हम बेतहाशा चुनावबाजी के शिकार हैं। लगातार चुनाव के जुमले हम पर हावी हैं। इसे पूरी तरह दोषी न भी माने, पर राजनीति ने भी हमारे सामाजिक जीवन
में जहर घोला है। दादरी कांड पर पहले तो नरेंद्र मोदी खामोश रहे, फिर बोले कि राजनेताओं के
भाषणों पर ध्यान न दें। उनका मतलब क्या है पता नहीं, पर इतना जाहिर है कि चुनावी दौर के भाषणों के पीछे
संजीदगी नहीं होती। केवल फायदा उठाने की इच्छा होती है। इस संजीदगी को खत्म करने में मोदी-पार्टी की बड़ी भूमिका है। पर ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा न उठाती हों। सामाजिक जीवन में जहर घोलने में इस चुनावबाजी की भी भूमिका है। भूमिका न भी हो तब भी सामाजिक शिक्षण विहीन राजनीति का इतना विस्तार क्या ठीक है?
पिछले साल लोकसभा चुनाव के ठीक पहले
जहरीले बयानों का एक दौर भी चला था। देश में शायद ही कोई चुनाव हो जब
सामाजिक-साम्प्रदायिक विद्वेष की बातें न हों और अनाप-शनाप आरोप प्रत्यारोप न लगते
हों। चुनाव के दौरान काफी काला धन बाहर आता है। कुछ साल पहले तक बूथ कैप्चरिंग,
गुंडागर्दी और हत्याओं की भी चुनावों से घनिष्ठ संगत रहती थी। व्यवस्थागत बदलाव के
कारण हालात कुछ सुधरे हैं, पर इसमें दो राय नहीं कि चुनाव का दौर देश के सामाजिक
जीवन में जहर भर कर जाता है। क्या इसके लिए चुनाव व्यवस्था दोषी है? या राजनीति या समाज, जिसके भीतर विसंगतियों की भरमार है? कोई एक बात इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। चुनाव व्यवस्था किसी न किसी
रूप में सामाजिक जीवन के सच को व्यक्त करती है।
संयोग है कि देश में हर वक्त कहीं न
कहीं चुनाव होते रहते हैं। इन दिनों बिहार में चुनाव हो रहे हैं कुछ दिन बाद असम,
बंगाल, तमिलनाडु और केरल में चुनाव का बिगुल बजने लगेगा, उसके अगले साल यानी 2017
में गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में चुनाव
हैं। यह क्रम हर साल चलेगा। देश में 18 राज्य ऐसे हैं जिनमें लोकसभा चुनाव से 6
महीने या एक साल पहले, 6 महीने या एक साल बाद हो रहे हैं। इन्हें ही
लोकसभा चुनाव के साथ जोड़ा जा सके तो न सही आम चुनाव पर एक हद तक चुनाव का बड़ा
काम एक साथ पूरा किया जा सकता है।
आज की स्थिति यह है कि हर साल किसी न
किसी राज्य में चुनाव होता है। फिर पंचायत राज से जुड़े चुनाव होंगे। विडंबना है
कि जिन चुनावों में आर्थिक प्रशासनिक प्रश्नों को सामने आना चाहिए, उनपर सामाजिक
विद्वेष के सवाल हावी रहते हैं। इन बातों पर देश के नागरिकों और प्रबुद्ध जन को
विचार करना ही है, साथ ही क्या इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि चुनाव
प्रक्रिया को फिर से ढर्रे पर लाने की कोशिश की जाए। देश में 1952, 1957, 1962 और
1967 तक ये चुनाव कमोबेश एक साथ हुए। हालांकि बीच में एकाध राज्यों में सरकारें
गिरीं, पर आम चुनाव एक बड़ी प्रक्रिया के रूप में चलते रहे।
सन 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव, विधानसभा के चुनावों से पहले कराए गए। उन्हें 1972 में होना था। चुनाव
से पहले इंदिरा को एक और तो पार्टी के भीतर उठ रहे विरोध का सामना करना पड़ रहा
था। दूसरी तरफ उन्होंने राजनीतिक रूप से अपने पैर मजबूत करने के लिए बड़े फैसले
शुरू करने शुरू किए। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। प्रीवी पर्स को खत्म किया।
इन फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी। ऐसी तमाम वजहों से इंदिरा गांधी ने समय
से चौदह महीने पहले संसद भंग कर दी और जनता के बीच जाने का फैसला किया।
सन 1971 से लोकसभा और विधानसभाओं के
चुनाव अलग-अलग हो गए। इसके बाद देश में अस्थिर सरकारों का दौर भी चला, जिसके बाद
विधानसभाओं के चुनाव भी अलग-अलग वर्षों में होने लगे।
अब स्थिति यह है कि पिछले साल लोकसभा
चुनाव के साथ आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के चुनाव हुए। उसके बाद हरियाणा और
महाराष्ट्र के चुनाव हुए। फिर जम्मू-कश्मीर और झारखंड के। दिल्ली विधान सभा के साल
भर बाद फिर चुनाव हुए। चुनाव के कारण राजनीति हमेशा गरमाई रहती है, जिसकी पहली चोट
सामाजिक सद्भाव पर पड़ती है। देश की सामाजिक चूलों को हिला कर रख देना हमारी
राजनीतिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण कारक बन गया है। क्या राजनीति हमें लड़ाने का
काम कर रही है और इसके पीछे चुनाव जिम्मेदार हैं?
