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Saturday, August 15, 2015

आज़ादी की लड़ाई अभी बाकी है

जब हम 68 साल की आज़ादी पर नजर डालते हैं तो लगता है कि हमने पाया कुछ नहीं है। केवल खोया ही खोया है। पर लगता है कि पिछले पाँच से दस साल में खोने की रफ्तार बढ़ी है। राजनीति, प्रशासन, बिजनेस और सांस्कृतिक जीवन यहाँ तक कि खेल के मैदान में भी भ्रष्टाचार है। जनता अपने ऊपर नजर डाले तो उसे अपने चेहरे में भी भ्रष्टाचार दिखाई देगा। कई बार हम जानबूझकर और कई बार मजबूरी में उसका सहारा लेते हैं। भ्रष्टाचार केवल कानूनी समस्या नहीं जीवन शैली  है। इसका मतलब समझें।  

इतिहास की यात्रा पीछे नहीं जाती। मानवीय मूल्य हजारों साल पहले बन गए थे, पर उन्हें लागू करने की लड़ाई लगातार चलती रही है और चलती रहेगी। भ्रष्टाचार एक बड़ा सत्य है, पर ऐसी व्यवस्थाएं, ऐसे समाज और ऐसे व्यक्ति भी हैं जो इसके खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इसका इलाज तभी सम्भव है जब व्यवस्था पारदर्शी और न्यायपूर्ण हो। जब तक व्यक्तियों के हाथों में विशेषाधिकार हैं, भेदभाव का अंदेशा रहेगा।


सन 2011 में जब देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू हुआ तो कहा जा रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा कानून बन गया तो दिल्ली और मुम्बई के कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स जेलों में तब्दील हो जाएंगे। कानून बने एक साल से ज्यादा हो गया, अभी कुछ हुआ नहीं। पर इससे निराश होने की जरूरत भी नहीं। यह सिर्फ संयोग नहीं है 1991 के उदारीकरण के बाद से घोटालों का आयाम अचानक बढ़ा है। पहले लाख-दस लाख के होते थे, फिर करोड़ों के होने लगे। अब अरबों के होते हैं। शेयर बाजार घोटाला इनमें पहला था।

क्या यह उदारीकरण की देन है? हमें लगता है कि पुरानी प्रशासनिक व्यवस्था बेहतर थी। तब के लोग ईमानदार होते थे। वे ईमानदार थे तो उनकी संतानें बेईमान कैसे हो गईं? भ्रष्टाचार हजारों साल से चला आ रहा है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में चालीस किस्म के आर्थिक घोटालों का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि यह सम्भव नहीं कि सरकारी कर्मचारी ज़ुबान पर रखी शहद की बूँद का स्वाद नहीं लेगा।

मुगल शासन में सरकारी घोड़ों की खरीद से लेकर राजस्व वसूली तक भ्रष्टाचार था। बख्शीश शब्द मुगल दरबारों से ही आया है। अंग्रेज कम्पनी सरकार ने आधुनिक भ्रष्टाचार की नींव डाली। गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के खिलाफ इसी किस्म के आरोपों को लेकर महाभियोग चला था। इसी तरह पॉल बेनफील्ड नाम के इंजीनियर की कहानी है, जिसे कई बार नौकरी से हटाया गया। वह जब वापस गया तो लाखों की कमाई करके ले गया। आजादी के एक साल बाद ही स्वतंत्र भारत का पहला जीप घोटाला सामने आया था। देश की पहली संसद ने अपने एक सदस्य की सदस्यता ऐसे ही एक आरोप में रद्द की थी।

आजादी के बाद के घोटालों की सूची बनाई जाए तो मीलों लम्बी निकलेगी। इस बेईमानी के खिलाफ पारदर्शी और न्यायपूर्ण व्यवस्था को कायम करने की जद्दोजहद भी जारी है। तमाम घोटाले सामने इसीलिए आए क्योंकि कोई उन्हें सामने लाया। यदि वे सामने नहीं आए होते तो क्या व्यवस्था ईमानदार होती? वस्तुतः व्यवस्था को पारदर्शी होना चाहिए, जिसमें सब साफ देख सकें। यह हमारे जानकारी पाने के अधिकार का उद्देश्य है? आरटीआई हाल के वर्षों की एक बड़ी उपलब्धि है। इसे भी तो आपने ही हासिल किया है। आप उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। उसका दुरुपयोग भी हो रहा है, जिसे रोकने के लिए भी आपको ही प्रयास करना होगा।

