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Wednesday, April 13, 2016

प्रगति करनी है तो बैंकों को बदलिए

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सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को व्यक्तियों और इकाइयों पर बैंकों के बकाया कर्ज के बारे में रिजर्व बैंक की ओर दी गई जानकारी सार्वजनिक करने की मांग के पक्ष में  नजर आया। पर आरबीआई ने गोपनीयता के अनुबंध का मुद्दा उठाते हुए इसका विरोध किया। मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और न्यायमूर्ति आर भानुमती के पीठ ने कहा- इस सूचना के आधार पर एक मामला बनता है। इसमें उल्लेखनीय राशि जुड़ी है। मालूम हो कि रिजर्व बैंक ने मंगलवार को सील बंद लिफाफे में उन लोगों के नाम अदालत के समक्ष पेश किए जिन पर मोटा कर्ज बाकी है। इस सूचना को सार्वजनिक करने की बात पर भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से इसका विरोध किया गया। केंद्रीय बैंक ने कहा कि इसमें गोपनीयता का अनुबंध जुड़ा है और इन आँकड़ों को सार्वजनिक कर देने से उसका अपना प्रभाव पड़ेगा। पीठ ने कहा कि यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण है, लिहाजा अदालत इसकी जांच करेगी कि क्या करोड़ों रुपए के बकाया कर्ज का खुलासा किया जा सकता है। साथ ही इसने इस मामले जुड़े पक्षों से विभिन्न मामलों को निर्धारित करने को कहा जिन पर बहस हो सकती है। पीठ ने इस मामले में जनहित याचिका का दायरा बढ़ा कर वित्त मंत्रालय और इंडियन बैंक्स एसोसिएशन को भी इस मामले में पक्ष बना दिया है। इस पर अगली सुनवाई 26 अप्रैल को होगी। याचिका स्वयंसेवी संगठन सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन ने 2003 में दायर की थी। पहले इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के आवास एवं नगर विकास निगम (हडको) द्वारा कुछ कंपनियों को दिए गए कर्ज का मुद्दा उठाया गया था। याचिका में कहा गया है कि 2015 में 40000 करोड़ रुपए के कर्ज बट्टे-खाते में डाल दिए गए थे। अदालत ने रिजर्व बैंक से छह हफ्ते में उन कंपनियों की सूची मांगी है जिनके कर्जों को कंपनी ऋण पुनर्गठन योजना के तहत पुनर्निर्धारित किया गया है। पीठ ने इस बात पर हैरानी जताई कि पैसा न चुकाने वालों से वसूली के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए।

 
हम विजय माल्या को लेकर परेशान हैं। वे भारत आएंगे या नहीं? कर्जा चुकाएंगे या नहीं? नहीं चुकाएंगे तो बैंक उनका क्या कर लेंगे वगैरह। पर समस्या विजय माल्या नहीं हैं। वे समस्या के लक्षण मात्र हैं। समस्या है बैंकों के संचालन की। क्या वजह है कि सामान्य नागरिक को कर्ज देने में जान निकल लेने वाले बैंक प्रभावशाली कारोबारियों के सामने शीर्षासन करने लगते हैं? उन्हें कर्ज देते समय वापसी के सुरक्षित दरवाजे खोलकर नहीं रखते। बैंकों के एक बड़े पुनर्गठन का समय आ गया है। यह मामला इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में उठ रहा है। चार रोज पहले इस काम के लिए गठित बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) ने अपनी पहली बैठक में जरूरी पहल शुरू कर दी है।

सरकारी बैंकों को लेकर हर रोज कोई न कोई रोचक तथ्य सामने आता है। दिल्ली के एक अंग्रेजी अख़बार ने सार्वजनिक क्षेत्र के 28 बैंकों से सूचना के अधिकार के तहत एक अर्जी देकर यह पूछा कि 100 करोड़ या उससे ज्यादा की कर्ज माफी का अंतिम अधिकार किसके पास है? इसका जवाब हर बैंक ने अपने-अपने तरीके से दिया है। कुछ बैंकों ने तो यह भी कहा कि यह गोपनीय जानकारी है। स्टेट बैंक का कहना है कि यह सम्बद्ध समिति का ‘विशेषाधिकार’ यानी डिस्क्रीशनरी पावर है। बैंक ने नहीं बताया कि यह स्थायी रूप से गठित समिति है या अस्थायी है।

ज्यादातर बैंकों के निदेशक मंडल के पास यह अधिकार है। आईडीबीआई ने कहा कि यह जानकारी नहीं दी जा सकती क्योंकि आरटीआई एक्ट की दारा 8(1)(डी) के तहत यह जानकारी केवल आंतरिक वितरण के लिए है। बेशक सार्वजनिक अधिकारी बहुत सी जानकारी जनता को देने से रोक सकते हैं, पर जब सार्वजनिक हित इतना बड़ा हो तो ऐसी सूचना रोकने का मतलब क्या है?