लोकतंत्र के अंतर्विरोधों पर अलग से
विचार किया जाना चाहिए, पर हमें यह भी सोचना चाहिए कि आम चुनाव की अपनी मूल
स्थापना पर लौटें। ताकि देश के ज्यादा से ज्यादा हिस्से में एक साथ चुनाव हो जाएं।
इससे खर्चा बचेगा, प्रशासन को अपना काम करने का मौका मिलेगा। सबसे बड़ी बात
सामाजिक जीवन को जहरीला बनाने वाली प्रवृत्तियों को खुलकर खेलने का मौका न मिले। देश
के हर समय चुनाव के मोड में रहने के फायदे भी हैं पर नुकसान भी कम नहीं है। यह बात
देश के नीति-निर्धारकों को भी समझ में आ रही है इसीलिए संसद की एक स्थायी समिति ने
इस बात पर विचार करना शुरू किया है कि लोकसभा और तमाम राज्यों के विधानसभा चुनाव क्या
एक साथ कराए जा सकते है या नहीं। कार्मिक प्रश्नों, सार्वजनिक शिकायतों और विधि
तथा न्याय से जुड़ी यह समिति इस साल नवंबर में संसद को अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।
वरिष्ठ सांसद ईएम सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में बनी यह समिति इन दिनों
अलग-अलग इलाकों में जाकर विचार-विमर्श कर रही है।
अधिकतर लोगों की राय यह है कि पांच साल
में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव हों। संसदीय समिति की
सिफारिशें मिलने के बाद ही पता लगेगा कि इस काम को किस तरीके से व्यावहारिक बनाया
जा सकता है। एक रास्ता यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ 12 से 18 राज्यों की
विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जाएं। यानी जिन राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साल
भर पहले या साल भर बाद होने हैं उन्हें तभी कराया जाए। यानी इसके लिए कुछ सदनों का
कार्यकाल बढ़ाना होगा और कुछ सदनों को समय से पहले भंग करना होगा। इस काम को
संविधान सम्मत भी करना होगा, इसलिए इस बात के अनेक पहलुओं का भली भांति अध्ययन
करना होगा। इसके अलावा इसके लिए राजनीतिक दलों के बीच सहमति भी बनानी होगी।
अमेरिका में सारे चुनाव ठीक समय पर और
निर्धारित समय पर होते हैं। हमारी व्यवस्था जटिल है, पर इच्छा शक्ति हो तो हम भी
इसका कोई फॉर्मूला तैयार कर सकते हैं। देश की राजनीतिक व्यवस्था में अब स्थिरता
आती जा रही है। सन 1999 के बाद से बनी सभी लोकसभाओं ने अपना कार्यकाल पूरा किया
है। सन 2004 में समय से कुछ पहले चुनाव कराए गए थे, पर ऐसा सरकार के निश्चय के
कारण हुआ था कोई राजनीतिक दबाव नहीं था। शायद अगले दसेक साल में ज्यादातर राज्य
सरकारें स्थिर होने लगेंगी। राज-व्यवस्था भी इसके लिहाज से प्रौढ़ हो जाएगी। चुनाव
आयोग ने चुनाव सुधार के अपने कार्यक्रम में इसे भी शामिल किया है। राजनीतिक
व्यवस्था के सुचारु होने के साथ राजनीतिक संस्कृति को भी प्रौढ़ होना चाहिए। देश
के सामाजिक ताने-बाने को तोड़-कर बनाई गई राजनीतिक व्यवस्था चलेगी नहीं।
प्रशासनिक कार्य के साथ साथ स्कूल कॉलेजों को भी कार्य करने का ज्यादा मौका मिलेगा। सरकारी शिक्षण संस्थान के कार्यकलाप पर बार बार के चुनाव से बहुत व्यवधान पड़ता है । EVM के आने से हो सकता है कुछ सुधार हुआ हो पर हमारे स्कूलों में तो क्लास रूम में महीनो तक बैलट बॉक्स पड़े रहते थे । अभी भी कालेजों में सेशन पीछे चलते हैं जिसके पीछे एक बड़ा कारण चुनाव है । हमारे यहाँ आम स्टूडेंट को कहते सुन सकते हो अब एक्जाम तो चुनाव के बाद ही होंगे या रजिस्ट्रेशन फॉर्म तो इलेक्शन बाद ही भरे जायेगें । क्योंकि वैसे भी डेट का पता तो होता नहीं बस अटकलों पर सब चलते हैं ।
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