तीन लेखकों की पुरस्कार-वापसी के बाद स्वाभाविक रूप से कुछ
बुनियादी सवाल उठे हैं. क्या इन लेखकों की अपील सरकार तक पहुँचेगी? क्या उनके पाठकों तक इस बात का कोई
संदेश जाएगा? एक
सवाल उन लेखकों के सामने भी है जो अतीत में सम्मानित हो चुके हैं या होने वाले है. क्या उन्हें भी सम्मान लौटाने चाहिए? नहीं लौटाएंगे तो क्या मोदी सरकार के
समर्थक माने जाएंगे? पुरस्कार
वापसी ने इस मसले को महत्वपूर्ण बना दिया है. लगातार बिगड़ते सामाजिक माहौल की तरफ
किसी ने तो निगाह डाली. किसी ने विरोध व्यक्त करने की हिम्मत की. दुर्भाग्य है कि
इस दौरान गुलाम अली के कार्यक्रम के खिलाफ शिवसेना ने हंगामा खड़ा कर रखा है. इस तरह की बातों
का विरोध होना ही चाहिए. डर यह भी है कि यह इनाम वापसी संकीर्ण राजनीति का हिस्सा बनकर
न रह जाए, क्योंकि इसे उसी राजनीतिक कसौटी पर रखा जा रहा है जिसने ऐसे हालात पैदा किए हैं.
ये पुरस्कार मोदी सरकार ने नहीं दिए थे. और न ये पुरस्कार
सरकारी हैं. जिन लेखकों ने सम्मान लौटाए हैं, उन्हें जब पुरस्कार मिले थे तब देश
में मोदी सरकार नहीं थी. उदय
प्रकाश, नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी के बाद बुधवार को उर्दू के लेखक रहमान
अब्बास ने महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा की है. उन्होंने
एक खुली चिट्ठी में दूसरे प्रतिष्ठित लेखकों से अपील की है कि वे भी अपनी आवाज
बुलंद करें. पिछले हफ्ते छह कन्नड़ लेखकों ने प्रोफेसर
कालबुर्गी की हत्या के मामले में हो रही देरी के विरोध में अपने पुरस्कार वापस किए
थे.
इसे राजनीतिक मुहिम भी माना जा सकता है. पर यह
मुहिम बड़ी शक्ल लेगी तो उसका मतलब कुछ और होगा. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले
विदेशी अखबारों में कुछ भारतीय लेखकों ने नरेन्द्र मोदी को हराने की अपील जारी की
थी. अपीलों के बावजूद मोदी सरकार जीतकर आई. हालांकि लेखकों
ने अलग-अलग संदर्भों में अपने-अपने फैसले किए हैं, पर इनका प्रस्थान बिन्दु
नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे और प्रो कालबुर्गी की हत्याओं से जुड़ा है. देखना
यह है कि भारतीय जनता इस खतरे से वाकिफ है भी या नहीं. और यह भी कि लेखक क्या जनता
की भावनाओं को अच्छी तरह समझता है.
इसके पहले पेंग्विन प्रकाशन ने अमेरिकी लेखक वेंडी डोनिगर की
किताब 'द हिंदू
: एन
ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री' की
प्रतियों को बाजार से वापस ले लिया. इस किताब को हिंदुओं के लिए अपमानजनक बताते
हुए इसके खिलाफ अदालत में याचिका दायर की गई थी. हालांकि यह आपसी समझौता था, पर
अभिव्यक्ति से जुड़े सवाल उसमें शामिल थे. एक किताब को दबाव डालकर वापस कराया गया.
उसके पीछे सहमति नहीं दबाव काम कर रहा था. हालांकि तब तक दिल्ली की गद्दी पर भाजपा
का कब्जा हुआ नहीं था. भाजपा की सरकार बनने के बाद भारतीय इतिहास परिषद और शिक्षा
और संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं में नई नियुक्तियों को लेकर सवाल उठे.
