वन रैंक, वन पेंशन को लेकर विवाद अनावश्यक रूप से बढ़ता जा रहा है। सरकार को यदि इसे देना ही है तो देरी करने की जरूरत नहीं है। साथ ही पूर्व सैनिकों को भी थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। जिस चीज के लिए वे तकरीबन चालीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे हासिल करने का जब मौका आया है तब कड़वाहट से क्या हासिल होगा? प्रधानमंत्री की इच्छा थी कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस घोषणा को शामिल किया जाए, पर अंतिम समय में सहमति नहीं हो पाई। यह बात पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने बताई है, जो इस मामले में मध्यस्थता कर रहे थे। यह तो जाहिर है कि सरकार के मन में इसे लागू करने की इच्छा है।
धरने पर बैठे पूर्व फौजियों ने पहले माना था कि वे अपने विरोध को ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे लोगों ने आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया। बल्कि क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में बदल दिया। वे कहते हैं कि यह पैसे की लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान का मामला है। इस बीच पूर्व सैनिकों के साथ दिल्ली पुलिस ने जो अभद्र व्यवहार किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। हम इस तरह सैनिकों का सम्मान करते हैं? कह सकते हैं कि डेढ़ साल से सरकार क्या कर रही थी? पर ऐसा भी नहीं कि वह कन्नी काट रही है।
फैसला न हो पाने के दो बड़े कारण हैं। एक, वित्तीय व्यवस्था और दूसरे स्पष्ट फॉर्मूले का न बन पाना। इस साल के रक्षा सेनाओं की पेंशन के बजट की मद में 54,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं। अनुमान है कि ओआरओपी लागू करने से सरकार का खर्च 18 से 20 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष बढ़ेगा। जब भी भविष्य में पेंशन बढ़ेगी यह खर्च उसी अनुपात में बढ़ेगा। वित्त मंत्रालय का कहना है कि इसके बाद अन्य सेवाओं के कर्मचारी, खासतौर से बीएसएफ, सीआरपीएफ जैसे अर्ध सैनिक बल भी यही माँग करेंगे।
यह तर्क सही नहीं है। सैनिकों की सेवाएं और उनकी जरूरतें दूसरे किस्म की हैं। दूसरी सेवाओं के कर्मचारी पूरे 60 साल तक काम करते हैं, जबकि सैनिक 35 से 37 साल की उम्र में रिटायर हो जाता है। इसी तरह ब्रिगेडियर से नीचे के पद वाले अधिकारी भी 54 साल की उम्र तक रिटायर हो जाते हैं। इसलिए सैनिकों और सामान्य कर्मचारियों की तुलना नहीं हो सकती। सन 1973 में तीसरे वेतन आयोग की सिफारिशें आने के पहले तक उन्हें विशेष पेंशन मिलती ही थी। उसे बदलने के बाद से जो असंतुलन पैदा हुआ उसे दूर होना चाहिए।
ये सारी बातें सही होने के बाद भी अब जब लगता है कि यह योजना लागू होने की स्थिति में आ गई है, कुछ समय और इंतजार करना चाहिए। सैनिकों की बात से देश की जनता सहमत है। सन 2013 में जब मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया तब और फिर पिछले साल चुनाव जीतने के बाद उन्होंने रेवाड़ी में पूर्व सैनिकों की रैली की थी। रेवाड़ी रैली के बाद पहली बार ऐसा लगा कि सैनिकों के रोष का राजनीतिकरण हो रहा है।
उत्तर भारत के ग्रामीण समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पूर्व सैनिकों से जुड़ा है। देश में तकरीबन 25 से 30 लाख पूर्व सैनिक और पूर्व सैनिकों की विधवाएं हैं। ये सैनिक पेंशन लेकर अपना जीवन चला रहे हैं। अनुशासित, प्रशिक्षित और राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित इन सैनिकों की हमारे सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। इनके परिवार और मित्रों की संख्या को जोड़ लें तो इनसे प्रभावित लोगों की तादाद करोड़ों में पहुँचती है। लोक-जीवन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे जनमत बनाते हैं और समाज को क्रियाशील भी। एक माने में वे हमारे समाज की रीढ़ हैं।
