कांग्रेस
पार्टी जीएसटी को लेकर संविधान संशोधन लेकर कभी आई नहीं, पर सच यह भी है कि भारतीय
जनता पार्टी या गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने जीएसटी के विरोध
में स्वर उठाए थे। उनका कहना था कि जीएसटी की संरचना ऐसी है कि बिना आईटी
इंफ्रास्ट्रक्चर बनाए यह लागू नहीं हो सकता। यह भी सच है कि जीएसटी की परिकल्पना
सन 1999 में अटल बिहारी सरकार ने की थी। सन 2003 में केलकर समिति उसने ही बनाई थी।
बाद में यूपीए सरकार ने सन 2010 तक उसे लागू करने का बीड़ा उठाया, पर जीएसटी कमेटी
से असीम दासगुप्त के इस्तीफे के बाद वह काम रुक गया। मार्च 2011 में एक संविधान संशोधन पेश किया गया, जिसपर आगे विचार नहीं हुआ।
एनडीए
सरकार ने जब इस काम को शुरू किया तो कांग्रेस ने ना-नुकुर करना शुरू कर दिया। इससे
क्या निष्कर्ष निकाला जाए? यही कि व्यावहारिक-राजनीति
तमाम ऐसे कार्यों में अड़ंगा लगाती है, जो सामान्य हित से जुड़े होते हैं। एनडीए
को इस संविधान संशोधन को पास कराने और लागू कराने का श्रेय जाता है। इसके लिए
कांग्रेस तथा दूसरे दलों को मनाने का श्रेय भी उसे जाता है। जीएसटी कौंसिल के रूप
में एक संघीय व्यवस्था कायम करने का भी।
जीएसटी अभी लागू होना चाहिए था या नहीं? उसके लिए पर्याप्त तैयारी है या नहीं? क्या इसबार भी नोटबंदी जैसी अफरा-तफरी होगी? ऐसे तमाम सवाल हवा में हैं। जो लोग इस वक्त
यह सवाल कर रहे हैं उन्हें पिछले साल 16 सितम्बर को संसद से संविधान संशोधन पास
होते वक्त यह सवाल करना चाहिए था। संविधान संशोधन के अनुसार एक साल के भीतर जीएसटी
को लागू होना है। यानी 16 सितम्बर तक उसे लागू करना ही है। अब इस सवाल को बीजेपी
या कांग्रेस के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। देश के नागरिक होने के नाते हमें उस
प्रवृत्ति को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए, जिसे बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने
मौका आने पर अपनाया है। इस वक्त भी ‘तमाशा’ हुआ है तो दोनों और से हुआ है।
कांग्रेस को जीएसटी समारोह पर आपत्ति है। पर समारोह हो
ही गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। जब संविधान संशोधन पास कराने में उसकी भूमिका
थी, तो इस समारोह के वक्त वह भी इस सहयोग का श्रेय ले सकती थी। अंततः यह कानून
भारत का है, बीजेपी का नहीं। इस मामले को देश की स्वतंत्रता से जोड़ने की कोशिश
निहायत बचकाना है। देश को आजादी एक वृहत आंदोलन और बदलती ऐतिहासिक स्थितियों के
कारण मिली है। कांग्रेस के भीतर भी कई प्रकार की धारणाएं थीं। वही कांग्रेस आज
नहीं है। सन 1969 के बाद कांग्रेस बुनियादी रूप से बदल चुकी है। देश के राजनीतिक
दलों के स्वरूप और भूमिका को लेकर यहाँ बहस करने का कोई मतलब नहीं है। इस वक्त जो
सरकार है, वह देश की प्रतिनिधि सरकार है। जीएसटी कानून एक सांविधानिक प्रक्रिया से
गुजर कर आया है। बेहतर हो कि संसद के भीतर और बाहर उसे लेकर बहस करें।
अंततः
शुक्रवार आधी रात 12 बजे (1 जुलाई) से जीएसटी कानून देशभर में लागू हो गया। संसद
के केंद्रीय कक्ष में हुई विशेष बैठक में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि यह ऐतिहासिक
