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Sunday, January 26, 2014

भागो नहीं, जागो और बदलो

अक्सर लोग पूछते हैं कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस में फर्क क्या है? मोटे तौर पर इसका मतलब है संविधान लागू होने का दिन। संविधान सभा ने 29 नवम्बर 1949 को संविधान को अंतिम रूप दे दिया था। इसे उसी रोज लागू किया जा सकता था या 1 दिसम्बर या 1 जनवरी को लागू किया जा सकता था। पर इसके लिए 26 जनवरी की तारीख मुकर्रर की गई। वह इसलिए कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिसम्बर 1929 में हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास किया गया और  26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। पर स्वतंत्रता मिली 15 अगस्त को। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के इसे आगामी 26 जनवरी 1950 से लागू करने का फैसला किया गया।


यह गणतंत्र दिवस है। गणतंत्र माने जिस देश का राष्ट्राध्यक्ष चुना जाता है। भारत ने लोकतंत्र और गणतंत्र का रास्ता तब चुना जब दुनिया के तमाम देशों में लोकतंत्र की भावना अच्छी तरह विकसित नहीं हो पाई थी। हम आर्थिक रूप से भले ही अमीर देश नहीं हैं, पर लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिहाज से यूरोप और अमेरिका के बाद भारत सबसे विकसित देश है। पर क्या हम लोकतंत्र के महत्व को समझते हैं? हमारे पास दुनिया का सबसे विषद संविधान है। दुनिया में सांविधानिक परम्पराएं तकरीबन साढ़े तीन सौ साल पुरानी हैं। लिखित संविधान तो और भी बाद के हैं। 1787 में अमेरिकी संविधान से इसकी शुरूआत हुई। ऑस्ट्रियो हंगेरियन संघ ने 1867 में ऑस्ट्रिया में संविधान लागू किया। लोकतंत्र का दबाव था कि उन्नीसवीं सदी में अनेक सम्राटों एवं राजाओं ने अपने देशों में संविधान रचना की। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में संविधान का निर्माण हो रहा है। पाकिस्तान में पिछले पाँच साल से सांविधानिक लोकतंत्र काम कर रहा है। बांग्लादेश में लोकतंत्र चल रहा है, पर हाल में हुए चुनावों में सत्तारूढ़ दल को छोड़कर दूसरे दलों ने चुनाव नहीं लड़ा। इससे असंतुलन पैदा हो गया है। म्यांमार में फौजी सरकार है। अमेरिका और यूरोप के लोकतंत्र में भी तमाम खामियाँ हैं। सच यह है कि लोकतंत्र की सफलता के लिए आर्थिक रूप से भी समाज को स्वतंत्र होना चाहिए। अभी हम ऐसा दावा नहीं कर सकते। दुनिया की सभ्यताओं के  पाँच हजार साल के इतिहास के खाते में लोकतंत्र के नाम महज तकरीबन चार सौ साल हैं। 

भारतीय संविधान की रचना के समय निर्माताओं के सामने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र, केंद्र एवं राज्यों के कार्यक्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या, सामाजिक न्याय और इस देश की बहुल संस्कृति की रक्षा जैसे सवाल थे। पिछले 64 साल के सांविधानिक अनुभव को देखें तो सफलता और विफलता के अनेक मंजर देखने को मिलेंगे। कभी लगता है हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं। या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता। उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। समाज ही अपने लोकतंत्र को विकसित करता है, साथ ही लोकतंत्र से समाज और विकसित होता है। 

दो-तीन रोज पहले बंगाल से एक खबर आई कि विजातीय समाज में विवाह करने वाली आदिवासी समाज की एक लड़की को सज़ा देने के लिए उसके समाज के लोगों ने उसके साथ गैंगरेप किया। क्या यह आधुनिक समाज है? इसी हफ्ते मध्य प्रदेश से खबरें थीं कि वहाँ कुछ सरकारी कर्मचारियों के घरों पर छापा मारकर करोड़ों की सम्पत्ति का पता लगाया गया। हिंसा, क्रूरता, भ्रष्टाचार, बेईमानी और अन्याय की खबरों से हर रोज अखबारों के पन्ने रंगे होते हैं। क्या हमारा लोकतंत्र विफल है? क्या यह लोकतंत्र का दोष है? क्या हमारे संविधान में दोष है? हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल धरने पर बैठे, तब सवाल उठा कि संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को क्या असंवैधानिक रास्ते अपनाने चाहिए? क्या हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए? यह देखना चाहिए कि व्यवस्था के दोष किस प्रकार दूर होंगे?

पिछले साल एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने आपराधिक रिकॉर्ड वाले जन प्रतिनिधियों पर किए गए सर्वे के परिणाम जारी किए। यह सर्वे भी नहीं था, बल्कि इलेक्शन वॉच के दस साल के आँकड़ों का विश्लेषण था। ये आँकड़े जन प्रतिनिधियों के हलफनामों से निकाले गए थे। पहला निष्कर्ष था कि जिसका आपराधिक रिकॉर्ड जितना बड़ा है उनकी संपत्ति भी उतनी ज्यादा है। यह भी कि साफ-सुथरे प्रत्याशियों के जीतने की सम्भावना 12 प्रतिशत है और आपराधिक पृष्ठभूमि वालों की सम्भावना 23 प्रश। एक रोचक तथ्य यह था कि आपराधिक पष्ठभूमि के जन प्रतिनिधियों में से 74 फीसदी को दूसरी बार भी टिकट मिलता है। इनका कारोबार चाहे जो भी रहा हो, इनकी आमदनी एक सौ से  एक हजार फीसदी तक बढ़ जाती है।

इस किस्म की जानकारियाँ हमें निराश करतीं हैं, पर यह जानकारी चुनाव आयोग की उस पहल के कारण सामने आ सकी, जिसे राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ा था। पिछले दो दशक से अनेक नागरिक अधिकार संगठन राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। उन्होंने पार्टियों पर इस बात के लिए ज़ोर डालना शुरू किया कि वे ऐसे व्यक्तियों को टिकट न दें जिनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों ने दागी जन प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। अदालतों के फैसले, जनता के दबाव और नागरिक अधिकार संगठनों की पहलकदमी से काफी चीजें बदल रहीं है। व्यवस्था में पारदर्शिता आने से हमें अपनी गंदगी को देखने का मौका भी मिल रहा है। दर्पण देखने पर हम अपने चेहरे की कालिख को साफ करते हैं, नहीं देखते तो वह बनी रहती है।

पारदर्शिता की दरकार एक परत से दूसरी परत पर जाती है। हाल में एक राजनेता ने बयान दिया कि राज्यसभा की सदस्यता 100 करोड़ रुपए में मिलती है। कौन देता है यह सदस्यता?  इसे किसी एक पार्टी या संगठन की कहानी मानने के बजाय अपने लोकतंत्र की कहानी मानना चाहिए, जो पिछले 67 साल में अनेक पायदान चढ़कर ऊपर आया है। लोकतंत्र हमें जागरूक होने का मौका देता है। जन-जागृति और शिक्षा के सहारे इसका विस्तार होता है। आप चाहें तो अपने हालात को देखकर निराश हो सकते हैं, पर इससे क्या होगा? बेहतर होगा कि आप इसे सुधारने में मददगार बनें। फैज अहमद फैज के शब्दों में:-


दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

हरिभूमि में प्रकाशित

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