पुरस्कार वापसी को लेकर लेखकों से भी सवाल किया गया है. नयनतारा
सहगल ने दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगों के बावजूद सम्मान ग्रहण किया. आज वे
नरेन्द्र मोदी के मौन पर व्यथित हैं, पर 1984 में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने
बड़ा पेड़ गिरने वाला बयान दिया था. उन्होंने पुरस्कार लिया भी था तो 1992 में
बाबरी मस्जिद का विध्वंस दादरी मामले के मुकाबले छोटा न था. तभी वापस कर देतीं. पर
इसका भी जवाब है. तब उन्होंने गलती कर दी थी, तो क्या आज भी गलती करें? आज पुरस्कार वापस करने में बुराई ही
क्या है?
सरकार पर पुरस्कार वापसी से नहीं सामाजिक दबाव से फर्क पड़ता
है. क्या लेखकों का कदम बिगड़ते सामाजिक माहौल को ठीक कर सकेगा? क्या यह माहौल केवल भारतीय जनता
पार्टी की देन है? या
इसमें देश की समूची चुनावी-राजनीति का योगदान है? क्या यह राजनीति हमारे सामाजिक
अंतर्विरोधों का फायदा उठा रही है?
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बुधवार को एक समारोह में कहा कि हम
देश के संस्कारों को खत्म नहीं होने देंगे. हालांकि उन्होंने दादरी की घटना का जिक्र
नहीं किया, पर उनका आशय क्या था यह फौरन समझ में आता है. उन्होंने कहा कि हम
भारतीय सभ्यता के मूल्यों को किसी कीमत पर टूटने नहीं दे सकते. हमें अनेकता में एकता
और सहिष्णुता की भावना का सम्मान करना चाहिए और हमेशा इसका ख्याल रखना चाहिए. क्या
उनका यह संदेश प्रधानमंत्री मोदी के नाम था? बहरहाल मोदी ने उनके इस बयान के नीचे अपने दस्तखत भी कर दिए हैं. क्या इतना काफी है. जिन्हें मोदी पर संदेह है वह इतनी आसानी से दूर होने वाला नहीं है.
इस साल जनवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था
कि भारत में उपजी धार्मिक असहिष्णुता ने महात्मा गांधी की मुहिम को प्रभावित किया
है, जबकि गांधी की विरासत हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है. उसके कुछ दिन बाद ही
अमेरिकी अखबार ‘न्यूयार्क
टाइम्स’ ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मुद्दे पर चुप्पी तोड़ने की अपील की थी.
प्रधानमंत्री को इसके बाद अपनी बात कहने के कई मौके मिले, पर उन्होंने कभी जोर
देकर नहीं कहा कि देश में नफरत और असहष्णुता का माहौल बनने नहीं दिया जाएगा. लोकसभा
चुनाव के दौरान जहरीले बयानों को लेकर उनकी प्रतिक्रिया इनकी कठोर कभी नहीं रही
जिससे माना जाता कि वे कोई कड़ा संदेश दे रहे हैं.
न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा कि मोदी की लगातार चुप्पी लोगों को यह
संकेत दे रही है कि वे न तो उपद्रवी तत्वों को नियंत्रित कर सकते हैं और न ही करना
चाहते हैं. ऐसे मौके पर जब भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी भूमिका को मजबूत कर
रहा है, देश के भीतर से ऐसी खबरों का आना अच्छी बात नहीं है. और अब जब देश के
लेखकों और संस्कृतकर्मियों ने विरोध के स्वर तेज कर दिए हैं प्रधानमंत्री को इस
तरफ ध्यान देना चाहिए. देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ेगा तो विकास सम्भव ही नहीं
होगा.
