र सुन रहे थे, वह नहीं बन पाया। बेशक कांग्रेस और एनसीपी ने महाराष्ट्र में गठबंधन कर लिया। तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके का गठबंधन हो गया। बिहार में भी राजद के साथ गठबंधन हो गया, जिसके भीतर से टकराव की खबरें भी हैं। इन्हें सामान्य ‘लेबर पेन’ माना जा सकता है, पर गठबंधन की राजनीति को लेकर बहुत उत्साहवर्धक धारणा भी नहीं बनती नजर आ रही है। इसकी वजह है सिद्धांत और व्यवहार के बीच का भारी अंतर। व्यावहारिक राजनीति उस हद तक आदर्शों से प्रेरित नहीं है, जिस हद तक वह उसे दर्शाती है। सैद्धांतिक बात है कि यदि साम्प्रदायिकता बहुत बड़ा खतरा है, तो उसके खिलाफ खड़ी सारी ताकतें एक होकर लड़ें। ऐसा नहीं हो रहा है, तो दोष किसका है?

व्यावहारिक राजनीति का वास्ता सत्ता में हिस्सेदारी से है। बीजेपी भी जिस राजनीति का संचालन कर रही है, उससे उसे चुनाव में मदद मिलती है। पर उसके खिलाफ गठबंधन का मतलब केवल इतना नहीं है कि क्षेत्रीय दल अपने राज्यों तक सीमित रहेंगे और कांग्रेस केन्द्र में एकछत्र होगी। क्षेत्रीय दल केन्द्र में भी अपना हिस्सा माँगेंगे। देखना होगा कि 23 मई 2019 की दोपहर के बाद विरोधी एकता का स्वरूप क्या होगा। पिछले कुछ महीनों से सीताराम येचुरी कह रहे हैं कि गठबंधन चुनाव के पहले नहीं, चुनाव परिणाम आने के बाद बनेगा। ममता बनर्जी 2014 के चुनाव से कह रहीं हैं कि राजनीति में फिलहाल ‘पोस्ट पेड’ का ज़माना है ‘प्री पेड’ का नहीं। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बन रहा यह गठबंधन भी ‘पोस्ट पेड़ उम्मीदों’ के कारण नहीं बन पाया था। इस ‘पोस्ट पेड’ राजनीति का मतलब है मौकापरस्ती। इसबार ‘पोस्ट पेड़ उम्मीदें’ कई दिलों में हैं। क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं बढ़ रहीं हैं।

कहा जाता है कि क्षेत्रीय दल स्थानीय आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं। यदि वे मिलकर राष्ट्रीय गठबंधन के रूप में सामने आएं, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं। संघीय व्यवस्था उनके बल पर ही विकसित होगी। ऐसा है, तो क्यों नहीं देशभर के क्षेत्रीय दलों का मोर्चा बनता? पर क्या ये पार्टियाँ सैद्धांतिक आधार पर बनी हैं? कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी और वाईएसआर कांग्रेस में क्या वैचारिक भेद है? डीएमके और अन्ना डीएमके के बीच क्या सैद्धांतिक असहमतियाँ हैं?

पार्टियों पर विचारधारा कम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और गुटबाज़ियाँ ज्यादा हावी हैं। सही है कि क्षेत्रीय-सांस्कृतिक-सामाजिक विविधताओं को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर फ्रंट और मोर्चों की दरकार है। इस मायने में कांग्रेस पार्टी अपने आप में एक बड़ा गठबंधन हुआ करती थी। उसमें वामपंथी और दक्षिणपंथी विचारों का मिलन होता था। उत्तर- दक्षिण, पूर्व-पश्चिम की संस्कृतियों का भी। पर क्या यह वही कांग्रेस पार्टी है?

गठबंधन चलाने के लिए सबल केन्द्रीय दल चाहिए। इस लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए और एनडीए ही दो गठबंधनों के रूप में उभरे हैं। क्षेत्रीय स्तर पर सन 1977 में छह पार्टियों ने बंगाल में मिलकर वाम मोर्चा बनाया, जो एक माने में इस वक्त मौज़ूद गठबंधनों में सबसे पुराना है, पर अब लगता है कि वह अब गया कि तब गया। बीजेपी सबसे बड़ा खतरा है, तो उसके विरोधी दल मिलकर एक महागठबंधन क्यों नहीं बनाते? क्यों नहीं चुनाव-पूर्व गठबंधन बनाकर एक आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम की घोषणा करते हैं?

इस वक्त देश में एनडीए और यूपी के अलावा कम से कम तीन या चार गठबंधन और खड़े हैं। यूपी में सपा-बसपा का गठबंधन है। तेलंगाना में टीआरएस और एएमआईएम का गठबंधन है। आंध्र में तेदेपा महागठबंधन के साथ हैं। बंगाल में तृणमूल है, पर वह किसी को सीट नहीं देगी। उसका अपना गणित है कि पार्टी को देशभर में 50 के आसपास सीटें मिलीं, तो प्रधानमंत्री पद ममता को मिल सकता है। उन्हें आम आदमी पार्टी का समर्थन भी मिलेगा।

ओडिशा में बीजद और आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस का स्वतंत्र अस्तित्व है। वाममोर्चा अपने आप में अलग गठबंधन है, जो मौका पड़ने पर केन्द्र में यूपीए और महागठबंधन का साथ दे सकता है। एचडी देवेगौडा और के चंद्रशेखर राव के भी गणित हैं। इन उलझे और परस्पर-विरोधी गणितों से एक निष्कर्ष निकलता है कि इस चुनाव में ‘महागठबंधन’ नेताओं के जोड़-घटाने से ज्यादा कुछ नहीं है।




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