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Sunday, February 16, 2014

सड़क छाप राजनीति के खतरे

पिछले दिनों दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के धरने के बाद यह सवाल उठा था कि दफा 144 को तोड़कर धरना देना क्या उचित है?  केजरीवाल ने संविधान की रक्षा करने की शपथ ली थी। धारा 144 का उल्लंघन करना क्या उन्हें शोभा देता है? और उनके कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने जिस तरह दिल्ली के एक इलाके में छापा मारा वह क्या उचित था? पर अब केजरीवाल सांविधानिक बंधनों से मुक्त हैं। मुख्यमंत्री का पद छोड़ते ही उन्होंने घोषणा की है कि भ्रष्टाचार-विरोधी अपनी मुहिम को वे सड़कों पर ले जाएंगे। यानी देश की सड़कों पर अब अफरा-तफरी बढ़ेगी। व्यवस्था के शुद्धीकरण की दिशा में क्या यह बेहतर कदम होगा? या अराजकता का नंगा नाच शुरू होने वाला है? इस हफ्ते कुछ ऐसी घटनाएं देखने को मिली हैं, जो डर पैदा करती हैं। केजरीवाल की तरह आंध्र के मुख्यमंत्री किरण कुमार भी तेलंगाना के सवाल पर धरने पर बैठे थे। हो सकता है कि वे भी इस्तीफा देकर अपनी लड़ाई सड़कों पर ले जाने की घोषणा करें। क्या वजह है कि हमारा संसद पर से विश्वास उठ रहा है और राजनीतिक दल अपनी लड़ाई सड़कों पर ले जाने की घोषणा कर रहे हैं? और क्या वजह है कि वे संसद और सड़क का अंतर नहीं कर पा रहे हैं?


पिछले हफ्ते तेलंगाना को लेकर संसद में पैदा हुई अशोभनीय स्थिति ने तमाम सवाल खड़े किए हैं।  विजिलांट शब्द के माने हैं निगरानी, सजगता और सतर्कता। ऐसी मान्यता है कि सजग नागरिकों और सजग राजनेताओं के रहते लोकतंत्र में कोई ताकत जन-हित की उपेक्षा नहीं कर सकती। सजग नागरिक फिर किसी भी हद तक जाकर हस्तक्षेप कर सकते हैं। अब सवाल यह है कि संसद में जो हो रहा है वह नागरिकों की सजगता है या सकी उपेक्षा? संसद में हंगामा करने वालों को लगता है कि उसके चुनाव क्षेत्र में मतदाता उनके कारनामों को देखकर खुश है। अपने मतदाता को खुश करना ही वे अपना अंतिम उद्देश्य मानते हैं। आंध्र में अचानक दो प्रकार के नागरिक सामने आए हैं। एक, जो तेलंगाना समर्थक हैं और दूसरे जो उसे बनाए जाने के विरोधी हैं। दोनों को लेकर हो रही राजनीति का परिणाम सामने है।

संसदीय हंगामे के बाद तकरीबन सभी दलों ने इसकी निंदा की है। साथ ही किसी ऐसी कार्रवाई का समर्थन किया है, जो मिसाल बन जाए। कार्रवाई जो भी होगी, वह संसद द्वारा निर्धारित होनी चाहिए। अलबत्ता संसद से बाहर रहने वालों का हक बनता है कि वे अपने प्रतिनिधियों से कुछ सवाल पूछें और कुछ सलाह, बल्कि निर्देश दें। अब जब अरविंद केजरीवाल भी सड़क पर आ रहे हैं तब हमारे अंतर्विरोध खुलकर सामने आना का खतरा पैदा हो रहा है। सन 1993 में जब उत्तर प्रदेश विधानसभा में खूंरेज़ी हुई थी तब सवाल उठा था कि इस किस्म की राजनीति कहाँ तक जाएगी। उसके बाद से कई मौकों पर इस किस्म की घटनाएं दोहराई गईं। पर संसद में ऐसा नहीं हुआ था। तेलंगाना के कारण पिछले तीन सत्रों से संसद ठीक से नहीं चल पा रही है। इसके कारण तमाम जरूरी विधेयक पास होने से वंचित हो गए हैं। अंततः इसका नुकसान पूरी व्यवस्था और जनता को झेलना होगा। पर सीमांध्र के आंदोलनकारी भी जनता के नाम पर ही आंदोलनरत हैं और केजरीवाल भी जनता का नाम ले रहे हैं। क्या जनता अराजकता चाहती है?
जनता अराजकता नहीं चाहती, पर उसके मन में गुस्सा भी है। राज्यों के गठन से जुड़ी समस्याओं में तेलंगाना की समस्या सबसे पुरानी है। भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का पहला आंदोलन यहाँ से ही शुरू हुआ था। राज्यों के पुनर्गठन में जब आंध्र का गठन हुआ था तब भी तेलंगाना का सवाल उठा था। इसके बाद जब भी यह सवाल उठा इसके नेताओं को पद दे दिवाकर खामोश कर दिया गया। सन 2004 में यूपीए सरकार बनाने के पीछे तेलंगाना महत्वपूर्ण कारक था और यूपी के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में तेलंगाना का गठन भी शामिल था। समय रहते इस समस्या का समाधान न हो पाना हमारी मुख्यधारा की राजनीति का नासमझी को ही दर्शाता है।
 
