वैश्वीकरण भ्रामक शब्द है. प्राकृतिक रूप से दुनिया एक है, पर हजारों साल के राजनीतिक विकास के कारण हमने सीमा रेखाएं तैयार कर ली हैं. ये रेखाएं राजनीतिक सत्ता और व्यापार के कारण बनी थीं. बाजार का विकास बगैर व्यापार के सम्भव नहीं था. दुनिया का कोई भी देश अपनी सारी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता. राजनीतिक सीमा रेखाओं को पार करके जैसे ही व्यापारियों ने बाहर जाना शुरू किया, कानूनी बंदिशों ने शक्ल लेनी शुरू कर दी. जिस देश से व्यापारी बाहर जाता है, वहाँ की बंदिशें है, जिस देश से होकर गुजरेगा, वहाँ के बंधन हैं और जहाँ माल बेचेगा वहाँ की सीमाएं हैं. व्यापार केवल माल का ही नहीं होता. सेवाओं, पूँजी, मानव संसाधन और बौद्धिक सम्पदा का भी होता है.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया ने इन सवालों पर सोचना शुरू किया और इन बातों को लेकर लम्बा विमर्श शुरू हुआ. सन 1947 में 23 देशों ने जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड (गैट) पर दस्तखत करके इस वैश्विक वार्ता की पहल की. यह वार्ता 14 अप्रैल 1994 को मोरक्को के मराकेश शहर में पूरी हुई. उसके पहले 1986 से लेकर 1994 गैट के अंतर्गत बहुपक्षीय व्यापार वार्ताएं चलीं, जो लैटिन अमेरिका के उरुग्वाय से शुरू हुईं थीं. इसमें 123 देशों ने हिस्सा लिया और उसके बाद जाकर विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई. पर वैश्वीकरण का काम इतने भर से पूरा नहीं हो गया. इसके बाद सन 2001 से दोहा राउंड शुरू हुआ, जिसे सन 2004 में पूरा हो जाना चाहिए था, और जो अब तक पूरा नहीं हो सका है. विश्व समुदाय कवियों की परिकल्पना है. मनुष्य अपने करीबी हितों को ज्यादा बड़े हित मानता है. वैश्विक हित सिद्धांततः अच्छे लगते हैं, व्यावहारिक रूप से वे आकर्षक नहीं होते. हमारे देश में जब नब्बे के दशक में वैश्वीकरण शब्द सुनाई पड़ा, तो सबसे पहले इसे पूँजीवादी देशों की साजिश के रूप में देखा गया. साजिश थी या नहीं, पर इसकी रूपरेखा विश्व बैंक, मुद्राकोष और अनुषंगी संस्थाओं ने ही बनाई थी. इस योजना के तहत दुनियाभर के देशों की अर्थ-व्यवस्थाओं में बदलाव आया, जिसे उदारीकरण या आर्थिक सुधार का नाम दिया गया. यह काम अभी चल ही रहा है, पर जिन देशों की पहल पर यह कार्यक्रम शुरू हुआ था, वहीं पर इसका विरोध होने लगा है.
भारत और चीन का उदय
वैश्वीकरण के इस दौर में ही चीनी अर्थ-व्यवस्था का विस्तार हुआ और भारत की अर्थ-व्यवस्था अब बढ़ रही है. हाल में अमेरिका और कुछ दूसरे देशों ने अपनी वीजा नीति में जो बदलाव किए हैं, उनकी पृष्ठभूमि में इस बात को समझना जरूरी है कि हाल के वर्षों में वहाँ बेरोजगारी बढ़ी है. कारखाने उठकर बाहरी देशों में चले गए हैं और बाहरी देशों से कम वेतन पर लोग काम करने के लिए इन देशों में आते जा रहे हैं. ये सारी वजहें थीं, जिनके कारण अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे की मदद से जीतकर आए.
हाल में उन्होंने एच1-बी वीजा की समीक्षा के आदेश दिए हैं. इसी तरह आस्ट्रेलिया ने वीजा प्रोग्राम (457 वीजा) को यह कहकर रद्द कर दिया है कि अब स्किल्ड जॉब्स में ‘आस्ट्रेलिया फर्स्ट’ की नीति चलेगी. यूरोप के तमाम देशों में इस बात की लहर है. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने का कारण भी यही है कि लोगों को लगता है कि अत्यधिक उदार होने की कीमत हमें देनी पड़ रही है.
