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Monday, March 12, 2018

पूर्वोत्तर की जीत से बढ़ा बीजेपी का दबदबा

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनाव में बीजेपी को आशातीत सफलता मिली है। उसका उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है, पर कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए इसमें एक संदेश भी छिपा है। उनका मजबूत आधार छिना है। खासतौर से वाममोर्चे के अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। बीजेपी ने तकरीबन शून्य से शुरूआत करके अपनी मजबूत स्थिति बनाई है। कांग्रेस और वामपंथ के पास जनाधार था। वह क्यों छिना? उन्हें जनता के बीच जाकर उसकी आकांक्षाओं और अपनी खामियों को समझना चाहिए। बीजेपी हिन्दुत्व वादी पार्टी है। वह ऐसे इलाके में सफल हो गई, जहाँ के वोटरों में बड़ी संख्या अल्पसंख्यकों और जनजातियों की थी।  

पूर्वोत्तर के राज्यों का उस तरह का राजनीतिक महत्व नहीं है, जैसा उत्तर प्रदेश या बिहार का है। यहाँ के सातों राज्यों से कुल जमा लोकसभा की 24 सीटें हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 14 सीटें असम की हैं। इन सात के अलावा सिक्किम को भी शामिल कर लें तो इन आठ राज्यों में कुल 25 सीटें हैं। बावजूद इसके इस इलाके का प्रतीकात्मक महत्व है। यह इलाका बीजेपी को उत्तर भारत की पार्टी के बजाय सारे भारत की पार्टी साबित करने का काम करता है।

बीजेपी अपनी राष्ट्रीय पहुँच बनाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांगठनिक आधार का सहारा मिलता है। यह संगठन सुदूर इलाकों में काम आ रहा है। अब कर्नाटक विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी का कार्यकर्ता वहाँ ज्यादा उत्साह के साथ काम करेगा। आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर संदेह है कि वे समय से होंगे या पहले होंगे। कर्नाटक में कांग्रेस जीती तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की एंटी इनकम्बैंसी बीजेपी पर भारी पड़ेगी। पर यदि बीजेपी कर्नाटक में जीती तो सम्भव है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं।

इस चुनाव की दूसरी खास बात यह है पूर्वोत्तर में बीजेपी ने कांग्रेस के संगठन, कार्यकर्ताओं और नेताओं को अपने पक्ष में तोड़ा। पूर्वोत्तर का पूरा इलाका अविकसित और देश से कटा हुआ है। उसे विकास के रास्ते पर ले जाने और देश के साथ जोड़ने की जिम्मेदारी नई सरकारों की है। मोदी सरकार दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ सम्पर्क बढ़ा रही है। कई नए राजमार्गों की योजनाएं बनाई जा रहीं हैं, जो म्यांमार, वियतनाम और कम्बोडिया तक से भारत को जोड़ेंगे। ये रास्ते यहाँ से ही गुजरेंगे। इस लिहाज से पूर्वोत्तर की भूमिका बढ़ने वाली है।

सुदूर अंचल में बीजेपी

मेघालय और नगालैंड ईसाई बहुल राज्य हैं। वहाँ बीजेपी के हिन्दुत्व की भूमिका नहीं थी, पर त्रिपुरा में थी। पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को त्रिपुरा में प्रचार के लिए भेजा। यहाँ नाथ संप्रदाय के लोगों की बड़ी आबादी है। योगी का असर हुआ। पूर्वोत्तर की जनता बीफ का सेवन करती है। बीजेपी ने इस इलाके में इसे मुद्दा नहीं बनने दिया। बल्कि उसने पूर्वोत्तर के लोगों को बताने की कोशिश की कि हम आपकी आदतों और परंपराओं का सम्मान करते हैं।

पूर्वोत्तर के सात में तीन राज्यों में बीजेपी ने अपनी उपस्थिति पहले से बना ली थी। शेष चार में से तीन राज्यों में अब उसने जगह बनाई है। इस साल के अंत में मिजोरम में चुनाव और होने हैं। फिलहाल उसने अपनी सफलताओं से ऐसा मैग्नेट तैयार कर लिया है, जो स्थानीय राजनीति को अपनी तरफ खींचेगा। उसकी इस सफलता का काफी श्रेय सन 2016 के असम विधानसभा चुनाव में मिली सफलता को जाता है। इस सफलता ने उसके लिए पूर्वोत्तर का दरवाजा खोला था।