‘वन रैंक, वन पेंशन’ का मतलब है एक ही पद और सेवावधि पर रिटायर होने वाले सैनिक की पेंशन बराबर हो। अभी उनके रिटायरमेंट की तारीख से पेंशन की राशि तय होती है। चूंकि हर दस साल बाद नए वेतनमान लागू होते हैं, इसलिए पहले रिटायर होने वालों की पेंशन बाद में रिटायर होने वालों से कम हो जाती है, भले ही उनका रैंक और सेवावधि समान रही हो। इस योजना को लागू कराने के लिए पूर्व सैनिक 1973 से प्रयास कर रहे हैं। सन 1971 तक पेंशन के नियम अलग थे। अधिकारियों और सैनिकों को अलग-अलग फॉर्मूलों से पेंशन मिलती थी।
तीसरे वेतन आयोग के नियम लागू होने के बाद कारण सैनिकों की पेंशन कम हो गई। सैनिक और नागरिक अधिकारियों के वेतन की विसंगति भी सामने आईं। पुराने सैनिकों और नए सैनिकों की पेंशन का अंतर बढ़ने लगा। नए कर्नल की पेंशन, पुराने मेजर जनरल से ज्यादा होने लगी। सैनिकों ने अपनी माँगों को आगे बढ़ाने के लिए सन 2008 में इंडियन सर्विसमैन मूवमेंट की स्थापना की। सन 2009 में फौजियों ने क्रमिक भूख हड़ताल के साथ राष्ट्रपति भवन तक मार्च करते हुए राष्ट्रपति को हजारों मेडल वापस करने का आंदोलन चलाया था। डेढ़ लाख पूर्व सैनिकों के खून से हस्ताक्षरित एक ज्ञापन भी राष्ट्रपति को सौंपा था गया था।
लम्बे आंदोलन के बाद यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में सैद्धांतिक रूप से इस माँग को स्वीकार कर लिया। इस घोषणा के पीछे वह दबाव था, जो मोदी की रेवाड़ी रैली के कारण पैदा हो गया था। इस घोषणा के बाद वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने अंतिम बजट में इस कार्य के लिए मामूली सी राशि का आबंटन करके इसे लागू करने का कम मोदी सरकार पर छोड़ दिया। मोदी सरकार के दो बजटों में भी इसकी ओर खास ध्यान नहीं दिया गया। इससे सैनिकों की नाराज़गी बढ़ी। उधर कांग्रेस ने इस बात को लेकर भाजपा सरकार पर फब्तियाँ कसनी शुरू कर दीं।
नरेन्द्र मोदी ने रेडियो पर ‘मन की बात’ कार्यक्रम में और इस साल के स्वतंत्रता दिवस भाषण में स्वीकार किया कि इस योजना को लागू करने में दिक्कत आ रहीं हैं, पर हम इसे लागू करेंगे। रक्षामंत्री ने हाल में कहा था कि शायद हम सैनिकों का सम्मान करना भूल गए हैं, क्योंकि लम्बे अरसे से हमने युद्ध नहीं देखा है। उन्होंने जिस ‘सम्मान’ का जिक्र किया है, उसे भी समझने की जरूरत है। पर सैनिकों को धैर्य रखने की जरूरत है। पूरे देश की हमदर्दी उनके साथ है।
हरिभूमि में प्रकाशित
धरने पर बैठे पूर्व फौजियों ने पहले माना था कि वे अपने विरोध को ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे लोगों ने आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया। बल्कि क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में बदल दिया। वे कहते हैं कि यह पैसे की लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान का मामला है। इस बीच पूर्व सैनिकों के साथ दिल्ली पुलिस ने जो अभद्र व्यवहार किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। हम इस तरह सैनिकों का सम्मान करते हैं? कह सकते हैं कि डेढ़ साल से सरकार क्या कर रही थी? पर ऐसा भी नहीं कि वह कन्नी काट रही है।
फैसला न हो पाने के दो बड़े कारण हैं। एक, वित्तीय व्यवस्था और दूसरे स्पष्ट फॉर्मूले का न बन पाना। इस साल के रक्षा सेनाओं की पेंशन के बजट की मद में 54,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं। अनुमान है कि ओआरओपी लागू करने से सरकार का खर्च 18 से 20 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष बढ़ेगा। जब भी भविष्य में पेंशन बढ़ेगी यह खर्च उसी अनुपात में बढ़ेगा। वित्त मंत्रालय का कहना है कि इसके बाद अन्य सेवाओं के कर्मचारी, खासतौर से बीएसएफ, सीआरपीएफ जैसे अर्ध सैनिक बल भी यही माँग करेंगे।
यह तर्क सही नहीं है। सैनिकों की सेवाएं और उनकी जरूरतें दूसरे किस्म की हैं। दूसरी सेवाओं के कर्मचारी पूरे 60 साल तक काम करते हैं, जबकि सैनिक 35 से 37 साल की उम्र में रिटायर हो जाता है। इसी तरह ब्रिगेडियर से नीचे के पद वाले अधिकारी भी 54 साल की उम्र तक रिटायर हो जाते हैं। इसलिए सैनिकों और सामान्य कर्मचारियों की तुलना नहीं हो सकती। सन 1973 में तीसरे वेतन आयोग की सिफारिशें आने के पहले तक उन्हें विशेष पेंशन मिलती ही थी। उसे बदलने के बाद से जो असंतुलन पैदा हुआ उसे दूर होना चाहिए।
