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Sunday, April 16, 2017

सावधान ‘आप’, आगे खतरा है

एक ट्रक के पीछे लिखा था, ‘कृपया आम आदमी पार्टी की स्पीड से न चलें...।’ आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली की राजौरी गार्डन विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव का परिणाम खतरनाक संदेश लेकर आया है। पार्टी इस हार पर ज्यादा चर्चा करने से घबरा रही है। उसे डर है कि अगले हफ्ते होने वाले एमसीडी के चुनावों के परिणाम भी ऐसे ही रहे तो लुटिया डूबना तय है। इसके बाद पार्टी का रथ अचानक ढलान पर उतर जाएगा। लगता है कि ‘नई राजनीति’ का यह प्रयोग बहुत जल्दी मिट्टी में मिलने वाला है।

हाल में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि छह महीने में दिल्ली में एक बार फिर विधानसभा चुनाव होंगे। पता नहीं उन्होंने यह बात क्या सोचकर कही थी, पर यह सच भी हो सकती है। आम आदमी पार्टी का उदय जिस तेजी से हुआ था, वह तेजी उसकी दुश्मन साबित हो रही है। जनता ने उससे काफी बड़े मंसूबे बाँध लिए थे। पर पार्टी सामान्य दलों से भी खराब साबित हुई। उसमें वही लोग शामिल हुए जो मुख्यधारा की राजनीति में सफल नहीं हो पाए थे। हालांकि सन 2015 के चुनाव ने पार्टी को 70 में से 67 विधायक दिए थे, पर अब कितने उसके साथ हैं, कहना मुश्किल है।
राजौरी गार्डन का परिणाम आने के पहले बवाना के विधायक वेद प्रकाश आम आदमी पार्टी को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। उस वक्त कहा जा रहा था कि कुछ और विधायक पार्टी छोड़ेंगे। बीजेपी के एक नेता ने तब दावा किया था कि करीब एक दर्जन विधायक पार्टी छोड़ेंगे। वेद प्रकाश का कहना था कि कम से कम 30-35 विधायक नाराज हैं।

विधायक छोड़ें या न छोड़ें पार्टी के सामने उसकी बिगड़ती छवि का संकट है। पिछले दो साल में पार्टी की ओर से और दिल्ली सरकार की ओर से जारी विज्ञापनों में अरविंद केजरीवाल की छवि बनाने की अतिशय कोशिशों का सकारात्मक प्रभाव दिखाई नहीं पड़ा है, बल्कि उनका उल्टा असर पड़ा है। यह भी सही है कि बीजेपी और केंद्र सरकार ने उसे घेरने में कसर नहीं छोड़ी है। पार्टी के विधायकों के खिलाफ एक के बाद एक मामले बनते चले गए हैं। फर्जी डिग्री, पत्नी से दुर्व्यवहार, सड़क पर मारपीट और मनी लाउंडरिंग जैसे मामले एक के बाद एक बनते चले गए।

दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने भी पंगा लेने में कसर नहीं छोड़ी। बेहतर होता कि वह दिल्ली में बेहतर प्रशासन देने पर ही ध्यान केंद्रित करती। पर उसकी इच्छा देशभर में छा जाने की थी। यही नहीं जिस तरह से नरेंद्र मोदी की डिग्री को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता दिल्ली विश्वविद्यालय के दफ्तरों में चक्कर लगा रहे थे, उससे लगने लगा कि पार्टी के पास सिर्फ मोदी से हिसाब चुकता करने का काम है।

दिल्ली की जनता ने केजरीवाल के भीतर एक नए किस्म के राजनेता की झलक देखी थी और उन्हें सिर-आँखों पर बैठाया। पर वे जिस राजनीति के खिलाफ खड़े थे उसके ही लटकों-झटकों पर चलना शुरू कर दिया। पिछले साल एक वीडियो संदेश में उन्होंने मोदी पर आरोप लगाया, 'वह इतने बौखलाए हुए हैं कि मेरी हत्या तक करवा सकते हैं।' इसके पहले उन्होंने मोदी को ‘मनोरोगी’ बताया था। कायर और मास्टरमाइंड भी। और यह भी कि मोदी मुझसे घबराता है।

