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Sunday, March 3, 2019

क्या यह सिर्फ मीडिया का स्वांग था?


http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-03
पिछले पखवाड़े भारत-पाकिस्तान टकराव का एक और दौर पूरा हो गया। इस दौरान सीमा के दोनों तरफ के मीडिया का एक और चिंतनीय चेहरा सामने आया है। मीडिया ने हमारे विमर्श का एजेंडा तय करना शुरू कर दिया है, जबकि वह खुद संशयों का शिकार है। वह अपने थिएटरी निष्कर्षों को दर्शकों के दिलो-दिमाग में डाल रहा है। यह बात पिछले एक पखवाड़े के घटनाक्रम से समझी जा सकती है। शुक्रवार देर रात तक टीवी से चिपके लोगों को एंकर और रिपोर्टर समझाते रहे कि अभिनंदन अब आए, अब आने वाले हैं, आते ही होंगे वगैरह। बहरहाल जब वे आए वाघा सीमा पर मौजूद भीड़ से मुखातिब होने का मौका उन्हें नहीं मिला। क्यों हुआ इतना लम्बा ड्रामा? 
कई दिन से तेलुगु चैनल टीवी-9 का एक एंकर फौजी वर्दी पहने हाथ में एके-47 जैसी खिलौना बंदूक हाथ में लिए अपने दर्शकों से संवाद कर रहा है। भारत और पाकिस्तान के अनेक एंकर आर्मी और एयर फोर्स की वर्दियाँ पहन कर स्टूडियो में चर्चाओं का संचालन कर रहे हैं। यह विमर्श बजाय संजीदा शक्ल लेने के तमाशा बनता जा रहा है। क्या जरूरत है तमाशे की? राष्ट्रीय सुरक्षा, क्षेत्रीय सहयोग और आर्थिक-विकास के सवालों की गम्भीरता इस तमाशे के शोर में दबती जा रही है।

अभिनंदन को सौंपे जाने की कार्यवाही में ज्यादा से ज्यादा आधा घंटा लगना था, पर दिन दो बजे से रात के दस बजे तक टीवी ने अपनी कवरेज को सिर्फ एक बात पर केन्द्रित कर दिया। इस वजह से हमें लगा कि शायद अभिनंदन की रिहाई ही असल समस्या है। 14 फरवरी को पुलवामा पर हमला हुआ, देशभर में गुस्से की लहर थी। जब 26 फरवरी को भारतीय वायुसेना ने बालाकोट पर हमला किया, तो तमाम लोगों ने बेसाख्ता उसका समर्थन किया। पर अब लगता है कि शायद दोनों देशों के बीच सबसे बड़ी समस्या अभिनंदन की रिहाई को लेकर थी। उन्हें रिहा कराकर हमने मैदान मार लिया है।

वास्तव में हम जहाँ थे, वहीं खड़े हैं। मीडिया ‘मेकिंग मनी फ्रॉम वॉर’ यानी कमाई के आगे नहीं सोच पा रहा है। आतंकवाद, मुम्बई, पठानकोट और उड़ी के हमले हम सब भूल गए। शुक्रवार को अभिनंदन की रिहाई के अलावा दूसरी बड़ी खबरें भी थीं। अबू धाबी में देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस्लामिक देशों के सहयोग संगठन को पहली बार संबोधित कर रहीं थीं। इस संबोधन में आतंकवाद के खतरे को लेकर महत्वपूर्ण बातें थीं। सम्मेलन में भारत को बुलाए जाने का पाकिस्तान ने विरोध किया और उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने सम्मेलन का बहिष्कार किया। यहाँ पाकिस्तान की दोमुँही राजनीति का भंडाफोड़ भी हुआ।

इस परिघटना के राजनयिक निहितार्थ हैं, जिनका असर वैश्विक राजनीति पर पड़ेगा। पर हमारे मीडिया की दिलचस्पी घटनाओं की नाटकीयता तक सीमित है। उनकी गहराई में वह जाना ही नहीं चाहता। उसे ऊँचे स्वरों में चीखकर बातें कहने वाले एंकरों और इस नाटकीयता में उन्हें भी पीछे छोड़ने वाले कथित विशेषज्ञों में दिलचस्पी है। पूरा माहौल पारसी थिएटर की याद दिला रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उद्भव के बाद से भारतीय समाचार-विचार की दुनिया सनसनीखेज हो गई है। सोशल मीडिया का तड़का लगने से इसमें कई नए आयाम पैदा हुए हैं। सायबर मीडिया की नई साइटें खुलने के बाद समाचार-विचार का इंद्रधनुषी विस्तार भी देखने को मिल रहा है। इसमें संजीदा मीडिया भी है, पर खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना मीडिया की नई शक्ल भी उभर रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 24 घंटे, हर रोज और हर वक्त कुछ न कुछ सनसनीखेज चाहिए।

