इस चुनाव को
बंगाल में ‘दीदी’ और तमिलनाडु में ‘अम्मा’ की जीत के
कारण याद रखा जाएगा। इनके अलावा केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन को
उनकी छवि के कारण पहचाना जाएगा। कुछ नाम और हैं जो कल तक राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा
जाने-पहचाने नहीं हुए थे। इनमें हिमंत विश्व सरमा, सर्बानंद सोनोवाल, पी विजयन और
ओ राजगोपाल शामिल हैं।
चुनाव के ठीक
पहले तमिल फिल्म अभिनेता विजयकांत नायडू का नाम भी हवा में था, पर परिणामों ने
उनका साथ नहीं दिया। बावजूद इन परिणामों के तमिलनाडु की भविष्य की राजनीति में
विजयकांत महत्वपूर्ण बने रहेंगे। अब जब बीजेपी देश की सबसे बड़ी ताकत बनकर सामने
आई है तब सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या देशभर में बिखरे क्षेत्रीय क्षत्रप उसके
खिलाफ एक होंगे? इन क्षत्रपों के
अंतर्विरोध भी हैं।
मुलायम और माया, जयललिता और करुणानिधि का मेल नहीं हो सकता। पर राजनीति में
मेल होते भी हैं। नीतीश और लालू का मेल हुआ कि नहीं। यह बात बीजेपी विरोधी खेमे के
लिए सही है तो मोदी समर्थक खेमे पर भी लागू होती है। नब्बे के दशक में जब बीजेपी
तमाम दलों के लिए अस्पृश्य हो गई थी तब प्रकाश सिंह बादल और जॉर्ज फर्नांडिस आगे
आए थे या नहीं?
चुनाव परिणाम आ
ही रहे थे कि नरेन्द्र मोदी ने जयललिता और ममता बनर्जी को टेलीफोन पर बधाई दी।
उन्होंने दोनों को बधाई देते हुए ट्वीट भी किए। मोदी इन दोनों के महत्व को जानते
हैं। सन 2019 के चुनाव के पहले और बाद में इन दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
लोकसभा के 2014 के चुनाव के बाद भी मोदी ने इन दोनों के साथ सम्पर्क बनाया था। यह
सम्पर्क उसके पहले से बना हुआ है। सन 2011 के आसपास उन्होंने केन्द्र सरकार के
खिलाफ मोर्चा खोलना शुरू कर दिया था। उस साल जया और ममता ने अपने-अपने राज्यों में
सत्ता संभाली थी।
राष्ट्रीय एकता
परिषद की बैठकें हों या योजना आयोग मोदी ने इन दोनों से परामर्श किया। आतंक विरोधी
संगठन एनसीटीसी को रुकवाने में मोदी के साथ इन दोनों नेताओं की भूमिका भी
महत्वपूर्ण रही है। ममता बनर्जी को वोट देने वालों में मुसलमानों की तादाद बड़ी
है, इस वजह से ममता बनर्जी खुलकर मोदी सरकार की तारीफ कभी नहीं करेंगी। पर
मौके-बेमौके उनका केन्द्र को सहयोग मिलेगा। यह बात अब जीएसटी के मामले में स्पष्ट
होगी, जिसमें बीजेपी को तृणमूल का समर्थन मिलने की आशा है।
इन चुनावों के
तीन संकेत साफ हैं। कांग्रेस का क्रमशः लोप हो रहा है, भाजपा का प्रभाव क्षेत्र
बढ़ रहा है और तीसरा, क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका बढ़ने जा रही है। बीजेपी के
लिए पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार खुल गया है। असम के बाद पार्टी ने बंगाल में पहले
से ज्यादा मजबूती के साथ पैर जमाए हैं। और केरल में उसने प्रतीकात्मक, पर
प्रभावशाली प्रवेश किया है। तीनों जगह उसने भी गठबंधन किए हैं। बंगाल में वाम
मोर्चा की स्पेस बीजेपी लेना चाहती है। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे ने गाँव-गाँव
में अपनी जड़ें जमा रखी हैं। उन्हें हटाकर उनकी जगह लेने की सामर्थ्य बीजेपी के
पास है, क्योंकि उसके पास सीपीएम जैसा काडरबेस संगठन है।
सीपीएम का पार्टी
काडर दबंगई से काम करता है। दोनों राज्यों में राजनीतिक आधार पर जितनी हत्याएं
होती हैं उतनी दूसरे राज्यों में नहीं होतीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी काडर
आधारित संगठन है। शायद यही वजह है कि केरल में उसके कार्यकर्ताओं पर हमले हो रहे