जाहिर है कि इस चुनाव को जितनी गम्भीरता से बीजेपी ने लिया उतनी गम्भीरता से कांग्रेस ने नहीं लिया। तीनों राज्यों में नरेन्द्र मोदी की रैलियाँ हुईं और पार्टी के तमाम बड़े नेता यहाँ आए। बीजेपी ने पहले से माहौल इस तरह का बना दिया था कि उसे भारी जीत मिलने वाली है और वह जीत मिली भी। सुनील देवधर त्रिपुरा में प्रभारी बनाकर भेजे गए। राम माधव को पूर्वोत्तर का प्रभारी बनाया गया। हिमंत बिस्वा सरमा पहले से पूर्वोत्तर में बीजेपी की जड़ें जमाने में लगे हैं। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू पूर्वोत्तर से ताल्लुक रखते हैं और यहाँ लगातार सक्रिय रहे हैं।

नेडा बना विस्तार का आधार

पूर्वोत्तर को लेकर बीजेपी ने अपनी अभिलाषाओं को कभी छिपाया नहीं। पार्टी ने अपनी दीर्घकालीन रणनीति के तहत नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) का गठन किया, जिसमें अब पूर्वोत्तर के 15 दल शामिल हैं। इन दलों की संख्या बढ़ ही रही है। हालांकि पार्टी इसे राजनीतिक गठजोड़ नहीं कहती,  और इस इलाके के विकास से जुड़ा गठबंधन मानती है। पर इसमें कांग्रेस शामिल नहीं है। उसकी दिलचस्पी पहले कांग्रेस की जड़ें काटने में है।

पिछले दो साल में ही नेडा ने तकरीबन पूरे पूर्वांचल को अपने दायरे में ले लिया है। पूर्वोत्तर की राजनीति में तमाम स्थानीय तत्व महत्वपूर्ण होते हैं। लम्बे अरसे तक मुख्यधारा की राजनीति में पूर्वोत्तर की चर्चा नहीं होती थी। देखना होगा कि बीजेपी की राजनीति में शामिल होने का लाभ पूर्वोत्तर को मिल पाएगा या नहीं। इस बार के चुनावों में बीजेपी ने नगालैंड पीपुल्स फ्रंट का साथ छोड़कर नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई है।

वामपंथ का ध्वंस

मेघालय में भी बीजेपी का गठबंधन सत्ता में आया है, पर सबसे बड़ी सफलता उसे त्रिपुरा में मिली है। त्रिपुरा में बीजेपी को 35 और उसके सहयोगी दल इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट को 8 सीटें मिलीं और इस गठबंधन ने वाममोर्चे के 25 साल पुराने वर्चस्व को खत्म कर दिया। वाममोर्चे के अलावा राज्य में कांग्रेस पार्टी की हैसियत भी शून्य हो गई। त्रिपुरा में 1993 से सीपीएम की सरकार चली आ रही थी। सीपीएम के मुख्यमंत्री माणिक सरकार की छवि बेहद ईमानदार राजनेता की है, फिर भी उनकी सरकार बुरी तरह हार गई। इसकी एक बड़ी वजह यह बताई जाती है कि सरकार में नीचे के स्तर पर काफी भ्रष्टाचार था। वामपंथी कार्यकर्ताओं की मनमानी भी चरम पर थी।

केन्द्र में भले ही कांग्रेस की सरकार रही हो या बीजेपी की, वामपंथी त्रिपुरा सरकार केन्द्र के साथ अपने रिश्ते बेहतर नहीं बना पाई, जिसके कारण उसके सामने संसाधनों की तंगी हमेशा बनी रही। इस इलाके में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काफी अरसे से जनजातियों के बीच सघन काम कर रहा था। इस राज्य में बाहर से आए बंगालियों और स्थानीय आदिवासियों में टकराव की स्थिति बनी रहती है। इस चुनाव में बीजेपी ने जनजातीय संगठन आईपीएफटी के साथ गठबंधन किया था। इस गठबंधन की वजह से बीजेपी को त्रिपुरा में आदिवासियों तक पहुंचने में कामयाबी मिली।

बीजेपी के वायदे

आदिवासियों की जनसंख्या त्रिपुरा में 31 फीसदी है। बेरोजगारी यहाँ की बड़ी समस्या है। राज्य की शैक्षिक दर तो ऊंची है, लेकिन शहरी इलाकों में बेरोज़गारी का प्रतिशत 17 फ़ीसदी है। बीजेपी ने आदिवासियों के लिए बांस आधारित विशेष आर्थिक जोन, टेक्सटाइल, फूड प्रोसेसिंग जैसे यूनिट लगाने का वादा किया है। इसके अलावा बीजेपी ने इन राज्यों के लिए ऑटोनॉमस स्टेट काउंसिल गठन करने का वादा किया। इस काउंसिल को केन्द्र से मिले फंड तक पहुंच होगी। पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस लगातार  कमजोर होती जा रही है। बीजेपी में कांग्रेस के ही नेता टूटकर आए और उन्होंने वाममोर्चे को पराजित करने के गुरों से बीजेपी को परिचित कराया। कमोबेश यही कहानी नगालैंड और मेघालय की है।