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक, 2013 से 2015 के वित्तीय वर्षों में 28 सरकारी बैंकों ने करीब 1.14 लाख करोड़ रुपए के कर्जों को बट्टे खाते में दिखाया है। इस रकम को 2004 से जोड़ें तो यह 2.11 लाख करोड़ रुपए बनती है। सन 2004 से 2012 के बीच एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) यानी डूबे हुए लोन की रकम में 4 फीसदी की वृद्धि हो रही थी, जो 2013 से 2015 के बीच 60 फीसदी हो गई। देश के सभी बैंकों के एनपीए की राशि 2015 में 3.6 लाख करोड़ रुपए हो चुकी है, जो 2011 में 71,000 करोड़ थी।

कर्जों को बट्टे खाते में डालना भी बैंकिंग प्रक्रिया है। अकसर वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में आए बदलाव कारोबार को प्रभावित करते हैं, जैसा कि इन दिनों हो रहा है। बट्टे खाते का मतलब कर्ज की पूरी तरह माफी नहीं होता। और न इसे रुपया डूबना मानना चाहिए। उसकी वसूली की समयावधि बढ़ जाती है या तरीका बदलता है। सवाल डूबे कर्ज से ज्यादा बैंकों को चलाने की व्यवस्था का है। अच्छी खबर यह है कि बैंकिंग प्रणाली को रास्ते पर लाने की पहल शुरू हो गई है।

पिछले शुक्रवार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की दशा व दिशा तय करने के लिए गठित बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) की पहली बैठक हुई। इसमें सबसे पहले सरकारी बैंकों का विलय कर छह या सात करने के प्रस्ताव पर चर्चा हुई। पूर्व नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक विनोद राय को इस ब्यूरो का अध्यक्ष बनाया गया है। इस बैठक में वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा, आरबीआई गवर्नर डॉ. रघुराम राजन, डिप्टी गवर्नर एसएस मुंद्रा भी शामिल थे।

इस साल के बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संकेत किया था कि सरकारी बैंकों का विलय कर उनकी संख्या कम की जाएगी। आने वाले समय में तेज आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए बैंकों को ज्यादा कुशल बनाने की जरूरत होगी। ब्यूरो भी अस्थायी व्यवस्था है। इसकी जगह बैंक इन्वेस्टमेंट कंपनी (बीआईसी) लेगी, जो सभी सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों के लिए होल्डिंग कंपनी के तौर पर काम करेगी। बीआईसी की शेयरधारिता अलग-अलग हो सकती है, लेकिन यह बैंकों में पूंजी डाले जाने के लिए जिम्मेदार होगी।

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराज रामन ने इस रोग के इलाज के लिए बड़ी सर्जरी का सुझाव दिया था। हाल में संसद की एक स्थायी समिति ने बैंकों के एनपीए या बट्टे खाते की समस्या पर अपनी रपट संसद के सामने रखी थी. समिति ने इस समस्या की गहराई की ओर इशारा किया है और यह भी बताया है कि निजी बैंकों के मुकाबले सरकारी बैंकों का हाल ज्यादा खराब है। इसमें देश की अर्थ-व्यवस्था की भूमिका भी है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी कम्पनियों की आर्थिक स्थिति का सही आकलन नहीं कर पाए। दूसरे कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण और लोक अदालतें जरूरत भर की राशि वसूल नहीं कर पाईं। इसका मतलब है कि कर्ज वसूली से जुड़ी न्यायिक व्यवस्था को बेहतर बनाने की जरूरत है।

दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति ऐसे सवालों की अनदेखी करती है। संसद के इस सत्र में बैंकों की इस दुर्दशा पर गहराई से विचार होना चाहिए था, जो नहीं हुआ। बजट सत्र का अवसान भी समय से पहले हो गया। बैंकिंग क्षेत्र के लगातार गहराते संकट से निपटने के लिए कर्जों की वसूली से जुड़ी व्यवस्थाओं पर जल्द से जल्द ध्यान देना होगा। बड़ी औद्योगिक जरूरतों और लम्बी अवधि की पूँजी के लिए दूसरे रास्तों पर जाना होगा। इसके लिए बॉण्ड बाजार का सहारा लेना चाहिए। देश में उद्योगों को बैंकों का कर्ज जीडीपी का 37 फीसदी है और बॉण्ड बाजार का शेयर 10.5 फीसदी। इसे उल्टा होना चाहिए और शेयर बाजार से बड़ा होना चाहिए।

बैंकों की साख से पूँजी निवेश पर भी असर पड़ेगा। मूडीज़ इन्वेस्टर्स सर्विस ने इस साल के बजट के संदर्भ में कहा है कि बजट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की साख के लिए नकारात्मक है क्योंकि पूंजी निवेश के खाते में 1.45 लाख करोड़ रुपए की जरूरत है, जबकि बजट में इसके लिए 25,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। हाल में रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कमी की घोषणा की है। बैंकों को अब पूँजी की जरूरत होगी, क्योंकि कर्ज की माँग बढ़ेगी। आर्थिक विकास का पहिया गति पकड़ने वाला है।  


inext में प्रकाशित

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