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Thursday, June 29, 2017

मोदी के इसी बयान का था इंतजार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गो-भक्ति के नाम पर हो रही हत्याओं पर बयान देने में कुछ देर की है. उन्होंने कहा है कि गो-रक्षा के नाम पर हिंसा बर्दाश्त नहीं की जा सकती. उनके इस बयान का पिछले कुछ समय से इंतजार था. खासतौर से दिल्ली के पास बल्लभगढ़ में एक किशोर जुनैद की हत्या के बाद देश का नागरिक समाज गो-रक्षा के नाम पर हिंसा फैलाने वालों से नाराज है.

ऐसा नहीं कि अतीत में प्रधानमंत्री इस विषय पर कुछ बोले नहीं हैं. उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक की हत्या से लेकर गुजरात के उना में दलितों की पिटाई तक की उन्होंने आलोचना की. पर अब जरूरत इस बात की है कि वे अपनी बात को कड़ाई से कहें और गो-रक्षा के नाम पर बढ़ती जा रही अराजकता को रुकवाएं. अन्यथा यह घटनाक्रम राजनीतिक रूप से नुकसानदेह साबित होगा.


प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के एक दिन पहले इस हिंसा के खिलाफ नागरिक समाज की नाराजगी देशव्यापी अभियान के रूप में सामने आई है. जरूरत इस बात की है कि प्रधानमंत्री इस अभियान की भावना से सहमत होकर देश को आश्वस्त करें कि वे ऐसा चलने नहीं देंगे. प्रशासनिक से ज्यादा यह राजनीतिक संदेश होगा.  

ऐसा नहीं कि हमारे यहाँ ऐसी बर्बरता नई बात है. मामूली बात पर हिंसा और खून-खराबे के तमाम मामले पिछले 70 साल में गुजरे हैं. देश के पूर्वी इलाकों में स्त्रियों को डायन बताकर मारने की खबरें अक्सर आती रहती हैं. मामूली चोरों की पिटाई के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते हैं. पर पिछले दिनों झारखंड में बच्चा चोरी के अंदेशे में हुई हत्याओं के वीडियो ने लोगों के दिलों को दहला दिया.

वह हत्याकांड काउ-विजिलांट का काम नहीं था. पर पहली जन-प्रतिक्रिया गो-भक्तों के खिलाफ थी. एक तरह से यह माहौल बन गया है. इसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. ऐसा माहौल बनाने के पीछे राजनीतिक ताकतें भी हैं.

ज्यादातर मामलों के पीछे कुछ अफवाहें होती हैं, जिन्हें फैलाने वाले समूहों की दिलचस्पी राजनीति में भी हो सकती है. भाजपा-शासित राज्यों में इसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. यदि यह राजनीतिक गतिविधि है तो उसका सामना भी प्रधानमंत्री को ही करना है.

मीडिया की अतिशय सक्रियता भी सच सामने आने से रोकती है. या तोड़-मरोड़कर पेश करती है. जबतक बातें साफ हों, बहुत देर हो जाती है. गो-रक्षा के नाम पर हिंसा की खबरें उत्तर भारत के राज्यों से आ रही हैं. उधर केरल और बंगाल से भी हिंसा की खबरें हैं. वहाँ राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों की हत्याएं हो रहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में अखलाक की हत्या के कुछ समय पहले एक पत्रकार को जिन्दा जलाकर मार डाला गया था. उसकी खबर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित नहीं हुई. 

गो-भक्ति के नाम पर हिंसा का राजनीतिक आयाम है. उत्तर प्रदेश में जबसे सत्ता परिवर्तन हुआ है, हिंसा की खबरें आ रहीं हैं. सत्ता परिवर्तन के बाद अक्सर ऐसा होता है. बेहतर प्रशासन और जनता की समस्याओं के समाधान के साथ माहौल शांत हो जाता है.

सच यह है कि सन 2014 में मोदी सरकार हिन्दुत्व के नारे पर जीतकर नहीं आई. वह विकास के नारे पर जीती थी. पर पिछले तीन साल में कई तरह की वाहिनियों, सेनाओं और दलों की उद्दंडता की खबरें भी सामने आईं हैं. मोदी सरकार को जिताने वाला वर्ग ऐसी हिंसा और असहिष्णुता का पक्षधर नहीं है. नरेंद्र मोदी ने खुद भी इन प्रवृत्तियों की निंदा की है.

पिछले साल उना में दलितों की पिटाई पर सवाल पर उन्होंने कहा था, जहां तक कुछ घटनाओं का सवाल है तो उनकी निंदा होनी चाहिए. सभ्य समाज में इस तरह की घटनाओं के लिए कोई जगह नहीं है. साथ में उन्होंने यह भी कहा था कि इस तरह की हिंसा को रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, क्योंकि कानून व्यवस्था राज्य का विषय है.

मोदी सरकार ने अपने जनाधार का विस्तार करने की कोशिश की है. उसने कांग्रेस के तीन महत्वपूर्ण नेताओं में से जिन दो को अंगीकार किया है वे हैं महात्मा गांधी और सरदार पटेल. मोदी व्यक्तिगत रूप से पटेल से प्रभावित हैं. सरदार पटेल कानून के शासन और सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार की नीति पर चलते थे. सरदार पटेल ने पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रहने वाले मुसलमानों की भावनाओं को ठेस न पहुँचाने की सलाह दी थी.

मोदी ने भी अपनी छवि ऐसी ही बनाने कोशिश की है. संभव है इस वजह से उन्हें भीतरी विरोध का सामना भी करना पड़े. नवम्बर 2008 में गुजरात में मोदी की सरकार ने अदालत के एक आदेश पर 90 से ज्यादा मंदिरों को गिराया तो विश्व हिन्दू परिषद ने उनके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था. मोदी को बाबर और औरंगजेब की उपाधि भी मिली.
फर्स्टपोस्ट पर प्रकाशित

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