त्रिपुरा की भौगोलिक स्थिति भी उसकी बड़ी समस्या है। वहाँ हर तरह का पूँजी निवेश सम्भव नहीं है। वामपंथी सरकारों के कारण उद्योगपतियों के मन में यों भी अंदेशा रहता है। वे वामपंथी राज्यों में पूँजी लगाने से बचते हैं। राज्य में बिप्लव कुमार देब नए मुख्यमंत्री के रूप में आए हैं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती राज्य में पूँजी निवेश को आकर्षित करने की होगी ताकि नए रोजगार राज्य में आ सकें। पिछले 25 साल में वामपंथी सरकारों ने राज्य में मानव-विकास से जुड़े अच्छे काम भी किए हैं। राज्य का साक्षरता प्रतिशत बेहतरीन है और महिला-कामगारों की संख्या अच्छी है। एक दौर में यहाँ आदिवासी हिंसा की घटनाएं आम थीं, पर अब यह समस्या नहीं है। राज्य में रबर की कैश-क्रॉप होती है, जिसके आधार पर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाया जा सकता है। राज्य को परिवहन से तेज साधनों से जोड़ने की जरूरत भी है।

मेघालय में कोनराड संगमा ने नए मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के बेटे कोनराड युवा और लोकप्रिय हैं। मेघालय भी ऐसा राज्य रहा है, जहाँ लम्बे अरसे तक अशांति रही, पर पिछले एक दशक से यह राज्य शांत है। यहाँ बीजेपी को केवल दो सीटें ही मिली हैं। इसे भी बड़ी सफलता कहा जाएगा, क्योंकि यह उसकी शुरुआत है। बीजेपी को भी पूर्वोत्तर के साथ सांस्कृतिक रूप से भी जुड़ना है।

पूर्वोत्तर की यह विजय उसे देश के अल्पसंख्यकों के साथ जुड़ने का मौका भी देगी और कोनराड संगमा को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने का मौका भी देगी। नगालैंड में एनडीए की सरकार थी लेकिन उसमें बीजेपी का दबाव कम था। इस बार बीजेपी की स्थिति सुधरी है। इसके सहारे वह अपनी राजनीतिक स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करेगी। नगालैंड में अलगाववादी आंदोलन तेज है, पर जिस तरह बीजेपी ने क्षेत्रीय दलों के चुनाव-बहिष्कार को विफल करके चुनाव को सफल बनाने में भूमिका अदा की उसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती।

चिंताएं और विकल्प

वामपंथी लेखक प्रभात पटनायक ने लिखा है कि वामपंथ हाशिए पर जा रहा है। उसे सेक्युलर और लोकतांत्रिक ताकतों को एकत्र करना चाहिए। उनके अनुसार त्रिपुरा के चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। एक, किसी भी राज्य में यदि विरोधी दल सत्तारूढ़ है तो उसके सामने भारतीय जनता पार्टी के आक्रमण का सामना करना काफी मुश्किल होगा। दूसरा निष्कर्ष यह है कि ज्यादातर सभी राज्यों में अब बीजेपी और गैर-बीजेपी दलों का ध्रुवीकरण होता जा रहा है। पंजाब में आम आदमी पार्टी, ओडिशा में और अब त्रिपुरा में कांग्रेस की गति बता रही है कि जो पार्टियाँ मुख्यतः भाजपा-विरोधी के रूप में पहचानी जा रहीं थीं, वे अब हाशिए पर जा रहीं हैं। यानी कि बीजेपी विरोधी पार्टियाँ किसी एक उस दल को समर्थन देंगी, जो बीजेपी का सामना कर सके। इस तरह बीजेपी विपक्ष-मुक्त भारत की स्थापना की दिशा में अग्रसर है, जिससे उसके हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के स्वप्न पूरे हो सकें।

संयोग से राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी दलों के मोर्चे की बातें फिर सुनाई पड़ने लगीं हैं। 13 मार्च को सोनिया गांधी ने विरोधी दलों को रात्रि-भोज में बुलाया है। उधर हैदराबाद में टीआरएस के नेता के चंद्रशेखर राव ने एक और मोर्चे की पेशकश कर दी है। फिलहाल यह इस वैकल्पिक राजनीति की परीक्षा की भी घड़ी है। 
हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित

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