संसदीय
गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की यूएई यात्रा क्या मददगार साबित होगी? इस यात्रा से भारत में बेहतर
पूँजी निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निर्माण की सम्भावनाओं और खाड़ी के
देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे. पर केवल इतना ही नहीं.
पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है, जिसके बरक्स भारत को अपनी भूमिका में
भी बदलाव लाना होगा. सवाल है कि अचानक हुई इस यात्रा का मकसद क्या था.
हाल
में इस इलाके में तीन महत्वपूर्ण बातें हुईं हैं. पहली, इराक-सीरिया में आईसिस का
उदय. दूसरे यमन में हूती बगावत और पाकिस्तान-यूएई रिश्तों में पैदा हुआ तनाव.
तीसरे, ईरान के साथ अमेरिका का न्यूक्लियर डील. परम्परा से पश्चिम एशिया के देशों
के साथ भारत के रिश्ते अच्छे रहे हैं, पर इनमें पाकिस्तान आड़े आता है. धार्मिक
भाईचारे के नाम पर पाकिस्तान इन रिश्तों को प्रभावित करने में कामयाब होता रहा है.
अकसर भारत की उचित शिकायतें भी अरब देशों तक ठीक तरीके से नहीं पहुँच पाती थीं.
भारत
और यूएई के संयुक्त घोषणापत्र में आतंकवाद को धार्मिक रंग देने की कोशिशों की
निंदा की गई है. यह बात बदलती मनोदशा का परिचय देती है. यूएई अपेक्षाकृत आधुनिक
देश है और उसकी दिलचस्पी अपनी अर्थ-व्यवस्था को सुधारने में है. धार्मिक संकीर्णता
का दुष्परिणाम वह पाकिस्तान में देख चुका है. यहाँ तकरीबन 26 लाख भारतीय रहते हैं,
जो देश की आबादी का तकरीबन एक तिहाई है. साथ ही भारत में पूँजी निवेश की बेहतर
सम्भावनाएं तैयार हो रहीं हैं.
सिंगापुर
और हांगकांग की तरह दुबई पश्चिम एशिया का सबसे बड़ा और आधुनिक व्यापार केंद्र है.
यहाँ दुनियाभर के समुदायों का प्रतिनिधित्व है. व्यापारी समुदाय के अलावा यहाँ
भारतीय इंजीनियरों, डॉक्टरों, मैनेजरों और शारीरिक श्रम करने वाले छोटे मजदूरों की
बड़ी संख्या है. भारत के प्रति इस इलाके में स्वाभाविक सद्भाव पहले से मौजूद है. हाल
में बढ़ती हिंसा के कारण यहाँ के लोग अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं.
अरब
देश अपनी अर्थ-व्यवस्था के लिए पेट्रोलियम अलावा भी दूसरे विकल्प तलाश रहे हैं. उनके
लिए भारत दो कारणों से महत्वपूर्ण है. एक, भविष्य में वह उनकी आर्थिक गतिविधियों
में मददगार होगा, जहाँ वे पूँजी निवेश कर सकते हैं. दूसरे वह उन्हें सुरक्षा
प्रदान कर सकता है. अंग्रेजी राज के समय से भारत इस इलाके को सुरक्षा प्रदान करने
का काम करता रहा है. लीबिया से लेकर यमन तक हाल में सुरक्षा को लेकर कुछ खतरनाक
संकेत उभरे हैं.
हाल
के वर्षों में भारत ने अमेरिकी के साथ सामरिक सहयोग के समझौते किए हैं. दूसरी और
उसने इसरायल के साथ भी रिश्ते सुधारे हैं. देखना होगा कि एक तरफ इसरायल, दूसरी तरफ
अरब देशों और तीसरी तरफ ईरान के साथ रिश्तों का संतुलन किस प्रकार बनेगा. भारत की पश्चिम एशिया नीति प्रारम्भिक वर्षों में मिस्र के साथ दोस्ती
के रूप में थी. पचास के दशक में मिस्र के राष्ट्राध्यक्ष नासर भारत के दोस्त माने
जाते थे. फलस्तीनी आंदोलन के नेता यासर अरफात भी हमारे दोस्त थे. इराक के सद्दाम
हुसेन भी भारत के मित्र थे. सीरिया के हफीज़ अल असद और बाद में उनके बेटे बशर अल
असद के साथ भी हमारे रिश्ते अच्छे हैं.