एच1-बी वीजा भारतीय आईटी उद्योग व प्रतिभाओं के लिए वरदान साबित हुआ. हर साल करीब पैंसठ हजार एच1-बी वीजा जारी होते थे, जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा भारत के प्रशिक्षित कामगारों को मिलता था. सिद्धांततः यह वीजा यह मानकर दिया जाता है कि अमेरिका में आवश्यक टेलेंट की कमी है. पर धीरे-धीरे यह सस्ते कामगारों को लाने का जरिया बन गया. अमेरिकी राजनेताओं का आरोप है कि आईटी कंपनियां सस्ते कामगारों को वीजा दिलाकर अपना मुनाफा बढ़ा रहीं हैं और अमेरिकी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल रहीं हैं. मोटे तौर पर अमेरिका का 65 फीसदी आईटी कारोबार भारतीय कंपनियों पर निर्भर है.
ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड ने हाथ खींचा
अमेरिका के वीजा नियमों की बहस चल ही रही थी कि पिछले हफ्ते आस्ट्रेलिया ने अपना वीजा प्रोग्राम (457 वीजा) रद्द कर दिया. वहाँ की सरकार की कहना है कि अब स्किल्ड जॉब्स में ‘आस्ट्रेलिया फर्स्ट’ की नीति चलेगी. यहाँ भी इस काम में सबसे ज्यादा भारतीय लगे हैं. ऑस्ट्रेलिया के बाद न्यूजीलैंड ने इसी तरह की घोषणा की है. कोई आश्चर्य नहीं कि दूसरे विकसित देश भी ऐसी ही घोषणाएं करें. चूंकि इन फैसलों से हमारे देश के मध्यवर्ग से जुड़े लोग प्रभावित होंगे इसलिए हमें यह खबर बड़ी लगती है. तीनों देशों की घोषणाओं से लगता है कि वे उच्च विशेषज्ञता प्राप्त इंजीनियरों को वीजा देंगे.
विश्व व्यापार संगठन का एक उद्देश्य कामगारों के वैश्विक आवागमन को सुचारु बनाना भी है. अमेरिका पर भी इसकी जिम्मेदारी है. बहरहाल हमें अपनी विशेषज्ञता को बढ़ाने के बारे में भी सोचना चाहिए. यह भीख माँगना नहीं है. यदि हमारे इंजीनियर उपयोगी होंगे, तभी उनकी माँग होगी. दरअसल वैश्वीकरण के अंतर्विरोधों ने अब खुलना शुरू किया है. और लगता है कि अगले कुछ वर्षों तक यह दौर चलेगा. चीन और भारत के उदय की यह स्वाभाविक परिणति है. यह बात हमारे संकट का कारण नहीं बनेगी, क्योंकि हमारी अर्थ-व्यवस्था मूल रूप से आंतरिक उपभोग पर केंद्रित है. निर्यात-मुखी नहीं है. इस मामले में चीन के मसले ज्यादा बड़े हैं.
हमें इस घटनाचक्र को अपने नजरिए से देखना चाहिए. इस मसले के तीन पहलू हैं. सबसे पहले भारतीय आईटी कम्पनियों को अपने आप को प्रतियोगी बनाए रखने के लिए कदम उठाने होंगे. अभी तक हम कम वेतन पर आईटी कर्मियों की मदद लेकर अपनी सेवाओं को कम दर पर उपलब्ध करा रहे थे. भारतीय कम्पनियों ने कुछ साल पहले से आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (यानी रोबोटिक्स) और ऑटोमेशन की राह पकड़ी है. इससे उत्पादकता बढ़ेगी. अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियन नियमों को इस तरह बदला जा रहा है ताकि केवल उच्चतम कौशल से लैस, विशिष्ट और ऊँचे वेतन वाले कर्मियों को ही वीजा मिलेगा. भारतीय आईटी कम्पनियों को इस चुनौती को स्वीकार करके सस्ते की जगह गुणवत्ता के आधार पर प्रतियोगिता में आना चाहिए.