हैं। यह बात उसके महत्व को रेखांकित करती। केरल और बंगाल दोनों जगह ग्रामीण
राजनीति पर संगठन शक्ति का दबदबा है। बंगाल में वाम मोर्चा की हार को पाँच साल हो
चुके हैं, पर अभी उसके पास संगठन है। देखना होगा कि पार्टी का संगठन इस दूसरी हार
को सहन कर पाएगा या नहीं।
बंगाल में कांग्रेस और वाममोर्चे के गठबंधन के कारण अनुमान था कि मुकाबला काँटे का होगा।
पर मुकाबला एकतरफा रहा। तृणमूल कांग्रेस ने लगभग तीन-चौथाई बहुमत हासिल कर लिया।
वाममोर्चे और कांग्रेस के गठबंधन ने नई सम्भावनाएं पैदा की थीं, पर इसके नतीजे
इतने विस्मयकारी होंगे ऐसा सोचा नहीं गया था। अब देखना होगा कि क्या कांग्रेस इस
गठबंधन को जारी रखेगी या नहीं। पर ममता की वापसी का मतलब है वाम मोर्चा का मृत्यु
लेख।
चौंतीस साल तक लगातार शासन करने वाली पार्टी सीपीएम अब बंगाल में तीसरे नम्बर
पर है। उसे कांग्रेस से भी कम सीटें मिलीं। विस्मय इस बात पर भी है कि बीजेपी वोट
प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस के करीब आ गई है। कांग्रेस को 12.3 बीजेपी को 10.2
फीसदी। पिछली बार तृणमूल के हाथों सत्ता गंवाने के बाद माकपा विपक्ष की नंबर एक
पार्टी थी। इसबार वह तीसरे नंबर पर आ गई है। विपक्ष में पहला स्थान अब कांग्रेस का
है, जिसने पिछली बार तृणमूल के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। माकपा को छब्बीस सीटें और
19.7 फीसदी वोट मिले हैं। सन 2011 में उसे 30.08 फीसदी वोट मिले थे। यानी कि पार्टी के प्रतिबद्ध वोटरों
की संख्या में गिरावट आई है। अब राष्ट्रीय दल के रूप में भी उसकी मान्यता खतरे में
है।
इन चुनावों को बाद राष्ट्रीय
राजनीति करवट लेगी। बीजेपी को चुनौती देने वाले राष्ट्रीय मोर्चे की सुगबुगाहट है।
इसका नेतृत्व क्या कांग्रेस करेगी, जो अपने इतिहास के सबसे नाजुक मोड़ पर है? उसे अब क्षेत्रीय दलों की मदद लेनी पड़ेगी। उनकी शर्तें
मानने को मजबूर होना पड़ेगा। ममता बनर्जी बराबरी के स्तर पर सोनिया गांधी से बात करेंगी।
सन 2011 के बंगाल विधानसभा चुनाव में भी उनकी शर्तों पर ही कांग्रेस से समझौता हुआ
था। देखना यह भी है कि कांग्रेस के नेतृत्व का मामला किस करवट बैठता है।
ममता, जयललिता, करुणानिधि (या
स्टैलिन), चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, उद्धव ठाकरे, मुलायम
सिंह, मायावती, नीतीश कुमार, लालू यादव, एचडी देवेगौडा, अरविन्द केजरीवाल, बद्रुद्दीन अजमल, असदुद्दीन ओवेसी और प्रकाश सिंह
बादल के इर्द-गिर्द अगले तीन साल की राजनीति चलेगी। अगले साल 2017 में हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव
होंगे। राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति
पद के चुनाव भी होंगे। एनडीए के मुकाबले तब तक राष्ट्रीय स्तर पर कोई मोर्चा बन
पाएगा या नहीं अभी कहना मुश्किल लग रहा है।
सन 2019 के लोकसभा
चुनाव के ठीक पहले 2018 में जिन राज्यों के चुनाव होंगे, वहाँ बीजेपी और उस
सम्भावित मोर्चे की टक्कर हो सकती है। देखना यह भी होगा कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में क्या कांग्रेस सीधे बीजेपी को टक्कर देगी या
किसी गठबंधन के साथ सामने आएगी। इन राज्यों में तीसरे मोर्चे यानी जनता की बड़ी
हैसियत नहीं है, पर उनका प्रतीकात्मक महत्व है। कर्नाटक में जेडीएस, नीतीश कुमार
के प्रस्तावित महागठबंधन में है, पर क्या कांग्रेस उसके साथ कर्नाटक में गठबंधन कर
सकेगी? ऐसे कई सवाल हैं। इनके जवाब अब मिलेंगे।
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