हमारे
सबसे रोचक रिश्ते सऊदी अरब के साथ हैं. इस महीने के पहले हफ्ते में भारतीय
वायुसेना के सुखोई-30 एमकेआई, सी-17 ग्लोब मास्टर और सी-130 सुपर हर्क्युलिस और
आईएल-78 विमानों के दस्ते जब सऊदी अरब के तैफ स्थित किंग फहद एयर बेस पर पहली बार
उतरे तब किसी ने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. एयर फोर्स के ये दस्ते ब्रिटेन
में एक हवाई युद्धाभ्यास में भाग लेकर वापस लौट रहे थे. इसके पहले भारतीय माल-वाहक
विमान तो सऊदी अरब में उतरते रहे हैं. यह पहला मौका था जब फाइटर विमान वहाँ उतरे.
वायुसेना
के इस दल में 100 के आसपास अफसर और सैनिक थे. यह सांकेतिक सहयोग था. भारतीय दस्ते
किसी दूसरे देश में भी उतर सकते थे. महत्वपूर्ण है सऊदी अरब में उतरना. भारत का इस
इलाके में सऊदी अरब के साथ रक्षा समझौता भी है, जिसकी शर्तों के बारे में ज्यादा
जानकारी नहीं है. इसी तरह सन 2008 में भारत ने कतर के साथ रक्षा समझौता किया था. ऐसा
ही एक समझौता बहरीन के साथ होने की सम्भावना है. पिछले दिनों यमन के हूती
विद्रोहियों के खिलाफ सैनिक मदद को लेकर अरब देशों के पाकिस्तान के साथ रिश्तों
में खटास आई है. कहा जा रहा है कि मोदी की अचानक हुई यूएई यात्रा की वजह यही है.
अमेरिका
के साथ हुए इस ईरान के न्यूक्लियर डील का असर भी इस इलाके में नजर आएगा. इस महीने ईरान
के विदेश मंत्री डॉक्टर जवाद ज़रीफ़ लेबनान, सीरिया और पाकिस्तान होते हुए भारत यात्रा पर आए थे. ईरान इस इलाके
के देशों के साथ अपने रिश्ते फिर से परिभाषित कर रहा है. दूसरे देश ईरान के साथ
रिश्तों को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं. पाकिस्तान चाहता है कि चीन की मदद से बन रहा
उसका पाकिस्तान-चीन कॉरिडोर ईरान तक जाए.
अफगानिस्तान
और ईरान के साथ भारत त्रिपक्षीय समझौता करना चाहता है. इसके तहत ईरान के चहबहार
बंदरगाह का विकास भारत करेगा, जहाँ से अफगानिस्तान तक माल का आवागमन
सड़क मार्ग से होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने ईरान की सीमा से होकर 215
किलोमीटर लम्बे डेलाराम-जाराज मार्ग का निर्माण अफगानिस्तान में किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है. इस परियोजना पर भारत ने
लगभग 750 करोड़ रुपये लगाए हैं. भारत के लिए मध्य एशिया से जुड़ने का यह जरिया
बनेगा.
अफगानिस्तान
के साथ पाकिस्तान के रास्ते सम्पर्क अभी सम्भव नहीं है. देखना होगा कि भारत और
ईरान के रिश्ते अब क्या शक्ल लेते हैं. यह भी ध्यान में रखना होगा कि इस इलाके में
रूस और चीन की दिलचस्पी बढ़ी है. अमेरिका के साथ ईरान का समझौता कराने में चीन और
रूस की महत्वपूर्ण भूमिका थी. भारत और संयुक्त अरब अमीरात 75 अरब डॉलर का
इंफ्रास्ट्रक्चर कोष तैयार करेंगे, जो भारतीय परियोजनाओं के लिए पूँजी उपलब्ध
कराएंगे. इनके अलावा देश के रक्षा उद्योग, स्पेस टेक्नोलॉजी और न्यूक्लियर इनर्जी
की परियोजनाओं के लिए पूँजी निवेश के रास्ते भी खोले गए हैं.
यूएई
आने वाले समय में पेट्रोलियम के अलावा नए क्षेत्रों में पूँजी निवेश की सम्भावनाएं
खोज रहा है. भारत को पूँजी और तकनीक दोनों चाहिए. दोनों के लिए है, मौका-मौका!
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