इसके साथ ही अपने काम के लिए नए बाजार खोजने चाहिए, खासतौर से स्वदेशी बाजार. दूसरे भारतीय कम्पनियों को केवल आउटसोर्सिंग या कॉलसेंटर जैसा काम करने के बजाय उच्चस्तरीय सॉफ्टवेयर का काम करना चाहिए. भारतीय कम्पनियाँ प्रोडक्ट के बाजार में कम हैं. अब भारतीय प्रोडक्ट्स को पश्चिमी प्रोडक्ट्स के मुकाबले में आना चाहिए. यदि हमारा प्रोडक्ट बराबरी पर होगा और कीमत कम होगी तो लामुहाला उसे बाजार मिलेगा. हमने बहुत से मामलों में अपनी क्षमताओं को पहचाना भी नहीं है. मसलन हमारी इलेक्शन वोटिंग मशीन सम्भवतः दुनिया की सबसे अच्छी मशीन है. हमें उसके व्यावसायिक पहलू पर सोचना चाहिए.
प्रतिरोध भी जरूरी
वीजा प्रकरण को लेकर कुछ लोगों ने सवाल उठाया है कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के साथ हमारे रिश्ते बहुत अच्छे हैं. इन देशों ने ऐसे कदम उठाकर हमारी विदेश नीति की विफलता को साबित किया है. इन देशों ने हमें इंगित करके ये फैसले नहीं किए हैं. हमपर इनका सबसे ज्यादा असर पड़ा है, क्योंकि हमारे पास आईटी प्रोफेशनलों की संख्या बहुत बड़ी है. पर यदि इस नीतिगत बदलाव से हमारे हितों पर आँच पहुँचेगी तो हमें कड़ाई से प्रतिरोध भी करना होगा.
पिछले तीन-चार दिन में भारत सरकार ने उसका संकेत भी दिया है. साथ ही अमेरिकी प्रशासन ने संकेत दिया है कि वह इस नीति में कुछ बदलाव करने जा रहा है. वित्तमंत्री अरुण जेटली अमेरिका के दौरे पर हैं और उन्होंने अमेरिकी प्रशासन से एच-1बी पर चर्चा की है. जेटली ने अमेरिकी वाणिज्य मंत्री विलबर रॉस से हुई मुलाकात में इस मसले को उठाया. अमेरिकी प्रशासन इस नीति में बदलाव के संकेत भी दे रहा है.
यह एकतरफा मामला भी नहीं है. वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन ने इस मसले के कड़वे पहलू की ओर भी इशारा किया है. उन्होंने कहा है कि केवल भारतीय कम्पनियाँ ही अमेरिका में नहीं हैं, अमेरिकी कम्पनियाँ भी भारत में काम कर रहीं है. उनकी कमाई अमेरिका वापस जाती है. अमेरिका को उनके बारे में भी सोचना चाहिए. उन्होंने इशारा किया कि उन्हें मिलने वाली रॉयल्टी के भुगतान की समीक्षा हम कर सकते हैं. यह वैश्विक सम्बंधों का मामला भी है. अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत को एक निश्चित संख्या में एच-1बी वीजा देने का वायदा किया था और हम चाहते हैं कि अमेरिका यह वायदा निभाए.
वैश्वीकरण का एक लक्ष्य कामकाजी लोगों के आवागमन को सुगम बनाना भी है. यह एकतरफा नहीं है. और कुशल पेशेवर इंजीनियरों को शरणार्थी नहीं मानना चाहिए. वे आपकी जरूरत को पूरा करने गए हैं. वस्तुतः वैश्वीकरण का उद्देश्य परस्परावलम्बन है. हम आपके सहारे नहीं हैं, आपको भी हमारा सहारा चाहिए. और आने वाले वक्त में आपको और ज्यादा सहारे की जरूरत होगी.
