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Sunday, March 11, 2018

गठबंधनों का गणित, गठजोड़ों की आहटें


राजनीतिक-बेताल फिर से डाल पर वापस चला गया है। पूर्वोत्तर के चुनाव परिणाम आने के साथ राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदलने लगा है। इस वक्त एक बड़ा सवाल है कि लोकसभा के चुनाव कब होंगे? अब सारी निगाहें कर्नाटक के चुनाव पर हैं। वहाँ के नतीजे अगले आम-चुनाव की दशा-दिशा तट करेंगे। कांग्रेस जीती तो बीजेपी लोकसभा चुनाव जल्दी कराने पर जोर नहीं देगी, क्योंकि इससे न केवल कांग्रेस के हौसले बुलंद होंगे, बीजेपी के हौसले धराशायी हो जाएंगे।

बीजेपी की रणनीति फिलहाल निरंतर सफल होते जाने में है। इसलिए यदि बीजेपी कर्नाटक में जीत गई तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव कराने पर जरूर विचार करेगी। वह राजस्थान और मध्य प्रदेश की एंटी इनकम्बैंसी का जोखिम नहीं उठाएगी और जीत की लहर पैदा करने की कोशिश करेगी, जिसमें हिन्दी भाषी इन तीनों राज्यों को बहा लेने की कोशिश होगी। उधर पृष्ठभूमि में चुनाव-पूर्व के गठबंधनों की गहमागहमी भी शुरू हो चुकी है। आंध्र प्रदेश में तेदेपा और बीजेपी गठबंधन का गठबंधन टूटने के बाद कुछ नए गठजोड़ों की आहट मिल रही है।  


इस वक्त एक नहीं दो तरह के विरोधी-मोर्चों की बात हो रही है। एक कांग्रेस-नीत मोर्चा और दूसरा गैर-कांग्रेस-नीत मोर्चा। कुछ दल फिर भी इन दोनों एकताओं के बाहर रहेंगे। इसकी वजह कोई साजिश नहीं है, बल्कि इतने बड़े देश में इतने किस्म की राजनीतिक है कि उसे दो या तीन धागों में बाँध पाना काफी मुश्किल काम है। अतीत में जब कांग्रेस पार्टी एकमात्र सत्ताधारी पार्टी हुआ करती थी, तब वह अपने आप में अनेक विचारधाराओं का मोर्चा हुआ करती थी। एक सत्ताधारी मोर्चे की परिकल्पना और उसके खिलाफ एक विरोधी मोर्चा फिलहाल कवि की कल्पना या मरीचिका जैसा लगता है।

विरोधी-ध्रुवीकरण का पहला संकेत मिला है उत्तर प्रदेश से। लोकसभा की दो सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बसपा ने सपा को समर्थन देने की घोषणा की है। इसे उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी महागठबंधन का आगाज़ नहीं मान लेना चाहिए। सोनिया गांधी ने 13 मार्च को विरोधी दलों के नेताओं को रात्रि-भोज पर बुलाया है। दूसरी तरफ हैदराबाद में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों से अलग रहते हुए एक राजनीतिक मोर्चे का ऐलान कर दिया है, जिसका ममता बनर्जी ने समर्थन किया है। इसमें शिवसेना, आम आदमी पार्टी और डीएमके तक के शामिल होने का कयास है। बीजू जनता दल को भी इस मोर्चे में खींचने की कोशिशें हो रही हैं।

सोनिया की बैठक से जुड़े कुछ सवाल हैं। क्या इसमें ममता बनर्जी आएंगी? क्या मायावती की शिरकत इसमें होगी?  क्या दो की जगह एक ही मोर्चा बन सकता है? लोकसभा चुनाव के लिए मायावती ने अपने पत्ते अभी छिपाकर रखे हैं। कांग्रेस ने पिछले साल समाजवादी पार्टी के साथ जो गठबंधन किया था उसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। बसपा के शामिल हुए बगैर सफलता नहीं मिलेगी। क्या ये दोनों दल कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बना सकते हैं? बसपा अभी तक कांग्रेस के नेतृत्व में तैयार हो रहे राष्ट्रीय गठबंधन से दूर है। पिछले दिनों सोनिया गांधी ने 17 विरोधी दलो की जो एकता-बैठक बुलाई थी, उसमें भी बसपा की भागीदारी नहीं थी।

