अब जब 196 सीटों पर मतदान
बाकी रह गया है। अटकलों का बाज़ार सरगर्म है। देश की राजनीति फिलहाल सीधे-सीधे दो
ध्रुवों पर कर खड़ी है। एक है ‘मोदी लाओ’ और दूसरा है ‘मोदी से बचाओ।’ पूरी राजनीति नकारात्मक या सकारात्मक रूप से मोदी केंद्रित
है। इन दोनों ध्रुवों के इर्द-गिर्द कुछ और राजनीतिक शक्तियाँ हैं। ये हैं
क्षेत्रीय दल। पिछले दो-तीन साल से कहा जा रहा है कि देश में क्षेत्रीय दलों का
दौर है और 2014 में केंद्र की सरकार बनाने में इनकी सबसे बड़ी भूमिका होगी। कहना
मुश्किल है कि मोदी लहर है या नहीं। पर इतना साफ है कि क्षेत्रीय क्षत्रप भी
मुश्किल में हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को छोड़ दें तो किसी भी क्षेत्रीय दल
के बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। दो साल पहले तीन पार्टियों को अपनी
स्थिति बेहतर लगती थी। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों में मिली सफलता से
अभिभूत समाजवादी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने घोषणा कर दी थी कि लोकसभा चुनाव
समय से पहले होंगे और 2014 में तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी। लगभग ऐसा ही अनुमान
तमिलनाडु में जयललिता और बंगाल में ममता बनर्जी का था। अब हम इस चुनाव में तीसरे
मोर्चे की ओर देखें तो वह खुद असमंजस में नजर आता है।
पिछली 25 फरवरी को प्रकाश
करात ने अचानक तीसरे मोर्चे की घोषणा कर दी। बताया गया कि 11 दल इस मोर्चे में
शामिल हैं। मुलायम बोले कि इन पार्टियों की संख्या 15 तक हो जाएगी। करात ने बताया
कि कुछ जरूरी वजहों से असम गण परिषद और बीजेडी के अध्यक्ष इस बैठक में शामिल नहीं
हो सके, लेकिन वे तीसरे मोर्चे के साथ हैं। जयललिता भी इस बैठक में
नहीं थीं। अंततः इनमें से कोई इस तीसरे मोर्चे में नहीं आया। अब इस मोर्चे के तीन
मुख्य सूत्रधार बचे हैं। प्रकाश करात, मुलायम और नीतीश। और इस
चुनाव में तीनों की सफलता संदिग्ध है। तमिलनाडु में अद्रमुक और ओडिशा में बीजू
जनता दल के बारे में भी संदेह है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को सफलता
मिलने के कयास हैं।
वस्तुतः तीसरे मोर्चे की
घोषणा नरेंद्र मोदी को रोकने की कांग्रेसी रणनीति का एक हिस्सा थी, जो अब और
ज्यादा साफ नजर आ रहा है। हालांकि राहुल गांधी कह रहे हैं कि यूपीए-3 की सरकार
बनेगी, पर अब कांग्रेसी सूत्र बता रहे हैं कि मोदी को रोकने के लिए हम कुछ भी कर
सकते हैं। हाल में समाजवादी पार्टी ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया है। इसका क्या
मतलब निकाला जाए? कांग्रेस की दृष्टि से
इसका मतलब यह है कि वह तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन दे सकती है। और सपा के
नजरिए से देखें तो इसका मतलब है कि सपा यूपीए में शामिल हो सकती है। उत्तर प्रदेश
की कुछ महत्वपूर्ण सीटों पर दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे के खिलाफ प्रत्याशी खड़े
नहीं किए हैं। कांग्रेस सपा और वाम मोर्चा के कयास कुछ किन्तु-परन्तुओं पर आधारित
हैं। उनका अनुमान या मनोकामना है कि एनडीए गठबंधन 220-230 के बीच रह जाएगा। कांग्रेस
की मनोकामना 140 सीटों की है। उसका अंदेशा 100 से 120 का है। उसका अनुमान है कि
140 के आस-पास सीटें मिलीं तो सन 2004 की तरह यूपीए सरकार बन जाएगी। इससे कम मिलीं
तो तीसरे मोर्चे को खड़ा करेंगे।
पर तीसरे मोर्चे में होगा
कौन? उसमें बीजद नहीं होगा, यह अभी से साफ समझ लेना
