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Monday, July 11, 2016

शिक्षा पर विमर्श क्यों नहीं?

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद स्मृति ईरानी का मानव संसाधन विकास मंत्रालय से कपड़ा मंत्रालय में तबादला होने की खबर दूसरे कारणों से चर्चा का विषय बनी. इस फेरबदल के कुछ समय पहले ही सरकार ने नई शिक्षा नीति के मसौदे के कुछ बिन्दुओं को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किया था. यह तीसरा मौका है जब पर प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का अवसर आया है. पर क्या कहीं विमर्श हो रहा है?


इसके पहले सन 1968 और उसके बाद 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बदलाव हुआ था. सन 1986 की नीति में सन 1992 में कुछ बदलाव किया गया था. इसके बाद सर्वशिक्षा अभियान चला और फिर शिक्षा का अधिकार आया. देश में ज्ञान आयोग बना, पर शिक्षा के तमाम पहलू विमर्श से बाहर रहे. इस वक्त भी नहीं लगता कि हम शिक्षा पर व्यापक बातचीत के लिए तैयार हैं. यह बात इसके आगाज़ के साथ ही साफ हो गई है.

‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 के मसौदे के लिए कुछ इनपुट’ शीर्षक से मंत्रालय ने प्रतिक्रियाएं मांगी हैं. यह दस्तावेज पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय समिति की रिपोर्ट पर आधारित है. सरकार ने पूरी रिपोर्ट को जारी नहीं किया, बल्कि उसके आधार पर तैयार एक दस्तावेज को जारी किया है. उधर उस रिपोर्ट के कुछ अंश भी मीडिया में लीक हो गए हैं, इससे अनावश्यक बदमज़गी पैदा हुई है. पूरी रिपोर्ट सामने न आने से उन सभी मामलों पर चर्चा नहीं हो पाएगी, जो शिक्षा से जुड़े हैं. मसलन छात्र संघों के राजनीतिकरण को रोकने के लिए समिति की सिफारिशों का जिक्र इस दस्तावेज में नहीं है. इससे यह भी समझ में नहीं आता कि शिक्षा की सामाजिक भेद करने वाली भूमिका पर कैसे रोक लगेगी.

इस दस्तावेज में छात्रों को फेल न करने की नीति पांचवीं कक्षा तक सीमित करने, ज्ञान के नए क्षेत्रों की पहचान के लिए एक शिक्षा आयोग का गठन करने, शिक्षा के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाकर जीडीपी का कम से कम छह फीसदी करने का सुझाव है. सुब्रह्मण्यम समिति का कहना है कि छात्रों की परीक्षा तो होनी चाहिए, पर परीक्षा से जुड़ा तनाव नहीं होना चाहिए. इसका कोई व्यवहारिक मॉडल भी देना होगा. आला दर्जे के विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश को बढ़ावा देने का सुझाव है. यह भी कि भारतीय संस्थाएं भी विदेशों में अपने कैंपस स्थापित करें. दस्तावेज में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों बच्चों के लिए, अल्पसंख्यक संस्थाओं में प्रवेश की सुविधा का सुझाव दिया गया है.

यह भी कहा गया है कि सभी राज्य और केंद्रशासित प्रदेश यदि चाहें तो स्कूलों में पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल माध्यम के रूप में किया जाए. यह भी कि यदि प्राथमिक स्तर तक निर्देश का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा हो और दूसरी भाषा अंग्रेजी हो तो उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तरों पर तीसरी भाषा चुनने का अधिकार राज्यों और स्थानीय अधिकारियों के पास रहे. यह सुझाव भी है कि विज्ञान, गणित और अंग्रेजी विषयों के लिए साझा राष्ट्रीय पाठ्यक्रम तैयार किए जाएं. सामाजिक विज्ञानों, पाठ्यक्रम का एक हिस्सा पूरे देश में एक जैसा रहेगा और बाकी हिस्सा राज्य तय करें.

10 वीं क्लास में गणित और साइंस की परीक्षा दो स्तर पर हो. लोअर और हायर. जो छात्र 11 वीं में ये विषय नहीं लेना चाहते, उनकी लोअर लेवल की परीक्षा हो. 12 वीं के बाद छात्रों का राष्ट्रीय स्तर पर टेस्ट हो, इसके जरिए ही कॉलेजों में एडमिशन किया जाए. सिलेबस का भार घटाकर सेल्फ लर्निंग पर जोर हो. कोचिंग पर लगाम लगनी चाहिए क्योंकि यह गरीब और अमीर बच्चे के बीच का अंतर बढ़ाती है. स्कूल ही रेमीडियल कोचिंग का इंतजाम करे.

इस प्रकार की सिफारिशों की लम्बी सूची है. इनपर अलग-अलग स्तर पर बात होनी चाहिए. शिक्षा के सवाल केवल छात्रों, शिक्षकों या नीति निर्माताओं तक सीमित नहीं हैं. उसका बाजार, उद्योग और अर्थ-व्यवस्था से भी नाता है. हम इस बात पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं कि यह शिक्षा किस तरह मुहैया कराई जाएगी. सन 1994 के बाद से हमने जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम शुरू किया है. इसके अंतर्गत कम लागत की शिक्षा पर जोर है. इसके लिए ठेके पर अध्यापक रखने और पैरा टीचर्स की भरती का चलन शुरू हुआ है. इससे शिक्षा का स्तर गिरा है. गाँव के स्कूलों का इस्तेमाल राजनीतिक कार्यों के लिए होता है, इसपर रोक का कोई तरीका नहीं सुझाया गया है.

शिक्षा में एक साथ दो प्रवृत्तियाँ देखने को मिल रहीं हैं. एक तरफ शानदार नम्बर लाने वाले छात्रों की संख्या बढ़ रही है दूसरी ओर पढ़ाई का स्तर गिर रहा है. परीक्षाओं में 100 फीसद नम्बर लाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. यह भ्रम सन 2012 के पीसा टेस्ट में टूट गया. विकसित देशों की संस्था ओईसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक परीक्षण करती है। दो घंटे की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पाँच लाख बच्चे शामिल होते हैं. सन 2012 में भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस परीक्षा में पहली बार शामिल हुए. चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नम्बर एक पर रहे और भारत के बच्चे 72 वें स्थान पर रहे, जबकि कुल 73 देश ही उसमें शामिल हुए थे.

शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ की सालाना रिपोर्ट ‘असर’ से पता लगता है कि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है. सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. आरटीई का सकारात्मक असर है कि 6-14 वर्ष उम्र वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी इजाफा हुआ है, पर बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं. जरूरी है कि पहले हम अपनी वर्तमान शिक्षा नीति के दोषों पर विचार करें, फिर आगे बढ़ें. हम दुनियाभर की बातों पर रात के शो में गला फाड़ बहस देखते हैं. शिक्षा पर बोलने वाला कोई नहीं. ऐसा क्यों? सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा जरिया शिक्षा है. सच यह भी है कि सामाजिक भेदभाव का सबसे बड़ा जरिया भी शिक्षा ही है. उसपर बात करें.

प्रभात खबर में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति विश्व जनसंख्या दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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