हो सकता है कि मोदी के मन में ये सब बातें हों, पर मानने को मन नहीं करता कि उनके पास सुबह से शाम तक सिवाय केजरीवाल के कोई और मसला ही नहीं है। फिलहाल लगता नहीं कि जनता ने उनकी इन बातों को पसंद किया। उनकी बचकाना हरकतों ने उन्हें हास्यास्पद बना दिया है। सन 2011 में जब केजरीवाल जन-लोकपाल आंदोलन चला रहे थे, तब वे कहते थे कि देश के राजनेताओं के खिलाफ मुकदमों की भरमार है। आज यही बात उनकी पार्टी के विधायकों के साथ हो रही है।

उनके विधायकों के खिलाफ मुकदमों की झड़ी लग गई है। सम्भव है कि इनमें से तमाम मामलों में उन्हें फँसाया गया हो, पर यही बात तो उनके पहले के राजनेताओं पर लागू होती है। इधर अरुण जेटली ने उनके खिलाफ मानहानि के दीवानी और फौजदारी मुकदमे कायम करके उन्हें दिक्कत में डाल दिया है। इससे भी ज्यादा परेशानी वाला मामला है पार्टी के 21 विधायकों को लाभ के पद दिए जाने का मामला। इस मामले में चुनाव आयोग के सामने सुनवाई लगभग पूरी हो चुकी है। यदि इनकी सदस्यता खत्म हुई तो पार्टी राजनीतिक संकट में आ जाएगी। पंकज पुष्कर और देवेंद्र सहरावत जैसे विधायक पहले से ही बागी हैं।

विधायकों की सदस्यता और शुंगलू कमेटी रिपोर्ट से घिरे केजरीवाल को एमसीडी में हार मिली तो पार्टी को एकजुट रखना मुश्किल हो जाएगा। बीजेपी चाहेगी कि ऐसे हालात पैदा हो जाएं कि केजरीवाल खुद विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दें। शायद स्मृति ईरानी ने यही सोचकर कहा था कि छह महीने में फिर से चुनाव होंगे। केजरीवाल मानते हैं कि राजौरी गार्डन में हार इसलिए हुई, क्योंकि इस इलाके की जनता जरनैल सिंह के छोड़कर जाने से नाराज थी। यानी पार्टी कहना चाहती है कि यह पूरी दिल्ली का मूड नहीं है और सब ठीक-ठाक है।

सब ठीक हो तब भी राजौरी गार्डन का असर एमसीडी के चुनावों पर पड़ेगा। इस चुनाव में पार्टी की हार ही नहीं हुई है। उसके प्रत्याशी की जमानत जब्त हुई है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच हुआ है। इसका मतलब है कि दिल्ली में पार्टी के अंत की शुरुआत हो गई है। पार्टी दिल्ली में डूबी तो फिर कहीं नजर भी नहीं आएगी। इसके पहले वह पंजाब और गोवा में हार चुकी है।

पार्टी ने दो मोर्चे और खोल रखे हैं। ईवीएम को लेकर उसने चुनाव आयोग से पंगा ले रखा है और दिल्ली को पूर्ण राज्य के अधिकार दिलाने के लिए केंद्र से। अधिकारों का फैसला सुप्रीम कोर्ट से होगा। और ईवीएम के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट ही कोई रास्ता बताएगा। फिलहाल राजौरी गार्डन में उसी जनता ने उसे सज़ा दी है, जिसने दो साल पहले सिर आँखों पर बैठाया था। हो सकता है कि राजौरी गार्डन वाले जरनैल सिंह से नाराज हों, केजरीवाल से नहीं। इसलिए इस हफ्ते और देख लीजिए।
हरिभूमि में प्रकाशित

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