क्या नरेंद्र मोदी ने वास्तव में कश्मीर के अलगाववादी नेता
सैयद अली शाह गिलानी के पास अपने दूत भेजे थे? भाजपा
ने इस बात का खंडन किया है. सम्भवतः लोजपा के प्रतिनिधि गिलानी से मिले थे. मिले
या नहीं मिले से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कि गिलानी ने इस बात को ज़ाहिर क्यों
किया? कश्मीर के
अलगाववादी हालांकि भारतीय संविधान के दायरे में बात नहीं करना चाहते, पर वे भारतीय
राजनेताओं के निरंतर सम्पर्क में रहते हैं. उनके साथ खुली बात नहीं होती, पर
भीतर-भीतर होती भी है. इसमें ऐसी क्या बात थी कि कांग्रेस ने उसे तूल दी और भाजपा
ने कन्नी काटी?
अगस्त 2002 में हुर्रियत के नरमपंथी धड़ों के साथ अनौपचारिक
वार्ता एक बार ऐसे स्तर तक पहुँच गई थी कि उस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में हुर्रियत
के हिस्सा लेने की सम्भावनाएं तक पैदा हो गईं. और उस पहल के बाद मीरवायज़ उमर
फारूक और सैयद अली शाह गिलानी के बीच तभी मतभेद उभरे और हुर्रियत दो धड़ों में बँट
गई. उस वक्त दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और राम जेठमलानी के
नेतृत्व में कश्मीर कमेटी ने इस दिशा में पहल की थी. कश्मीर कमेटी एक गैर-सरकारी
समिति थी, पर माना जाता था कि उसे केंद्र सरकार का समर्थन प्राप्त था. सरकार
हुर्रियत की काफी शर्तें मानने को तैयार थी, फिर भी समझौता नहीं हो पाया. पर इतना
ज़ाहिर हुआ कि अलगाववादी खेमे के भीतर भी मतभेद हैं. गिलानी के बयान को इस रोशनी
में भी देखा जाना चाहिए. गिलानी के इस वक्तव्य की मीर वायज़ वाले धड़े ने निंदा की
है.
अब जब दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने की सम्भावनाएं
जताई जा रही हैं तो कश्मीरी राजनीति में भी हलचल है. लोकसभा चुनाव शुरू होने के
ठीक पहले अप्रेल के पहले हफ्ते में मीरवायज़ फारूक ने ‘कश्मीर मसले पर भारत की जनता के नाम एक खुला खत’ जारी किया है. कहीं न कहीं कश्मीर के सवाल पर सुगबुगाहट है. कोई आश्चर्य
नहीं कि भाजपा की ओर से कुछ लोग कश्मीरी अलगाववादियों से सम्पर्क कर रहे हों. पर यह
सम्पर्क अनौपचारिक और गोपनीय होगा. नरेंद्र मोदी ने एक से ज्यादा बार कहा है कि हम
कश्मीर मसले को सुलझाने की कोशिश करेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 370 पर
विचार-विमर्श के लिए भी हम तैयार हैं. ये बातें सकारात्मक हैं और इसमें दो राय
नहीं कि तमाम बातें गोपनीय होती हैं. भारत-पाकिस्तान के बीच भी सहमति बनाने के लिए
‘ट्रैक टू’ का संवाद होता है.
जब यह सहज बात है तब अली शाह गिलानी ने इसे सार्वजनिक क्यों
किया? या तो नरेंद्र मोदी के प्रति हिकारत का भाव
है या यह हुर्रियत की धड़ेबाजी का परिणाम है? कहीं ऐसा तो
नहीं कि गिलानी साहब भविष्य की सम्भावित वार्ताओं में अपनी भूमिका को कम होते देख
किसी किस्म की पेशबंदी कर रहे हों. या वे भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा के
टकराव में किसी एक पक्ष के साथ हों? और चुनाव के मौके पर
हस्तक्षप कर रहे हों. हो कुछ भी सकता है, पर इतना जरूर है कि चुनाव परिणाम आने के
पहले ही कश्मीर का मसला अचानक हवा में उछल गया है.