क्षण है और कराधान के क्षेत्र में एक नया युग है, जो केंद्र एवं राज्यों के बीच
बनी व्यापक सहमति का परिणाम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि राष्ट्र-निर्माण
में कुछ ऐसे पल आते हैं, जब हम किसी नए मोड़ पर जाते हैं, नए मुकाम की ओर पहुंचने का प्रयास करते हैं। यह
मध्यरात्रि ऐसा ही मौका थी।
भारत
जैसे विशाल देश में अप्रत्यक्ष कर से जुड़ा इस किस्म का कानून बनाना और उसे लागू
करना बहुत बड़ी चुनौती है। पर इसकी हमें जरूरत थी। दुनिया के 165 देशों में इस
किस्म का कानून है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है, इसका संघीय स्वरूप। जीएसटी कौंसिल
अपने किस्म की अनोखी संस्था है, जिसमें राज्य और केंद्र मिलकर फैसला करते हैं। सन
1991 के बाद से शुरू हुई आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में यह अब तक का सबसे बड़ा
सुधार है। माना जा रहा है कि यह व्यवस्था टैक्स प्रणाली को सरल और पारदर्शी बनाने
के अलावा टैक्स चोरी को भी रोकेगी, क्योंकि अब ज्यादा से ज्यादा उत्पाद, सेवाएं और
व्यापार डिजिटल प्रणाली में शामिल हो जाएगा। अब उसे छिपाया नहीं जा सकेगा।
इसे
लागू करने में दिक्कतें भी होंगी, पर एकबार को व्यवस्था सुचारु हुई तो
अर्थ-व्यवस्था को फायदा भी काफी होगा। राजस्व में बढ़ोत्तरी होगी, निर्माण कार्य
बेहतर होंगे, स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा-व्यवस्था तथा अन्य सामाजिक कल्याण के
कार्यक्रमों के लिए साधन उपलब्ध होंगे। इससे रोजगार भी बढ़ेंगे। उम्मीद है कि
अर्थ-व्यवस्था में दो फीसदी तक की संवृद्धि भी होगी। जो भी होगा वह चमत्कार से कम
नहीं होगा। भारत जैसे देश में जहाँ की संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय राजनीति में
जबर्दस्त विविधता है, वहाँ ऐसी व्यवस्था की कल्पना करना ही मुश्किल था। पर इसके
लागू हो जाने भर से सारे काम पूरे नहीं हो गए।
असली
चुनौती है इसे सफलता के साथ चलाने की। पर उससे बड़ी चुनौती है देश की राजनीतिक
सोच-समझ को ढर्रे पर लाने की। पर क्या हमारा राजनीतिक सोच सही रास्ते पर है? जीएसटी के संदर्भ में यह सोच सामने आ गया। जीएसटी समारोह का कुछ
विपक्षी दलों ने बहिष्कार करके अपने इरादों को साफ जाहिर कर दिया। उनके विरोध का
मूल स्वर यह है कि इस कानून का सारा श्रेय केंद्र सरकार ले रही है। इसे जिस तरह का
जश्न मनाकर लागू किया जा रहा है, वह भी विपक्ष को पसंद नहीं आया।
कांग्रेस
के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस कार्यक्रम को 'तमाशा' कहा है। विदेश में छुट्टियां मना रहे राहुल ने अपने
ट्वीट में लिखा, ‘एक सुधार जिसमें अपार संभावनाएं थीं, आधे अधूरे ढंग से अपना प्रचार करने की कवायद के
रूप में पेश किया जा रहा है.. जीएसटी तमाशा।’ पार्टी के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि इसके
पहले सेंट्रल हॉल में मध्यरात्रि को केवल तीन समारोह हुए हैं। पहला 15 अगस्त 1947
को, दूसरा स्वतंत्रता की 25वीं वर्षगाँठ पर 1972 में और 50वीं वर्षगाँठ पर 1997
में। उनके अनुसार जीएसटी एक टैक्स कानून है। उसे लागू करने के लिए सेंट्रल हॉल में
विशेष समारोह करने से देश के स्वतंत्रता आंदोलन की स्मृतियों का अपमान होता है।