चाहिए। बीजद मूलतः कांग्रेस विरोधी पार्टी है। कांग्रेस के साथ जाने का मतलब है
आत्महत्या। वाम मोर्चा प्रत्यक्ष या परोक्ष कांग्रेस का साथ देगा। पर उसका
संख्याबल क्या होगा? सन 2004 में उसके पास 59
सीटें थीं जो 2009 में 24 रह गईं और इस बार उससे भी कम रहने का अंदेशा है। वाम
मोर्चा उसमें होगा तो क्या ममता दीदी भी होंगी? फिलहाल वे बंगाल
में वाम मोर्चे के सफाए की तैयारी है। केरल में वाम मोर्चे की सीटें तभी बढ़ेगी,
जब कांग्रेस की कम हों। उत्तर प्रदेश में सपा के पास 2004 में 36 सीटें थीं, जो
2009 में 23 रह गईं। बसपा कमोबेश 19 और 21 सीटों के साथ स्थिर थी। हो सकता है कि
बसपा की सीटें इस बार बढ़ें। ऐसा हुआ तो सपा की सीटें घटेंगी।
नरेंद्र मोदी आएं या न
आएं, पर 29 पार्टियों का राष्ट्रीय गठबंधन बनाकर एनडीए ने खासतौर से आंध्र और
तमिलनाडु में अपने लिए सम्भावनाएं तैयार कर ली हैं। सन 2004 के चुनाव में इन्हीं
दो राज्यों ने एनडीए की कुर्सी छीन ली थी। कर्नाटक में भी भाजपा अब उतनी कमजोर
नहीं है, जितनी पिछले विधानसभा चुनाव के समय थी। सबसे महत्वपूर्ण गठबंधन चुनाव बाद
के होंगे। कांग्रेस या भाजपा में से जो पार्टी ज्यादा ताकतवर नजर आएगी, क्षेत्रीय क्षत्रप
उसके साथ जाएंगे। सत्ता की राजनीति में अछूत को पवित्र होते देर नहीं लगती। मोदी
के नाम पर भाजपा 180 से 200 और एनडीए कुल मिलाकर 240-250 भी ले आया तो बीस-तीस सीटें
मिलना मुश्किल नहीं होगा। पर क्या ऐसा होगा? चुनाव
सर्वेक्षणों पर विश्वास करने के बजाय हमें 16 मई का इंतजार करना होगा।
देखना यह भी होगा कि
कांग्रेस को कितनी सीटें मिलती हैं और केवल मोदी के विरोध के नाम पर राजनीति करने
वाली पार्टियों का संख्याबल क्या होता है। इस गणित में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका
उत्तर प्रदेश और बिहार की होगी। तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के लिए यूपी में सपा
को 40 से ज्यादा, बिहार में नीतीश को 20 से ज्यादा और वाम मोर्चा को पूरे देश में
50 के आसपास सीटें चाहिए। साथ ही कांग्रेस को भी कम से कम 140 सीटों की जरूरत
होगी। उस स्थिति में भी चाहे यूपीए की सरकार बने या तीसरे मोर्चे की, वह डेढ़-दो
साल की मेहमान होगी। यह रणनीति कांग्रेस के मनमाफिक होगी। उसे लगता है कि 2016 में
फिर से चुनाव हुए तो उसे सफलता मिलेगी।
देश की राजनीति में एनडीए
और यूपीए के बाद तीसरी ताकत को खोजें तो वह किसी एक गठबंधन के रूप में नजर नहीं
आती। अभी इस गणित में हमने आम आदमी पार्टी के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया है।
यदि यह पार्टी 20-30 सीटें ले आई तो वे किसके खाते में से आएंगी? भाजपा, कांग्रेस या तीसरे मोर्चे के खाते से? आप के बारे में तीन महीने पहले जो राय थी, वह अब नहीं है।
रोचक यह देखना होगा कि 400 से ज्यादा सीटों पर इस पार्टी ने पैर पसारे हैं तो किस
उम्मीद पर। गो कि उसके रणनीतिकार मानते हैं कि तीसरी ताकत के रूप में ‘आप’ उभरेगी। उसके दिल्ली अभियान ने उसे राष्ट्रीय मंच दे तो
दिया, पर उसे अलोकप्रियता भी दी, जिसे उसके कर्णधार देख
नहीं पा रहे हैं। तीसरे मोर्चे की अवधारणा पुरानी है, पर जब-जब यह बना विफल हुआ। इसका कारण है क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा,
जो समय के साथ रंग बदलती है। इंतज़ार कीजिए 16 मई की शाम को जारी होने वाले बयानों
का।
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