ये सारी बातें सही होने के बाद भी अब जब लगता है कि यह योजना लागू होने की स्थिति में आ गई है, कुछ समय और इंतजार करना चाहिए। सैनिकों की बात से देश की जनता सहमत है। सन 2013 में जब मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया तब और फिर पिछले साल चुनाव जीतने के बाद उन्होंने रेवाड़ी में पूर्व सैनिकों की रैली की थी। रेवाड़ी रैली के बाद पहली बार ऐसा लगा कि सैनिकों के रोष का राजनीतिकरण हो रहा है।
उत्तर भारत के ग्रामीण समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पूर्व सैनिकों से जुड़ा है। देश में तकरीबन 25 से 30 लाख पूर्व सैनिक और पूर्व सैनिकों की विधवाएं हैं। ये सैनिक पेंशन लेकर अपना जीवन चला रहे हैं। अनुशासित, प्रशिक्षित और राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित इन सैनिकों की हमारे सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। इनके परिवार और मित्रों की संख्या को जोड़ लें तो इनसे प्रभावित लोगों की तादाद करोड़ों में पहुँचती है। लोक-जीवन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे जनमत बनाते हैं और समाज को क्रियाशील भी। एक माने में वे हमारे समाज की रीढ़ हैं।
‘वन रैंक, वन पेंशन’ का मतलब है एक ही पद और सेवावधि पर रिटायर होने वाले सैनिक की पेंशन बराबर हो। अभी उनके रिटायरमेंट की तारीख से पेंशन की राशि तय होती है। चूंकि हर दस साल बाद नए वेतनमान लागू होते हैं, इसलिए पहले रिटायर होने वालों की पेंशन बाद में रिटायर होने वालों से कम हो जाती है, भले ही उनका रैंक और सेवावधि समान रही हो। इस योजना को लागू कराने के लिए पूर्व सैनिक 1973 से प्रयास कर रहे हैं। सन 1971 तक पेंशन के नियम अलग थे। अधिकारियों और सैनिकों को अलग-अलग फॉर्मूलों से पेंशन मिलती थी।
तीसरे वेतन आयोग के नियम लागू होने के बाद कारण सैनिकों की पेंशन कम हो गई। सैनिक और नागरिक अधिकारियों के वेतन की विसंगति भी सामने आईं। पुराने सैनिकों और नए सैनिकों की पेंशन का अंतर बढ़ने लगा। नए कर्नल की पेंशन, पुराने मेजर जनरल से ज्यादा होने लगी। सैनिकों ने अपनी माँगों को आगे बढ़ाने के लिए सन 2008 में इंडियन सर्विसमैन मूवमेंट की स्थापना की। सन 2009 में फौजियों ने क्रमिक भूख हड़ताल के साथ राष्ट्रपति भवन तक मार्च करते हुए राष्ट्रपति को हजारों मेडल वापस करने का आंदोलन चलाया था। डेढ़ लाख पूर्व सैनिकों के खून से हस्ताक्षरित एक ज्ञापन भी राष्ट्रपति को सौंपा था गया था।
लम्बे आंदोलन के बाद यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में सैद्धांतिक रूप से इस माँग को स्वीकार कर लिया। इस घोषणा के पीछे वह दबाव था, जो मोदी की रेवाड़ी रैली के कारण पैदा हो गया था। इस घोषणा के बाद वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने अंतिम बजट में इस कार्य के लिए मामूली सी राशि का आबंटन करके इसे लागू करने का कम मोदी सरकार पर छोड़ दिया। मोदी सरकार के दो बजटों में भी इसकी ओर खास ध्यान नहीं दिया गया। इससे सैनिकों की नाराज़गी बढ़ी। उधर कांग्रेस ने इस बात को लेकर भाजपा सरकार पर फब्तियाँ कसनी शुरू कर दीं।
नरेन्द्र मोदी ने रेडियो पर ‘मन की बात’ कार्यक्रम में और इस साल के स्वतंत्रता दिवस भाषण में स्वीकार किया कि इस योजना को लागू करने में दिक्कत आ रहीं हैं, पर हम इसे लागू करेंगे। रक्षामंत्री ने हाल में कहा था कि शायद हम सैनिकों का सम्मान करना भूल गए हैं, क्योंकि लम्बे अरसे से हमने युद्ध नहीं देखा है। उन्होंने जिस ‘सम्मान’ का जिक्र किया है, उसे भी समझने की जरूरत है। पर सैनिकों को धैर्य रखने की जरूरत है। पूरे देश की हमदर्दी उनके साथ है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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