चुनाव व्यवस्था को देखें। इसे दो दशक पहले तक बूथ कैप्चरिंग की वजह से याद किया जाता था। भ्रष्टाचार का सबसे नंगा नाच चुनाव में होता था और काफी सीमा तक आज भी है। भारत के आम चुनाव दुनिया में काले धन से संचालित होने वाली सबसे बड़ी गतिविधि हैं। दूसरी ओर चुनाव सुधार का काम भी हमने किया। व्यवस्था में जो भी सुधार हुआ वह वोटर के दबाव, चुनाव आयोग की पहल और अदालतों के हस्तक्षेप से हुआ है।

राजनीतिक दलों ने इन सुधारों का हमेशा विरोध किया। पार्टियाँ अपने हिसाब-किताब को कानूनी मकड़जाल में छिपा कर रखती हैं। इस मकड़जाल को तोड़ने के लिए नागरिक संगठन लगातार कोशिश करते रहे हैं। 3 जून 2013 को सूचना आयोग की फुल बेंच ने छह राष्ट्रीय दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने का फैसला किया। इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया और अभी यह मामला कानूनी प्रक्रियाओं में उलझा है, पर एक दिन इसका निपटारा होगा।

पार्टियों ने पारदर्शिता का स्वागत कभी नहीं किया। हलफनामे की व्यवस्था लम्बे संग्राम के बाद लागू हुई है। अभी इसमें और सुधार की जरूरत है। जो नहीं हो पाया उसपर हतोत्साहित होने की जगह हमें इस बात से खुश होना चाहिए कि बहुत कुछ हुआ भी है। अन्ना आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है। आप उधर से आइए। पर चुनाव के रास्ते पर तो व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं।

चुनाव पावर गेम है। इसमें मसल और मनी मिलकर माइंड पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ उस आंदोलन का समर्थन इसलिए करता था क्योंकि उसे लगता था कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है।

लोकपाल-व्यवस्था लम्बे अरसे से कानून बनने का इंतज़ार करती रही। कानून बना भी तो अभी लोकपाल की नियुक्ति और उसकी गतिविधियों का इंतज़ार है। जो भी होगा उसकी तार्किक परिणति व्यवस्था के सुधार के रूप में सामने आएगी। आधुनिक लोकतंत्र और पूँजीवाद दोनों के विकास पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि एक ओर व्यवस्था पर कब्जा करने की कुछ ताकतवर लोगों की कोशिशें हैं तो दूसरी ओर इन कोशिशों से लड़ने वाली ताकतें भी एकताबद्ध हैं।

कॉरपोरेट अपराध के खिलाफ भी मुहिम जारी है। कम्पनियों में शेयर होल्डरों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। छोटे इनवेस्टरों की तादाद बढ़ रही है। कॉरपोरेट  और सिविल गवर्नेंस दोनों में पारदर्शिता पर जोर है। कठोर कार्रवाई की माँग सिर्फ भारत में ही नहीं उठी है। यह संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा में भी है।

जैसे हमारे यहाँ कॉरपोरेट महाप्रभुओं की जेल यात्रा शुरू हुई है, वह अमेरिका, जापान, जर्मनी और कोरिया में पहले से चल रही है। हर जगह की कहानी एक है। भ्रष्ट माफिया के खिलाफ जनता की लड़ाई नए ज़माने की देन है। दो सौ साल पहले ऐसा नहीं होता था। निराश न हों, यह लड़ाई बढ़ेगी आपकी मदद से।  

हरिभूमि में प्रकाशित

2 comments:

  1. हमें लगता है कि पुरानी प्रशासनिक व्यवस्था बेहतर थी। जब तक चुनावी रननिती मे सुधार नही होता भ्रश्टाचार जारी रहेगा नेता भ्रश्ट हैण तो किसे कहेंगे यक़ रोकेंगे भ्रश्टाचार करने से? अरबों रुपये जो नेता अपनी छवि चमकाने मे खर्च कर देन और अपनी पार्टी के भ्रश्टों को बचाने मे मौन धार लें उनसे किस तरह की आशा की जा सकती है1

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  2. बेह्तरीन अभिव्यक्ति

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