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Friday, March 29, 2019

एंटी-सैटेलाइट टेस्ट के महत्व को भी समझिए

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एंटी-सैटेलाइट परीक्षण को लेकर कई तरह के सवाल एकसाथ खड़े हुए हैं. काफी सवाल राजनीतिक है, जिनपर अलग से बात होनी चाहिए. यहाँ हम इसके सामरिक और राजनयिक पहलुओं पर बात करेंगे. रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि इसका फैसला सन 2014 में ही कर लिया गया था. सवाल है कि परीक्षण पहले क्यों नहीं किया और अब क्यों किया? इसके दो-तीन कारण हैं. डीआरडीओ को तकनीक विकसित करने की अनुमति देने, धनराशि आवंटित करने और मित्र देशों से विमर्श में भी समय लगता है. रक्षा और राजनीतिक मामलों से जुड़ी कैबिनेट समितियों से अग्रिम स्वीकृतियाँ लेने की जरूरत भी थी. डीआरडीओ का कहना है कि इस प्रोजेक्ट की अनुमति दो साल पहले दी गई थी.

मौसम और धरती की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों की स्थिति पर नजर रखने की आवश्यकता भी थी. मौसम का पता महीनों पहले लगाना होता है. यह भी ध्यान रखना था कि अंतरिक्ष में प्रदूषण न होने पाए. चीन ने 2007 में इसका ध्यान नहीं रखा था, जिसके लिए उसकी निन्दा हुई थी. भारत ने निश्चित रूप से अपने सामरिक मित्रों से भी मशविरा किया होगा. इसी वजह से बुधवार को हमारे विदेश मंत्रालय ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया और प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमने इस परीक्षण में वैश्विक नियमों को ध्यान में रखा है. 
इस परीक्षण के राजनयिक फलादेश मामूली नहीं हैं. सन 2007 में जब चीन ने परीक्षण किया था, तब हड़कम्प मचा था. आने वाले समय में युद्ध के दो नए क्षेत्र होंगे. अंतरिक्ष और साइबर दुनिया. संयोग से दोनों का संचालन अंतरिक्ष से होता है. बगैर सैटेलाइट इंटरनेट भी काम नहीं करेगा. अक्तूबर 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सैनिक कमांडरों की बैठक में कहा था कि अंतरिक्ष पर नियंत्रण बनाए रखने की बहुत जरूरत है. उन्होंने कहा, जिस तरह जमीन, हवा और सागर पर नियंत्रण जरूरी है, उसी तरह अंतरिक्ष पर नियंत्रण भी अनिवार्य है. अब पूर्ण युद्धों की सम्भावनाएं कम होती जाएंगी और सेनाओं की भूमिका निरोधक (डेटरेंट) और आचरण को प्रभावित करने की हो जाएगी. युद्धों की अवधि कम हो जाएगी.

भारत ने तकनीकी क्षमता का प्रदर्शन किया है. अभी न तो ऐसी मिसाइलों की तैनाती होगी और न हमारी सेनाओं की कोई स्पेस या साइबर कमान है. यह सब भविष्य में होगा. अंतरिक्ष को शांति-क्षेत्र और सुरक्षित बनाने का काम भी आप तभी कर सकते हैं, जब आपके पास अंतरिक्ष पर नियंत्रण की क्षमता हो. धरती की निचली कक्षा से दुनियाभर के जासूसी उपग्रह काम करते हैं, आने वाले समय में ऐसे यूएवी या अंतरिक्ष वाहन बनेंगे, जो वायुमंडल के ऊपर और वाह्य अंतरिक्ष के नीचे सक्रिय होंगे. उनकी भूमिका के बरक्स हमें तकनीक तो विकसित करनी ही होगी.