हमारा जितना अनुभव आज़ादी का है लगभग उतना लम्बा अनुभव
कश्मीर को लेकर तल्खी का है. यह समस्या आज़ादी के पहले ही जन्म लेने लगी थी. भारत
और पाकिस्तान के बीच किसी रोज यह समस्या दोनों की रज़ामंदी से सुलझ गई तो इस उप
महाद्वीप के अंतर्विरोध अच्छी तरह खुलेंगे. क्योंकि पाकिस्तान के कट्टरपंथ को कश्मीर
के नाम पर ही खाद-पानी मिलता है. इसका समाधान हो गया तो उसका वज़ूद खतरे में आ
जाएगा. सन 2004 में दिल्ली में यूपीए सरकार आने के बाद भी कश्मीर में संवाद चला.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर जाकर कहा कि हम अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा बदलने
के पक्ष में नहीं हैं, पर कश्मीर में नियंत्रण रेखा को अप्रासंगिक बना देंगे. यानी
उसके आर-पार आवाजाही और व्यापार को बढ़ावा देंगे.
13 अक्तूबर, 2010 को भारत
सरकार के गृह मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर की समस्या का अध्ययन कर उसका समाधान खोजने
के लिए एक तीन सदस्यीय दल का गठन किया. इस दल में पत्रकार दिलीप पाडगाँवकर के अलावा
शिक्षाविद राधा कुमार और एक पूर्व उच्च सरकारी अधिकारी एमएम अंसारी थे. इस टीम ने
कश्मीर के अलगाववादियों से व्यापक बातचीत की. इसने 12 अक्तूबर, 2011 को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इस टीम की सिफारिश थी कि अनुच्छेद 370 को अस्थायी के बजय ‘विशेष’ में परिवर्तित कर दिया जाए. टीम ने पाक अधिकृत कश्मीर के लिए ‘पाक शासित कश्मीर’ शब्द का प्रयोग किया,
जिसपर भारत में कई लोगों ने आपत्ति व्यक्त की. वार्ताकारों ने 1952 के बाद लागू किए
गए सभी कानूनों की समीक्षा के लिए एक संविधान समिति बनाने की अनुशंसा भी की.
इस समिति के अलावा नई दिल्ली से तत्कालीन गृहमंत्री पी.
चिदम्बरम् के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल कश्मीर घाटी गया. इस दल में
भाजपा के अरुण जेटली,
सुषमा स्वराज, माकपा के सीताराम
येचुरी,
लोजपा के रामविलास पासवान सहित विभिन्न दलों के 38 सदस्य
शामिल थे. इस टीम ने भी अलगाववादियों के साथ अनौपचारिक बातचीत की. ये सारी कोशिशें
कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए थीं. पर कश्मीर में कई प्रकार की राजनीतिक
ताकतों की आपसी खींचतान भी इस दौरान सामने आई. सीताराम येचुरी खुद सैयद अली शाह
गिलानी के निवास पर गए. उनके साथ सांसद टी.आर. बालू और रतन सिंह अजनाला भी थे.
कुछ सांसदों ने अलगाववादी नेता मीरवायज उमर फारुख और यासीन मलिक के घर पर पहुंच कर
बातचीत की. ये कोशिशें इसलिए भी थीं, क्योंकि गर्मियों में घाटी के नौजवानों को
भड़का कर भारत विरोधी आंदोलन चलाया जा रहा था. किशोरों की टोलियाँ सुरक्षा दलों पर
पत्थर मार रही थीं, ताकि बदले में फायरिंग हो. उस आंदोलन के पीछे गिलानी की मुख्य
भूमिका थी.
कश्मीरी अलगाववादियों के नेता अक्सर दिल्ली आते हैं. गिलानी
का तो इलाज ही दिल्ली में होता है. इस साल के अंत में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के
चुनाव भी होने वाले हैं. कश्मीर की राजनीति के समीकरण बदल रहे हैं. महबूबा मुफ्ती
के नेतृत्व वाली पीडीपी के रिश्ते भाजपा के साथ बनते नजर आते हैं. लोकसभा चुनाव के
परिणाम आने के बाद सूबे की राजनीति में भी फेर-बदल होगा. पाकिस्तान और खासतौर से
कश्मीर में इन चुनावों पर नज़र रखी जा रही है. माना जाता है कि दिल्ली में भाजपा-सरकार
आती है, तब कश्मीर पर बड़ी पहल होती है. लाहौर बस यात्रा से लेकर आगरा सम्मेलन तक
प्रमाण हैं. पाकिस्तान में नवाज शरीफ की नई सरकार को भी चुनाव-परिणाम का इंतज़ार
है. बेशक कश्मीर पर कोई नाटकीय फैसला सम्भव नहीं है, पर मौजूदा गतिविधियाँ बदलते
हालात की ओर इशारा कर रही हैं. ज़रूर कहीं कुछ हो रहा है.
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