कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि हम सर्जिकल स्ट्राइक के मामले
में भारतीय जवानों के साथ हैं, लेकिन इसे लेकर क्षुद्र राजनीति नहीं की जानी
चाहिए। रणदीप सुरजेवाला का कहना है, ‘ हम सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन
यह कोई पहला सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है।’ कांग्रेस के शासनकाल में 1 सितंबर 2011, 28 जुलाई 2013 और 14 जनवरी 2014 को 'शत्रु को मुंहतोड़ जबाव' दिया गया था। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र
कांग्रेस सरकार ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया।
भारतीय राजनीति में युद्ध की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सन 1962 की लड़ाई से नेहरू की लोकप्रियता में कमी आई
थी। जबकि 1965 और 1971 की लड़ाइयों ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी का कद
काफी ऊँचा कर दिया था। करगिल युद्ध ने अटल बिहारी वाजपेयी को लाभ दिया। इसीलिए
28-29 सितम्बर की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के निहितार्थ ने देश के राजनीतिक
दलों एकबारगी सोच में डाल दिया। सोच यह है कि क्या किसी को इसका फायदा मिलेगा? और क्या कोई घाटे में रहेगा?
सेना की इस कार्रवाई के बाद
गुरुवार को हुई सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दलों ने एक स्वर से इस ऑपरेशन का समर्थन
किया। भारतीय राजनीति में यह एकता आसानी से देखने को मिलती नहीं। विदेश मंत्री
सुषमा स्वराज ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पास जाकर, जो कुछ समय से
अस्वस्थ चल रहीं हैं, उन्हें इस कार्रवाई से अवगत कराया। सोनिया गांधी ने न केवल
सेना को बधाई दी, बल्कि यह भी कहा कि इस मामले में हम सरकार के साथ खड़े हैं।
इतने खुले बयान के बाद शायद पार्टी
के भीतर अंतर्मंथन हुआ। सायास या अनायास इसके बाद जो बयान जारी हुए, उनसे संशय
पैदा होता है कि पार्टी सरकार के साथ खड़ी है या लंगड़ी लगा रही है? और यह भी कि सरकार का इतना खुला
समर्थन कहीं अपना नुकसान तो नहीं करेगा? नरेन्द्र मोदी पाकिस्तान के मामले में मनमोहन सिंह सरकार को दब्बू और डरपोक
साबित करते रहे हैं। ऐसे में सरकार का समर्थन करके पार्टी मोदी को हीरो तो नहीं
बना देगी?
कांग्रेस का यह असमंजस स्वाभाविक है।
बीजेपी ने इसे राजनीतिक रूप से भुनाना शुरू कर दिया। रातों-रात यूपी में पोस्टर-बैनर
लग गए। बीजेपी के नेताओं के बयान और ट्वीट आने लगे। इस बात से कांग्रेस की परेशानी
स्वाभाविक थी। उसे उत्तर प्रदेश का परिदृश्य नजर आने लगा जहाँ पाकिस्तान के साथ
टकराव राजनीति पर असर डालता है। पाकिस्तान के साथ टकराव पंजाब में भी राजनीति को
प्रभावित करता है।
हाल में कम से कम तीन मौकों पर
राष्ट्रीय सुरक्षा या विदेश नीति से जुड़े मसलों पर कांग्रेस असमंजस में फँसी है। पहला
मौका था कश्मीर में ‘पत्थर मारो आंदोलन।’ संसद के भीतर और बाहर कांग्रेस ने
सरकार का समर्थन किया, पर पैलेट गन के इस्तेमाल और नौजवानों से निपटने के
तौर-तरीकों को लेकर सरकार की आलोचना की। इस वजह से उत्तर भारत में उसे जनता की
आलोचना का शिकार होना पड़ा।
दूसरा मौका था नरेंद्र मोदी के 15
अगस्त के भाषण में पीओके और बलूचिस्तान का जिक्र। भाषण खत्म हुआ नहीं कि पूर्व विदेश मंत्री
सलमान खुर्शीद का बयान टीवी पर आया कि मोदी ने बलूचिस्तान का जिक्र करके गलती की
है। यह कांग्रेस पार्टी की सुविचारित प्रतिक्रिया नहीं थी। इसके बाद पार्टी के
वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा कि बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन का सवाल सबसे
पहले हमने ही उठाया था। फिर पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने आधिकारिक रूप से
कहा कि बलूचिस्तान के सवाल को हमने ही तो उठाया था। यानी कि मोदी को इस बात का
श्रेय नहीं लेना चाहिए।
हाल में भारत और अमेरिका के बीच लिमोआ (लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरैंडम
ऑफ एग्रीमेंट) पर दस्तखत हुए तो रणदीप सुरजेवाला ने कहा, भारत ने ‘सामरिक-सैनिक तटस्थता’ की नीति का त्याग कर दिया है। इस टिप्पणी का उल्लेख करते हुए चीनी संवाद समिति
शिनहुआ ने कांग्रेस पार्टी के विरोध को खासतौर से रेखांकित किया। चीनी अख़बार ‘ग्लोबल
टाइम्स’ ने भारत की खिल्ली भी उड़ाई। व्यावहारिक बात यह है कि इस समझौते की पृष्ठभूमि
में यूपीए सरकार की भूमिका भी थी।
सरकारें निरंतरता में काम करती हैं। यूपीए सरकार के
समय के काफी काम अब पूरे हो रहे हैं। भारत और जापान के बीच लम्बे अरसे से नाभिकीय
सहयोग का समझौता टलता आ रहा है। सम्भवतः नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा के दौरान
इस समझौते पर भी दस्तखत होंगे। इस साल भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम
(एमटीसीआर) का सदस्य बना है। इसके पीछे भी यूपीए और एनडीए दोनों की भूमिका है। नरेन्द्र
मोदी की सरकार यूपीए के दौर के समझौतों के आधार पर ही देश में नाभिकीय ऊर्जा का
कार्यक्रम तैयार कर रही है।
रक्षा समझौतों
के कागजात सार्वजनिक रूप से खोले नहीं जा सकते। रक्षा तकनीक के आदान-प्रदान काफी
जटिलताएं हैं। यही बात सर्जिकल स्ट्राइक से जुड़े सबूतों के साथ भी जुड़ी है। इसे
कांग्रेस के बेहतर कोई नहीं जानता क्योंकि वह सबसे ज्यादा समय तक शासन में रही है।
इसलिए उससे परिपक्वता की उम्मीद की जाती है।
सवाल
यह भी है कि कांग्रेस के शासनकाल में ‘सैनिकों की
गर्दनें काटने का बदला’ लेने की
जो कार्रवाई की गई थी, क्या वह ‘सर्जिकल
स्ट्राइक’ थी? सर्जिकल स्ट्राइक होती क्या चीज है? क्या इस बार जो की गई वह सर्जिकल स्ट्राइक है? कांग्रेस सरकार ने उसकी घोषणा नहीं की थी तो क्यों? और इस बार सरकार घोषित कर रही है तो क्यों?