पार्टी ने यह भी कहा कि बीजेपी के लिए 1947, 1972 और 1997 का कोई महत्व नहीं,
क्योंकि देश की आजादी हासिल करने में उसकी कोई भूमिका नहीं है।
इस
कार्यक्रम के लिए दो पूर्व प्रधानमंत्रियों एचडी देवेगौडा और डॉ मनमोहन सिंह को
विशेष अतिथि के रूप में निमंत्रित किया गया था। पार्टी ने फैसला किया कि मनमोहन
सिंह इस समारोह में नहीं जाएंगे। कांग्रेस के अलावा समारोह का बहिष्कार करने वाली
पार्टियों में वाममोर्चा के चार दल, तृणमूल कांग्रेस, राजद और आम आदमी पार्टी के
नाम उल्लेखनीय हैं। राकांपा और समाजवादी पार्टी ने इस समारोह में शिरकत की।
इस
कार्यक्रम का बहिष्कार एक तरह से 2019 के चुनाव की भूमिका है। बेहतर होता कि इसे
सड़क-छाप राजनीति से परे रखकर राष्ट्रीय एकता की भावना से देखा जाता। यह कानून
संसद के दोनों सदनों में सर्वानुमति से पास हुआ है। जीएसटी कौंसिल की बैठकों के
फैसले सर्वानुमति से हुए हैं। इन फैसलों में कांग्रेस-शासित राज्यों के प्रतिनिधि
भी शामिल रहे हैं। पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने टैक्स की कई दरों को लेकर
आलोचना की है, पर कांग्रेसी राज्यों ने इस किस्म की कोई बात जीएसटी कौंसिल में
नहीं रखी। यह पहला कदम है। अगला कदम इसे एक टैक्स की शक्ल देने का होगा।
नोटबंदी
की तरह ममता बनर्जी ने जीएसटी को लेकर भी टकराव की मुद्रा अपनाई है। पश्चिम बंगाल
विधानसभा ने जीएसटी कानून को स्वीकृति नहीं दी है। चूंकि देश की 50 प्रतिशत से
ज्यादा विधानसभाओं ने इसे स्वीकार कर लिया है, इसलिए कानून लागू हो गया। देखना
होगा कि बंगाल में इस कानून का अनुपालन किस प्रकार होगा। यही स्थिति जम्मू-कश्मीर
में है, जहाँ अनुच्छेद 370 के कारण अलग से व्यवस्थाएं करनी होंगी। कश्मीर का मामला
सुलझ जाएगा, पर बंगाल में व्यापारियों और उपभोक्ताओं दोनों को दिक्कतें होंगी। और
फिलहाल डबल टैक्स देना होगा। इसका लाभ किसे मिला? क्या इस अफरा-तफरी से तृणमूल को राजनीतिक लाभ मिलेगा?
रोचक
तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा सन 2016 में जीएसटी से
सम्बद्ध राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति के अध्यक्ष थे। जीएसटी के लेकर
राज्यों की आमराय बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। बंगाल सरकार की माँग है कि
जीएसटी को लागू करने में कुछ और समय लिया जाना चाहिए। पिछले साल 16 सितम्बर को जब
संसद से संविधान संशोधन पास हुआ था, तब उसमें उपबंध था कि यह कानून एक साल में
लागू हो जाएगा। यानी 16 सितम्बर 2017 तक इसे लागू होना ही है।
हालांकि
यह कानून लागू हो गया है, पर पहले दो महीने इसमें हर तरह की छूट रहेगी, ताकि जो
जटिलताएं और दिक्कतें हैं, वे सामने आ जाएं। सब मानते हैं कि इसमें जटिलताएं होंगी
ही। उनका निराकरण तभी हो पाएगा, जब वे सामने आएंगी। पहले से तमाम अनुमान लगाने के
बावजूद कहीं न कहीं कमी रहेगी। उसके लिए पूरी व्यवस्था तैयार है। यह केंद्र सरकार
की व्यवस्था नहीं है। इसे केंद्र और राज्यों की सरकारों ने मिलकर विकसित किया है। सच्चे
माने में यह राष्ट्रीय व्यवस्था है।
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