इस सनसनीखेज आक्रामकता को भारत और पाकिस्तान के बिगड़ते रिश्तों की रोशनी में बहुत ज्यादा बढ़ावा मिला है। स्टूडियो में बैठे विशेषज्ञ कभी कहते हैं कि सरकार को चूड़ियां पहन लेनी चाहिए। उत्तेजना और उकसावा मीडिया का प्रस्थान-बिन्दु बन गया है। चैनल जानबूझकर गरमा-गरमी का माहौल बनाते हैं। यह टीआरपी वॉर है। भारत-पाकिस्तान रिश्ते दो दिन में नहीं सुधर सकते, अलबत्ता सेकंडों में बिगड़ जरूर सकते हैं। ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय सर्वानुमति की जरूरत होती है। जबकि हो उल्टा रहा है।

टीवी मीडिया घटनाओं की त्वरित और जीवंत जानकारी देने में समर्थ है। पर वह मनोरंजन का मीडिया भी है। सूचना-प्रदाता और विमर्श के मंच के रूप में उसकी जो संजीदा भूमिका है, उससे वह भाग रहा है और उसकी जगह फिल्मी मनोरंजन की भूमिका अख्तियार करता जा रहा है। यह खतरनाक प्रवृत्ति है। चिंता का विषय है कि डिजिटल मीडिया फेक न्यूज से भरा है और टीवी पर मनोरंजन हावी है। वस्तुगत सूचना और साफ-सुथरे विचारों के लिए जगह कम होती जा रही है।

पिछले दो हफ्ते में देश के टीवी चैनलों ने विज्ञापनों से कितनी कमाई की, इसकी जानकारी सामने आती रहेगी, पर सीमा के दोनों तरफ की मीडिया कवरेज से साफ है कि डमरू बजाकर दर्शकों को बटोरने वाले मदारियों और टीवी के महारथियों में कोई अंतर नहीं है। उनके हाव-भाव, तौर-तरीके और बोलने का अंदाज सब कुछ मदारियों जैसा है और उद्देश्य भालू या बंदर का नाच दिखाने के बाद पैसा बटोरकर ले जाने का है।

जाने-अनजाने हमारी लोकतांत्रिक शब्दावली में युद्ध सबसे महत्वपूर्ण रूपक बनकर उभरा है। चुनाव के रूपक संग्राम, जंग और लड़ाई के हैं। खेल के मैदान की कवरेज में ज्यादातर रूपक युद्ध के होते हैं। राजनीतिक विमर्श के रूपक संग्राम से जुड़े हैं। नेताओं के बयानों को ब्रह्मास्त्र और सुदर्शन चक्र की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक लोकतांत्रिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं लगती, बल्कि महाभारत की सामंती लड़ाई जैसी लगती है। इस बात की हम कल्पना ही नहीं करते कि कभी सत्तापक्ष किसी मसले पर विपक्ष की तारीफ करेगा और विपक्ष किसी सरकारी नीति की प्रशंसा करेगा।

हम वर्च्युअल रियलिटी यानी आभासी सत्य के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें हमारा सत्य हमारे दिलो-दिमाग में बैठी तस्वीरों से तय हो रहा है। सोशल मीडिया ये तस्वीरें हमारे दिमाग में लगातार बैठाता जा रहा है। इनके सहारे में हमारे निश्चय और वरीयताएं दृढ़ से दृढ़तर होती जा रही है। इसके विपरीत वास्तविक जीवन में हमारे संशय बढ़ते जा रहे हैं। पत्रकारिता कुछ भी लिखने या कुछ भी बोलने का नाम नहीं है। उसके अपने मूल्य हैं। पर अब हम संगठित रूप से काम करने वाली पीआर एजेंसियों के घेरे में हैं, जो अपने संकीर्ण उद्देश्यों को पूरा करने के लिए काम करती हैं।
 
 https://foreignpolicy.com/2019/03/01/indias-media-is-war-crazy/?fbclid=IwAR31XHhsrASxtJYKQCkDCBv-y5ACL-icp2X6Q7ko6SEpCNELUkLVTzfkjfk



1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (04-03-2019) को "शिव जी की त्रयोदशी" (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    महाशिवरात्रि की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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