इस सिलसिले में भारतीय आईटी उद्योग की संस्था नैस्कॉम के अध्यक्ष आर चन्द्रशेखर ने कहा है कि यह भारतीय कम्पनियों के लिए ऑपरेशनल चुनौती भी है. इसके लिए हम तैयार हैं और हमारे उद्योग ने उसकी व्यवस्था कर ली है. सच यह है कि यदि हमारे पास गुणवान इंजीनियर हैं तो उनके लिए काम की कमी नहीं होगी, क्योंकि दुनिया के हर देश को कुशल लोगों की जरूरत है. अभी हमें ऑस्ट्रेलिया की नई नीति का इंतजार करना चाहिए. ऑस्ट्रेलिया सरकार के साथ नैस्कॉम का सम्पर्क बना हुआ है.
प्रभात खबर में प्रकाशित
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया ने इन सवालों पर सोचना शुरू किया और इन बातों को लेकर लम्बा विमर्श शुरू हुआ. सन 1947 में 23 देशों ने जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड (गैट) पर दस्तखत करके इस वैश्विक वार्ता की पहल की. यह वार्ता 14 अप्रैल 1994 को मोरक्को के मराकेश शहर में पूरी हुई. उसके पहले 1986 से लेकर 1994 गैट के अंतर्गत बहुपक्षीय व्यापार वार्ताएं चलीं, जो लैटिन अमेरिका के उरुग्वाय से शुरू हुईं थीं. इसमें 123 देशों ने हिस्सा लिया और उसके बाद जाकर विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई. पर वैश्वीकरण का काम इतने भर से पूरा नहीं हो गया. इसके बाद सन 2001 से दोहा राउंड शुरू हुआ, जिसे सन 2004 में पूरा हो जाना चाहिए था, और जो अब तक पूरा नहीं हो सका है. विश्व समुदाय कवियों की परिकल्पना है. मनुष्य अपने करीबी हितों को ज्यादा बड़े हित मानता है. वैश्विक हित सिद्धांततः अच्छे लगते हैं, व्यावहारिक रूप से वे आकर्षक नहीं होते. हमारे देश में जब नब्बे के दशक में वैश्वीकरण शब्द सुनाई पड़ा, तो सबसे पहले इसे पूँजीवादी देशों की साजिश के रूप में देखा गया. साजिश थी या नहीं, पर इसकी रूपरेखा विश्व बैंक, मुद्राकोष और अनुषंगी संस्थाओं ने ही बनाई थी. इस योजना के तहत दुनियाभर के देशों की अर्थ-व्यवस्थाओं में बदलाव आया, जिसे उदारीकरण या आर्थिक सुधार का नाम दिया गया. यह काम अभी चल ही रहा है, पर जिन देशों की पहल पर यह कार्यक्रम शुरू हुआ था, वहीं पर इसका विरोध होने लगा है.
भारत और चीन का उदय
वैश्वीकरण के इस दौर में ही चीनी अर्थ-व्यवस्था का विस्तार हुआ और भारत की अर्थ-व्यवस्था अब बढ़ रही है. हाल में अमेरिका और कुछ दूसरे देशों ने अपनी वीजा नीति में जो बदलाव किए हैं, उनकी पृष्ठभूमि में इस बात को समझना जरूरी है कि हाल के वर्षों में वहाँ बेरोजगारी बढ़ी है. कारखाने उठकर बाहरी देशों में चले गए हैं और बाहरी देशों से कम वेतन पर लोग काम करने के लिए इन देशों में आते जा रहे हैं. ये सारी वजहें थीं, जिनके कारण अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे की मदद से जीतकर आए.
हाल में उन्होंने एच1-बी वीजा की समीक्षा के आदेश दिए हैं. इसी तरह आस्ट्रेलिया ने वीजा प्रोग्राम (457 वीजा) को यह कहकर रद्द कर दिया है कि अब स्किल्ड जॉब्स में ‘आस्ट्रेलिया फर्स्ट’ की नीति चलेगी. यूरोप के तमाम देशों में इस बात की लहर है. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने का कारण भी यही है कि लोगों को लगता है कि अत्यधिक उदार होने की कीमत हमें देनी पड़ रही है.
