बांग्लादेश में
एक के बाद एक आतंकी हिंसा की दो बड़ी घटनाएं न हुईं होतीं तो शायद ज़ाकिर नाइक पर
हम ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे सामान्य इस्लामी प्रचारक से अलग नजर आते हैं। हालांकि
वे इस्लाम का प्रचार करते हैं, पर सबसे ज्यादा मुसलमान ही उनके नाम पर लानतें
भेजते हैं। पिछले वर्षों में वे कई बार खबरों में रहे। सन 2009 में उत्तर प्रदेश
के उनके कार्यक्रमों पर रोक लगाई गई थी। जनवरी 2011 में इंडिया इस्लामिक कल्चरल
सेंटर में उनके एक कार्यक्रम का जबर्दस्त विरोध हुआ।
भारत और
पाकिस्तान में दारुल उलूम उनके खिलाफ फतवा जारी कर चुका है। इतने विरोध के बावजूद
उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं है। क्यों हैं वे इतने लोकप्रिय? ताजा खबर यह है कि श्रीनगर में
उनके समर्थन में पोस्टर लगे हैं। कश्मीरी आंदोलन को उनकी बातों में ऐसा क्या मिल
गया? पर उसके पहले सवाल है
कि बांग्लादेश के नौजवानों को उनके भाषणों में प्रेरक तत्व क्या मिला?
उन्हें वहाबी-सलाफी
विचारधारा का समर्थक माना जाता है, जिससे अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट दोनों के नाम
जुड़े हैं। सउदी अरब का राज-परिवार भी इससे जुड़ा है। पश्चिम एशिया से उठी आतंक की
आँधी अब हमारे इलाके की ओर बढ़ चली है। हालांकि ज़ाकिर नाइक ने ढाका के हत्याकांड
की निन्दा की है, पर वे विवाद के घेरे में हैं।
यह सवाल अपनी जगह
है कि इस ढाका हत्याकांड से जुड़े नौजवान क्या वास्तव में ज़ाकिर नाइक के उपदेशों
से मंत्र-मुग्ध थे? ऐसा है तो क्यों? इसकी पड़ताल भारत की राष्ट्रीय
जाँच एजेंसी ने शुरू कर दी है। जवाब ज़ाकिर नाइक के वीडियो में मिलेगा। उनके
उपदेशों में ऐसी क्या बात है जो नौजवानों को समझ में आई?
यह मसला मुस्लिम समुदाय के विचार का विषय भी है। वे किस इस्लाम के समर्थक हैं? बांग्लादेश में ईद की नमाज के
दौरान और सउदी अरब में मदीना में पैगंबर की मस्जिद के बाहर हुए आत्मघाती विस्फोट
के गम्भीर संदेश हैं। सउदी अरब का राज-परिवार भी इस्लामिक स्टेट की गतिविधियों को
लेकर चिंतित है।
ज़ाकिर नाइक उर्दू-फारसी या अरबी में उपदेश नहीं देते। वे सामान्य मुस्लिम
धर्मगुरुओं जैसा लिबास नहीं पहनते। अंग्रेजी लिबास पहनते हैं और अंग्रेजी में भाषण
देते हैं। उनका संवाद का लहज़ा बड़ा रोचक है और याददाश्त जबर्दस्त है। धर्मग्रंथों
को उधृत करते हैं, तो लगता है कि सब उन्हें कंठस्थ है। खुद को इस्लाम और दीगर मज़ाहिब का आलिम
(विद्वान) और इस्लाम का खिदमतगार बताते हैं। वे दावा करते हैं कि नए लोगों तक
इस्लाम का संदेश पहुंचाते हैं। बावजूद इसके उनपर सबसे ज्यादा लानत मुसलमान ही
भेजते हैं।
ज़ाकिर नाइक
इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। उनका दावा है कि उनके साथ
1.40 करोड़ लोग फेसबुक पर जुड़े हैं और 20 करोड़ लोग उनके ‘पीस-टीवी’ के दर्शक हैं। दक्षिण एशिया में ही नहीं अरब देशों और अफ्रीका
के भी कई इस्लामी देशों में उनके बड़ी संख्या में अनुयायी बताए जाते हैं। ऐसा उनकी