इस सिलसिले में असग़र वज़ाहत की
प्रतिक्रिया ध्यान खींचती है. उनका कहना है, ‘क्या
मोदी सरकार की नीतियों के प्रति विरोध दर्ज कराने का यही एक रास्ता बचा है कि जिन
लेखकोँ को साहित्य अकादमी सम्मान मिला है वे उसे वापस कर दें? जिन्हें
नहीं मिला वो अपना विरोध कैसे दर्ज करेंगे?
क्या किसी और ढंग से दर्ज किए जाने
वाले विरोध को भी वही मान्यता मिलेगी जो सम्मान वापस कर के विरोध दर्ज करने वालों
को मिल रही है?’ उनका कहना
है, मैं उन लेखकों और उनकी भावनाओं का
सम्मान करता हूँ और उनके साथ अपने को खड़ा पाता हूँ जिन्होंने सम्मान लौटा दिए हैं.
लेकिन सम्मान लौटा देना मोदी-भाजपा विरोध का मानक या आधार न माना जाए.
दुनियाभर में लेखक सामाजिक आंदोलनों का
नेतृत्व करते रहे हैं. हमारे यहाँ भी उन्हें आगे आना चाहिए. वे जनता से सीधे जुड़े
होते हैं इसलिए उन्हें पता है कि समस्या का मूल कहाँ है. वे पुरस्कार लें या
छोड़ें यह उनकी इच्छा. महत्वपूर्ण पुरस्कार नहीं उनका रचना-धर्म है. उन्हें ऐसा
कुछ रचना चाहेिए जो जनता की आँखें खोले. वह इस राजनीति से जुड़ा हो या इन परिस्थितियों से रास्ता दिखाने वाला हो. संकट से घिरे समाजों का साहित्य
श्रेष्ठ होता है. हमारा संकट छोटा नहीं है.
प्रमाथेश जी, बिलकुल सही कहा आपने। लेखक समाज को सही दिशा दे सकता है...
ReplyDeleteप्रमुख मुद्दा जनता की असहिष्णुता का है । जनता को सही गलत के पहचान की दृष्टि दीजिये । पुरस्कार वापसी तो एक सस्ता stunt माना जाएगा । एक 'feel bad' माहोल तैयार करने के लिए ।
ReplyDeleteदुनियाभर में लेखक सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे हैं. हमारे यहाँ भी उन्हें आगे आना चाहिए. वे जनता से सीधे जुड़े होते हैं इसलिए उन्हें पता है कि समस्या का मूल कहाँ है. वे पुरस्कार लें या छोड़ें यह उनकी इच्छा. महत्वपूर्ण पुरस्कार नहीं उनका रचना-धर्म है. उन्हें ऐसा कुछ रचना चाहेिए जो जनता की आँखें खोले. वह इस राजनीति से जुड़ा हो या इन परिस्थितियों से रास्ता दिखाने वाला हो. संकट से घिरे समाजों का साहित्य श्रेष्ठ होता है. हमारा संकट छोटा नहीं है.
ReplyDelete……… एकदम सटीक विश्लेषण किया है आपने ...
पुरस्कार वापसी की होड़ इन प्रबुद्ध लेखकों की राजनीतिक आकाओं से प्रेरित प्रतीत होती है , समझ नहीं आ रहा कि उन्हें यह पुरस्कार न तो सरकार ने दिए थे व न ही इनका सरकार से लेना देना है , केवल सुर्खियां बटोरने वाले यह प्रबुद्ध जन इस समय इस से क्या सिद्ध करना चाहते हैं यह समझ से पर है। जिस संस्था से यह सम्मानित हुए वह भी सरकारी नहीं है , इसलिए इनके कदम उल्टा इनको हास्यास्पद बना रहे हैं , व इनके लेखन पर भी अंगुलियां उठाने को मजबूर करते हैं कि क्या वह एक छद्म लेखन है , यह बात बहुत कटु प्रतीत होगी लेकिन आम जन को भी कुछ तो सोचने को प्रेरित करती ही है ,
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देश का संकट, संकट में देश - ११११ वीं बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देश का संकट, संकट में देश - ११११ वीं बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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