एच1-बी वीजा भारतीय आईटी उद्योग व प्रतिभाओं के लिए वरदान साबित हुआ. हर साल करीब पैंसठ हजार एच1-बी वीजा जारी होते थे, जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा भारत के प्रशिक्षित कामगारों को मिलता था. सिद्धांततः यह वीजा यह मानकर दिया जाता है कि अमेरिका में आवश्यक टेलेंट की कमी है. पर धीरे-धीरे यह सस्ते कामगारों को लाने का जरिया बन गया. अमेरिकी राजनेताओं का आरोप है कि आईटी कंपनियां सस्ते कामगारों को वीजा दिलाकर अपना मुनाफा बढ़ा रहीं हैं और अमेरिकी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल रहीं हैं. मोटे तौर पर अमेरिका का 65 फीसदी आईटी कारोबार भारतीय कंपनियों पर निर्भर है.
ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड ने हाथ खींचा
अमेरिका के वीजा नियमों की बहस चल ही रही थी कि पिछले हफ्ते आस्ट्रेलिया ने अपना वीजा प्रोग्राम (457 वीजा) रद्द कर दिया. वहाँ की सरकार की कहना है कि अब स्किल्ड जॉब्स में ‘आस्ट्रेलिया फर्स्ट’ की नीति चलेगी. यहाँ भी इस काम में सबसे ज्यादा भारतीय लगे हैं. ऑस्ट्रेलिया के बाद न्यूजीलैंड ने इसी तरह की घोषणा की है. कोई आश्चर्य नहीं कि दूसरे विकसित देश भी ऐसी ही घोषणाएं करें. चूंकि इन फैसलों से हमारे देश के मध्यवर्ग से जुड़े लोग प्रभावित होंगे इसलिए हमें यह खबर बड़ी लगती है. तीनों देशों की घोषणाओं से लगता है कि वे उच्च विशेषज्ञता प्राप्त इंजीनियरों को वीजा देंगे.
विश्व व्यापार संगठन का एक उद्देश्य कामगारों के वैश्विक आवागमन को सुचारु बनाना भी है. अमेरिका पर भी इसकी जिम्मेदारी है. बहरहाल हमें अपनी विशेषज्ञता को बढ़ाने के बारे में भी सोचना चाहिए. यह भीख माँगना नहीं है. यदि हमारे इंजीनियर उपयोगी होंगे, तभी उनकी माँग होगी. दरअसल वैश्वीकरण के अंतर्विरोधों ने अब खुलना शुरू किया है. और लगता है कि अगले कुछ वर्षों तक यह दौर चलेगा. चीन और भारत के उदय की यह स्वाभाविक परिणति है. यह बात हमारे संकट का कारण नहीं बनेगी, क्योंकि हमारी अर्थ-व्यवस्था मूल रूप से आंतरिक उपभोग पर केंद्रित है. निर्यात-मुखी नहीं है. इस मामले में चीन के मसले ज्यादा बड़े हैं.
हमें इस घटनाचक्र को अपने नजरिए से देखना चाहिए. इस मसले के तीन पहलू हैं. सबसे पहले भारतीय आईटी कम्पनियों को अपने आप को प्रतियोगी बनाए रखने के लिए कदम उठाने होंगे. अभी तक हम कम वेतन पर आईटी कर्मियों की मदद लेकर अपनी सेवाओं को कम दर पर उपलब्ध करा रहे थे. भारतीय कम्पनियों ने कुछ साल पहले से आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (यानी रोबोटिक्स) और ऑटोमेशन की राह पकड़ी है. इससे उत्पादकता बढ़ेगी. अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियन नियमों को इस तरह बदला जा रहा है ताकि केवल उच्चतम कौशल से लैस, विशिष्ट और ऊँचे वेतन वाले कर्मियों को ही वीजा मिलेगा. भारतीय आईटी कम्पनियों को इस चुनौती को स्वीकार करके सस्ते की जगह गुणवत्ता के आधार पर प्रतियोगिता में आना चाहिए.