भाषा के कारण है। उपदेशक बनने से पहले, इन्होंने एक मेडिकल चिकित्सक के रूप में
प्रशिक्षण प्राप्त किया। सवाल यह है कि आम मुसलमान उन्हें स्वीकार नहीं करता तो
उनके समर्थक कौन हैं? 9/11 के बाद यह बात
सामने आई कि मुस्लिम समुदाय में आक्रामकता नए पढ़े-लिखे नौजवानों के बीच बढ़ी है।
ढाका हत्याकांड में हिस्सा लेने वाले सारे नौजवान सम्पन्न परिवारों से थे और
अंग्रेजी पढ़े-लिखे थे। सम्भव है कि नौजवानों के ऐसे तबके को परम्परागत मौलवी और
उनकी भाषा प्रभावित नहीं करती हो या समझ में नहीं आती हो। ढाका की हिंसा के कुछ
दिन पहले ही 6 जून को बांग्लादेश के एक लाख उलेमाओं ने आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी
किया था। क्या यह तबका अपने धर्म-गुरुओं की बात नहीं समझना चाहता? क्या उसे इस
सूटेड-बूटेड उपदेशक की बात बेहतर समझ में आती है?
ज़ाकिर नाइक की बातों के साथ रोचक किस्से भी होते हैं, जो शायद नौजवानों को
बेहतर समझ में आते हों। वे इस्लाम का प्रचार ही नहीं करते, साथ में यहूदी, ईसाई,
हिन्दू-बौद्ध विचारधाराओं का उल्लेख भी करते हैं। उनकी बातों का क्या असर होता है
और कितना होता है, इसके बारे में मनोवैज्ञानिक ही बेहतर विश्लेषण करेंगे।
किसी ने उनसे
पूछा कि ओसामा बिन लादेन के बारे में आपका क्या ख्याल है तो उन्होंने कहा-ओसामा ने
सबसे बड़े दहशतगर्द अमेरिका को खौफ़ज़दा किया है तो में उसके साथ हूँ। यदि वह
इस्लाम के दुश्मनों से लड़ता है तो मैं उसका समर्थक हूँ। पर वे यह भी कहते हैं कि
न्यूयॉर्क ट्विनटावर पर हमला करने वाले दहशतगर्द थे। और यह भी कि मैं नहीं जानता
हमला किसने किया।
प्रत्यक्ष रूप से
वे हिंसा के लिए भड़काते नहीं हैं, पर परोक्ष रूप से मन में क्लेश का बीज तो बोते
ही हैं। यह बात दूसरे धर्मों के प्रचारकों पर भी लागू होती है। इसका समाधान खोजते
वक्त हमें धार्मिक प्रचार और उपदेशों की मर्यादा के बारे में भी सोचना होगा। धार्मिक
प्रचार ही नहीं राजनीतिक प्रचार में भी दूसरे के प्रति द्वेष का तत्व बोने वाले की
भूमिका प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा को भड़काने की होती है।
इधर उनके साथ
कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का वीडियो भी नमूदार हुआ है, जिसमें वे ज़ाकिर नाइक की
तारीफों के पुल बांध रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने उन्हें ‘शांतिदूत’ कहा। धार्मिक लोकप्रियता का लाभ उठाने की ऐसी ओछी राजनीति भी विचार का विषय
बनेगी।
यह बिलकुल दोगलापंथी है एक और वे ओसामा का विरोध करते हैं दूसरी और समर्थन , ऐसा ही आई एस के प्रति है , , लेकिन लक्ष्य कुल मिला कर कटटर वादिता को बढ़ावा देना ही है मुस्लिम समाज को जितना गुमराह मुल्ला मौलवियों व ऐसे लोगों ने है उतना और किसी ने नहीं , यह मुस्लिम समाज के साथ विडंबना ही है कि उन्हें आज के वैज्ञानिक युग में इस युग की उपलब्धियों को सीखने व उनका सदुपयोग करने की उचित शिक्षा नहीं मिली और इस वजह से पूरा समाज बदनाम हो रहा है
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