चीन ने सन 2007 के बाद से तीन बार एंटी-सैटेलाइट (एसैट) प्रयोग किए हैं. यकीनन एंटी-सैटेलाइट प्रहार से कोई भी देश ‘अंधा-बहरा’ हो जाएगा. संचार और सैनिक उपग्रह नहीं होने पर लम्बी दूरी के प्रक्षेपास्त्र छोड़े नहीं जा सकेंगे. भारत के तत्कालीन डीआरडीओ चेयरमैन वीके सारस्वत ने 2012 में कहा था कि भारत के पास एसैट क्षमता है. उस साल अग्नि-5 के परीक्षण के समय स्पष्ट था कि वह एंटी-सैटेलाइट मिसाइल भी है. पर उसका परीक्षण एंटी-सैटेलाइट के रूप में नहीं हुआ था, क्योंकि उसके लिए उसे पृथ्वी की कक्षा में ही किसी चीज को निशाना बनाना पड़ता. वह चीज बैलिस्टिक मिसाइल भी हो सकती है और सैटेलाइट भी. इस लिहाज से वह बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस (बीएमडी) परीक्षण भी था.

कुछ लोगों ने सवाल उठाया है कि क्षमता थी, तो फिर अब परीक्षण क्यों? भारत ने सन 1974 में एटमी परीक्षण कर लिया था, पर हमने 1998 में खुद को एटमी ताकत घोषित किया. इस वजह से हमारे ऊपर कई तरह के प्रतिबंध लगे, क्योंकि परमाणु अप्रसार (एनपीटी) संधि में केवल पाँच देशों को ही नाभिकीय शक्ति माना गया. हमने खुद को एटमी ताकत घोषित करने में देर की. इस लिहाज से यह उतना ही महत्वपूर्ण परीक्षण है, जितना नाभिकीय विस्फोट.

अब अंतरिक्ष-आधारित शस्त्रों से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय संधियों पर भी बात चल रही है. इस संधि से बाहर रहने पर भारत इस मामले में पिछड़ जाएगा. वह यदि संधि के भीतर नहीं होगा, तो इस सिलसिले में होने वाली गतिविधियों में शामिल नहीं हो पाएगा. इससे पहले कि इन अस्त्रों पर रोक लगाने वाली कोई संधि हो, हमें जल्द से जल्द अपनी इस क्षमता को प्रदर्शित करने की जरूरत थी. पर इसके लिए क्षमता के अलावा दुनिया के सामने खुलकर अपनी ताकत को बताने की हिम्मत की जरूरत भी थी.

अब युद्धक्षेत्र के जो सॉफ्टवेयर बन रहे हैं, उनमें सेना मुख्यालय में बैठे कमांडर सैनिकों के हेल्मेट पर लगे कैमरों से युद्ध की वास्तविक स्थिति को देख सकते हैं और संवाद कर सकते हैं. हवा में उड़ते लड़ाकू विमान अपने कमांडर से सीधे संवाद कर सकते हैं, समुद्री पोतों को सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर की परिस्थितियों का पता सैटेलाइट की मदद से लगता है. इन सैटेलाइटों की रक्षा के लिए भी हमें व्यवस्थाएं करनी होंगी.

भारत के अपने ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम के रूप में आईआरएनएसएस नाम से सात उपग्रहों का समुच्चय अंतरिक्ष में काम कर रहा है. पिछले वर्ष दिसम्बर में भारत ने अपने दूसरे सैनिक उपग्रह जीसैट-7ए का प्रक्षेपण किया. पहला उपग्रह रुक्मिणी-जीसैट-7-सितम्बर 2013 में प्रक्षेपित किया गया था. इन दो के अलावा दर्जन के आसपास ऐसे उपग्रह और हैं, जो सर्विलांस का काम कर रहे हैं और अंतरिक्ष से तस्वीरें भेज रहे हैं. जीसैट-7ए मुख्यतः वायुसेना के लिए और आंशिक रूप से थलसेना के लिए काम करेगा.

ये उपग्रह लाइव फीड उपलब्ध कराते हैं और सैकड़ों किलोमीटर दूर उड़ान भर रहे विमान के साथ सम्पर्क बनाए रखने में मददगार होते हैं. रुक्मिणी का इस्तेमाल नौसेना करती है, जो अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और मलक्का जलडमरूमध्य के संकरे मार्ग पर नजर रखता है. पूरे सिस्टम की रक्षा के लिए यह भी जरूरी है.

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