अभी हमारे पास इस बार की कार्रवाई के विवरण उपलब्ध नहीं
हैं, पर एक साथ आठ टीमों का काम करना और सैटेलाइट-इंटेलिजेंस का सहारा लेना जैसे
कुछ बातें नई हैं। हमें इनके विश्लेषण के लिए कुछ इंतजार करना होगा। भारत ने इसकी
खुली घोषणा करके पाकिस्तान और दुनिया को संदेश दिया है कि आतंकी समूहों पर भविष्य
में कार्रवाई सम्भव है। और तब कांग्रेस ने अपनी कार्रवाई की घोषणा इसीलिए नहीं की
थी कि टकराव बढ़ने का खतरा था। ये नीतिगत फैसले हैं। यह रणनीति और युद्ध-तकनीक से
जुड़ा मसला भी है।
सोनिया गांधी ने अपना बयान जारी
करने के पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बात की। मनमोहन सिंह को नरेन्द्र
मोदी ने खुद ब्रीफ किया था। मनमोहन सिंह के अलावा सोनिया ने एके एंटनी और गुलाम
नबी आजाद से भी विमर्श किया। फिर भी पार्टी के बयानों में विसंगति नजर क्यों आ रही
है? शायद यह पार्टी की
नीति है कि वह दो तरह की बातें जनता के सामने रखना चाहती है। फिर भी लगता है कि
किसी लेवल पर अपरिपक्वता है।
पार्टी उड़ी के हमले के वक्त भी
प्रतिक्रिया व्यक्त करने में पिछड़ी। हमले के फौरन बाद पार्टी को कार्यसमिति की
बैठक बुलाकर विचार करना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। जनता संजीदगी के साथ घटनाक्रम को
देखती है। ऐसा नहीं कि जनता ने सर्जिकल स्ट्राइक को भुनाने की बीजेपी की कोशिशों
को नहीं देखा होगा। राजनीतिक दलों को जनता की समझदारी को लेकर संदेह नहीं करना
चाहिए।
दिग्विजय सिंह का कहना है कि सरकार
को सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में संयुक्त राष्ट्र के मंतव्य का जवाब देना चाहिए।
क्या भारत संयुक्त राष्ट्र के इस दल को मान्यता देता है? यह दल युद्ध विराम रेखा के उल्लंघन पर नजर रखने के
लिए बना था। शिमला समझौते के बाद से भारत ने इसे मान्यता देना बंद कर दिया। यह काम
इंदिरा गांधी के वक्त का है। न तो उड़ी के हमलावर संयुक्त राष्ट्र दफ्तर में
एंट्री कराकर आए थे और न भारत का सर्जिकल स्ट्राइक संरा को पूर्व सूचना देकर किया
जा सकता था। यह कोवर्ट ऑपरेशन था। यों भी संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि ने
इस बात का जवाब दे दिया है।
पी चिदम्बरम ने एक टीवी चैनल से कहा, यूपीए सरकार ने
सर्जिकल स्ट्राइक कीं, पर उनका श्रेय नहीं लिया। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल विक्रम
सिंह ने 2013 के एक स्ट्राइक का हवाला दिया है। अब मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक
का सायास दावा करके इसका राजनीतिक श्रेय लिया है इसलिए जनता की माँग है कि वीडियो
जारी किए जाएं। मनीष तिवारी ने कहा, इस पूरे प्रकरण में एक भारतीय कथन है, एक पाकिस्तानी कथन है और एक अंतर्राष्ट्रीय कथन है, जो
हमारे विवरण पर संदेह उत्पन्न कर रहे हैं। सीएनएन और वाशिंगटन पोस्ट समेत
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया हमारे कथन पर क्यों संदेह कर रहा है?
बेशक सरकार को वैश्विक मीडिया से सवाल करना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना की बस
में सवार होकर कुछ तयशुदा जगहों की सैर करने के बाद लिखी गई खबरें क्या
इनवेस्टिगेटिव पत्रकारिता है? यह सवाल तो मनीष तिवारी को वैश्विक मीडिया से करना चाहिए। मोटी
बात यह है कि क्षुद्र राजनीति नहीं होनी चाहिए। न बीजेपी की ओर से और न कांग्रेस
की ओर से।
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