इसके साथ ही अपने काम के लिए नए बाजार खोजने चाहिए, खासतौर से स्वदेशी बाजार. दूसरे भारतीय कम्पनियों को केवल आउटसोर्सिंग या कॉलसेंटर जैसा काम करने के बजाय उच्चस्तरीय सॉफ्टवेयर का काम करना चाहिए. भारतीय कम्पनियाँ प्रोडक्ट के बाजार में कम हैं. अब भारतीय प्रोडक्ट्स को पश्चिमी प्रोडक्ट्स के मुकाबले में आना चाहिए. यदि हमारा प्रोडक्ट बराबरी पर होगा और कीमत कम होगी तो लामुहाला उसे बाजार मिलेगा. हमने बहुत से मामलों में अपनी क्षमताओं को पहचाना भी नहीं है. मसलन हमारी इलेक्शन वोटिंग मशीन सम्भवतः दुनिया की सबसे अच्छी मशीन है. हमें उसके व्यावसायिक पहलू पर सोचना चाहिए.
प्रतिरोध भी जरूरी
वीजा प्रकरण को लेकर कुछ लोगों ने सवाल उठाया है कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के साथ हमारे रिश्ते बहुत अच्छे हैं. इन देशों ने ऐसे कदम उठाकर हमारी विदेश नीति की विफलता को साबित किया है. इन देशों ने हमें इंगित करके ये फैसले नहीं किए हैं. हमपर इनका सबसे ज्यादा असर पड़ा है, क्योंकि हमारे पास आईटी प्रोफेशनलों की संख्या बहुत बड़ी है. पर यदि इस नीतिगत बदलाव से हमारे हितों पर आँच पहुँचेगी तो हमें कड़ाई से प्रतिरोध भी करना होगा.
पिछले तीन-चार दिन में भारत सरकार ने उसका संकेत भी दिया है. साथ ही अमेरिकी प्रशासन ने संकेत दिया है कि वह इस नीति में कुछ बदलाव करने जा रहा है. वित्तमंत्री अरुण जेटली अमेरिका के दौरे पर हैं और उन्होंने अमेरिकी प्रशासन से एच-1बी पर चर्चा की है. जेटली ने अमेरिकी वाणिज्य मंत्री विलबर रॉस से हुई मुलाकात में इस मसले को उठाया. अमेरिकी प्रशासन इस नीति में बदलाव के संकेत भी दे रहा है.
यह एकतरफा मामला भी नहीं है. वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन ने इस मसले के कड़वे पहलू की ओर भी इशारा किया है. उन्होंने कहा है कि केवल भारतीय कम्पनियाँ ही अमेरिका में नहीं हैं, अमेरिकी कम्पनियाँ भी भारत में काम कर रहीं है. उनकी कमाई अमेरिका वापस जाती है. अमेरिका को उनके बारे में भी सोचना चाहिए. उन्होंने इशारा किया कि उन्हें मिलने वाली रॉयल्टी के भुगतान की समीक्षा हम कर सकते हैं. यह वैश्विक सम्बंधों का मामला भी है. अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत को एक निश्चित संख्या में एच-1बी वीजा देने का वायदा किया था और हम चाहते हैं कि अमेरिका यह वायदा निभाए.
वैश्वीकरण का एक लक्ष्य कामकाजी लोगों के आवागमन को सुगम बनाना भी है. यह एकतरफा नहीं है. और कुशल पेशेवर इंजीनियरों को शरणार्थी नहीं मानना चाहिए. वे आपकी जरूरत को पूरा करने गए हैं. वस्तुतः वैश्वीकरण का उद्देश्य परस्परावलम्बन है. हम आपके सहारे नहीं हैं, आपको भी हमारा सहारा चाहिए. और आने वाले वक्त में आपको और ज्यादा सहारे की जरूरत होगी.
इस सिलसिले में भारतीय आईटी उद्योग की संस्था नैस्कॉम के अध्यक्ष आर चन्द्रशेखर ने कहा है कि यह भारतीय कम्पनियों के लिए ऑपरेशनल चुनौती भी है. इसके लिए हम तैयार हैं और हमारे उद्योग ने उसकी व्यवस्था कर ली है. सच यह है कि यदि हमारे पास गुणवान इंजीनियर हैं तो उनके लिए काम की कमी नहीं होगी, क्योंकि दुनिया के हर देश को कुशल लोगों की जरूरत है. अभी हमें ऑस्ट्रेलिया की नई नीति का इंतजार करना चाहिए. ऑस्ट्रेलिया सरकार के साथ नैस्कॉम का सम्पर्क बना हुआ है.
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