पिछले 67 साल में हमारे यहाँ राजनीति के मायने चालबाजी, जोड़तोड़ और जालसाज़ी हो गए हैं। जनता का गुस्सा इसी बात पर है। सवाल है कि राजनेता संसद में शोरगुल करके क्या अपने वोटर को संतुष्ट कर सकते हैं? राजनीति तो राज व्यवस्था से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण कर्म है। क्या यह गाड़ी उलटी चाल चल रही है? हाल में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने और फिर गिरने के बाद यह महत्वपूर्ण सवाल उठा है कि शांतिपूर्ण और विवेकशील तरीके से अपनी समस्याओं का हल हम कैसे खोजें? खासतौर से संसदीय संस्थाओं का सम्मान कायम कैसे करें? ‘आप’ के रूप में नए किस्म की राजनीति की उदय सफल माना जाएगा, जब वह गांधी के आदर्श यानी साधन और साध्य की एकता और पवित्रता का ख्याल रखे।

ऐसा नहीं कि राजनीति बदलना नहीं चाहती। या वह बदली नहीं जा सकती। उसे बदलने के लिए वोटर के तमाचे की जरूरत है। अभी तक हम मानते रहे हैं कि वोट देने के बाद जनता की भूमिका खत्म। जैसे-जैसे वोटर की भूमिका बदलेगी उसकी राजनीति बदलेगी। हंगामा, गुलगपाड़ा और उपद्रव सकारात्मक राजनीति के विकल्प नहीं हैं। विरोध व्यक्त करने वाले सांसद अपनी बात को सदन के मंच पर आसानी से कह सकते हैं। मीडिया की बहस में शामिल हो सकते हैं। जनसभाओं में अपनी बात उठा सकते हैं।


अफसोस इस बात का है कि इनमें केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं, जो दलीय अनुशासन को मानने को तैयार नहीं। अंततः क्षेत्रीयता और संकीर्ण धारणा की यह जीत शुभ लक्षण नहीं। पिछले गुरुवार की घटना के बाद 14 सांसदों को निलंबित किया गया है, पर क्या निलंबन इस प्रकार की राजनीति को रोक पाएगा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार शुरू से ही सिर पर कफन बाँधकर काम कर रही थी। बेशक उसके उठाए सवाल महत्वपूर्ण हैं, पर उनके सवाल फौरन नहीं मिल सकते। उसकी जल्दबाज़ी भी परेशानी का कारण है। दूसरी और मुख्यधारा की राजनीति बुरी तरह पाखंड की शिकार है। उसने अपनी छवि नहीं सुधारी तो जनता के आक्रोश का सामना करने के लिए उसे तैयार रहना होगा। लोकसभा के चुनाव के पहले सड़क राजनीति ऊबड़-खाबड़ ढलान पर उतर गई है। उसे समतल पर लाने में जागरूक नागरिकों की भूमिका है। इसके खतरों से देश को खबरदार रहना चाहिए। 

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