कांग्रेस ने गुजरात चुनाव के दौरान जिग्नेश मेवाणी को दलितों के राष्ट्रीय नेता के रूप में उभारने की कोशिश की थी। यह बात मायावती को पसंद आने वाली नहीं थी। बसपा ने कर्नाटक-विधानसभा चुनाव में जेडी(एस) के साथ गठबंधन का फैसला किया है। वह गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन बनाने पर जोर दे रही है। इस लिहाज से वह के चंद्रशेखर राव के गठबंधन के करीब नजर आती है, पर भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

केन्द्र में बीजेपी को रोकने की कोशिशों में सीपीएम के नेतृत्व का एक धड़ा कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का पक्षधर रहा है। पार्टी के भीतर यह बहस करीब तीन दशक पुरानी है कि कांग्रेस का साथ दिया जाए या नहीं। हाल में खबर थी कि कांग्रेस पार्टी ने सीताराम येचुरी को राज्यसभा का सदस्य बनाने में मदद करने की पेशकश की है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस दुविधा में है। पिछले विधानसभा चुनाव में उसने वाममोर्चा के साथ मिलकर लड़ा था, जिसका कोई लाभ नहीं मिला। कांग्रेस के भीतर एक तबका है, जो तृणमूल के साथ जाने के पक्ष में है। पर तृणमूल कांग्रेस चंद्रशेखर राव के फ्रंट के साथ खड़ी नजर आ रही है। कांग्रेस मानती है कि इस मोर्चे के पीछे बीजेपी का हाथ है। देखना यह भी होगा कि शरद पवार इस मोर्चे के साथ जाएंगे या कांग्रेस के साथ

अप्रैल और मई में खाली होने वाली राज्यसभा की 58 सीटों के चुनाव 23 मार्च को होंगे। इन चुनावों में विरोधी दलों की रणनीति से भी कुछ बातें साफ होंगी। उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के 31 में से 9 सदस्यों का कार्यकाल आगामी 2 अप्रैल को खत्म हो रहा है। पिछले साल जुलाई में मायावती ने अपनी सीट छोड़ दी थी। इस प्रकार 10 नए प्रतिनिधि चुनकर जाएंगे। जिन 9 की सदस्यता खत्म हो रही है, उनमें छह सपा के, एक-एक सदस्य भाजपा, बसपा और कांग्रेस के हैं। इनमें से 8 सीटों पर बीजेपी को जीत मिल जाएगी। सपा के पास विधानसभा में 47 सदस्य हैं, जो उसे एक सीट दिला देंगे।

विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो वे एक सीट और जीत सकते हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में विपक्षी एकता कायम हो सके तो एक सीट विरोधी दलों को मिल सकती है। वहाँ से राज्यसभा की चार सीटें आसानी से तृणमूल को मिल जाएंगी। यदि विरोधी दल अपने अलग-अलग प्रत्याशी खड़े करेंगे तो पाँचवीं सीट भी तृणमूल के खाते में जाएगी। सम्भव यह भी है कि तृणमूल एक सीट कांग्रेस को दिलवा दे।

उधर बीजेपी के सहयोगी भी बदल रहे हैं। तेदेपा ने अचानक साथ छोड़ने का फैसला किया है। केंद्र सरकार में शामिल तेदेपा के दोनों मंत्रियों के इस्तीफों के साथ आंध्र में बदलती राजनीति का एक नया दौर शुरू हो गया है। आंध्र और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव भी अगले लोकसभा चुनावों के साथ होने हैं। इसका मतलब है कि आंध्र और तेलंगाना में नए ध्रुवीकरण होंगे। बीजेपी ने शायद इसी अंदेशे में वाईएसआर कांग्रेस के साथ सम्पर्क तोड़ा नहीं है। महाराष्ट्र में अबकी बार शिवसेना उसके साथ नहीं है। पंजाब में अकाली दल के साथ भी रिश्तों में खटास आ रही है।

तेदेपा के बदलते रुख को देखकर कांग्रेस ने उसकी तरफ अनायास ही हाथ नहीं बढ़ाया है। 6 मार्च को दिल्ली में तेदेपा के विरोध प्रदर्शन में राहुल गांधी खुद पहुँच गए। उन्होंने न केवल आंध्र के लिए विशेष पैकेज का समर्थन किया, बल्कि कहा कि कांग्रेस सत्ता में आई तो हम पैकेज देंगे। सोनिया गांधी के रात्रि भोज में अब तेदेपा भी शामिल होगी। कांग्रेस ने 2004 के पहले के चंद्रशेखर राव को इसी तरह तेलंगाना बनाने का आश्वासन दिया था, जो बाद में उसके गले की हड्डी बना।

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