आम आदमी पार्टी
हालांकि सभी पार्टियों के लिए चुनौती के रूप में उभरी है, पर उसका पहला निशाना
कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। पर ‘आप’ की जीत के बाद
राहुल गांधी ने कहा कि हमें जनता से जुड़ने की कला ‘आप’ से सीखनी चाहिए। सवा सौ साल पुरानी पार्टी के नेता की इस बात के माने
क्या हैं? राहुल की ईमानदारी या कांग्रेस का भटकाव? पार्टी को पता नहीं रहता कि जनता के मन में क्या है। राहुल गांधी ने इसके
फौरन बाद लोकपाल विधेयक का मुद्दा उठाया और कोई कुछ सोच पाता उससे पहले ही वह
कानून पास हो गया। लोकसभा चुनाव होने में तकरीबन तीन महीने का समय बाकी है। अब
कांग्रेस को तीन सवालों के जवाब खोजने हैं। क्या राहुल गांधी के नाम की औपचारिक
घोषणा प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में की जाएगी? क्या
सरकार कुछ और बड़े राजनीतिक फैसले करेगी? कांग्रेस कौन सी
जादू की पुड़िया खोलेगी जिसके सहारे सफलता उसके चरण चूमे?
पिछले मंगलवार
को राहुल गांधी के घर पर प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के बड़े नेताओं की बैठक करने
के बाद इतना जाहिर कर दिया कि वे भी अब सक्रिय रूप से चुनाव में हिस्सा लेंगी। राहुल
गांधी को अपने साथ विश्वसनीय सहयोगियों की जरूरत है। अगले कुछ दिनों में
महत्वपूर्ण नेताओं को सरकारी पदों को छोड़कर संगठन के काम में लगने के लिए कहा
जाएगा। इस बार एक-एक सीट के टिकट पर राहुल गांधी की मोहर लगेगी। महासचिवों के स्तर
पर भारी बदलाव होने जा रहा है। उत्तर प्रदेश,
मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान और अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों में कांग्रेस के पास
प्रभावशाली चेहरों की कमी है। कांग्रेस ने खुद भी इन इलाकों को त्यागा है। इसके
पहले प्रियंका गाँधी को मुख्यधारा की राजनीति में लाने की कोशिश नहीं की है। अमेठी
और रायबरेली के सिवा वे देश के दूसरे इलाकों में प्रचार करने नहीं जातीं। उन्हें
राहुल की पूरक बनाने का प्रयास अब किया जा रहा है। लगता है संगठन के काम अब वे देखेंगी।
प्रचार के तौर-तरीकों में भी बुनियादी बदलाव के संकेत हैं। हिंदी इलाकों में अच्छे
ढंग से हिंदी बोलने वाले प्रवक्ताओं को लगाने की योजना है। सोशल मीडिया में पार्टी
की इमेज सुधारने के लिए बाहरी एजेंसियों की मदद ली जा सकती है।
इसमें दो राय
नहीं कि राहुल गांधी ही कांग्रेस का नेतृत्व करेंगे, पर क्या उन्हें प्रधानमंत्री
पद का प्रत्याशी घोषित किया जाएगा? हाल में खबर थी कि दिग्विजय सिंह का सुझाव
है कि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम घोषित नहीं किया जाना चाहिए। प्रत्याशित
घोषित करने का मतलब है मोदी के मुकाबले में खड़ा करना। पर इसमें घबराने की क्या
बात है? प्रत्याशी घोषित नहीं करेंगे तब भी तीर तो राहुल के
नाम पर ही चलेंगे। प्रियंका को सामने लाने का मतलब है कि यदि राहुल को
प्रधानमंत्री पद संभालने का मौका मिले तो संगठन के काम देखने के लिए किसी विश्वस्त
व्यक्ति का तैयार रहना। कांग्रेस इस नकारात्मक धारणा के साथ मैदान में क्यों उतरे
कि उसकी सरकार नहीं बनने वाली है। राजनीति में ‘पर्सेप्शन’ तैयार करना भी महत्वपूर्ण काम है। नरेंद्र मोदी ने ऐसा माहौल बनाया कि जैसे
वे प्रधानमंत्री बनकर आ रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने भी ऐसा ही माहौल बनाया है कि
वह बहुत बड़ी ताकत बनकर उभर रही है। बहरहाल 16 जनवरी को कांग्रेस कार्यसमिति की
बैठक में इस मसले पर अंतिम फैसला होने के बाद 17 को इसकी घोषणा होने के पूरे आसार
हैं।
वैचारिक स्तर
पर कांग्रेस क्या करेगी? उत्तर भारत में वह मुसलमानों को आकर्षित करने की कोशिश में है।
मुजफ्फरनगर के दंगे के बाद उसके नेताओं के दौरों और बयानों से ऐसा लगता है। पर यह
परम्परागत राजनीति है। आम आदमी पार्टी ने जाति और धर्म का नाम लिए बगैर आसानी से
खुद को लोकप्रिय बना लिया। उसने जनता के उस दर्द को उभारा जो हिंदू और मुसलमान,
सवर्ण और दलित सभी को समान रूप से परेशान करता है। हाल में जयराम रमेश ने कहा कि
हमने दो साल पहले लोकपाल विधेयक को पास कर दिया होता तो आम आदमी पार्टी बनी न
होती। उनका आशय जो भी हो, पर पार्टी भ्रष्टाचार को अब अपना मसला बनाना चाहती है। इसलिए
सरकार संसद के आगामी सत्र में कम से कम चार ऐसे
विधेयकों को पास कराना चाहेगी, जो भ्रष्टाचार विरोधी व्यवस्था का हिस्सा हैं।
इनमें ह्विसिल ब्लोवर कानून, न्यायिक जवाबदेही कानून, भ्रष्टाचार निरोधक (संशोधन)
कानून और नागरिक के समयबद्ध सेवा पाने के अधिकार का कानून शामिल हैं। इन कानूनों
को पास करने में कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी, क्योंकि फिलहाल भाजपा का एजेंडा भी यही
है।
आम
आदमी पार्टी की जीत के फौरन बाद राहुल गांधी ने कहा था कि हमें उससे कुछ सीखना
चाहिए, पर ‘आप’ की लगातार तारीफ करना कांग्रेस के हित में नहीं।
हाल में जनार्दन द्विवेदी ने जयराम रमेश की इस बात के लिए आलोचना भी की है। इस
आलोचना के पीछे पार्टी के भीतर का राग-द्वेष भी है, पर रणनीति के लिहाज से यह
खतरनाक है। संयोग से ‘आप’ अपने
बचकानेपन के कारण यों भी गलतियाँ कर रही है। उसके नेताओं को लगता है कि वे लोकसभा
चुनाव में काफी बड़ी सफलता हासिल कर सकेंगे। ऐसा होगा या नहीं इस कहने के लिए अभी
कम से कम दो महीने का समय ‘आप’ को भी
मिलना चाहिए। पार्टी ने ‘मैं भी हूँ आम आदमी’ के नाम से सदस्यता अभियान शुरू किया है। इसमें उसे भारी सफलता मिली है।
पर यही सफलता भारी विफलता का कारण बन सकती है। राजनीतिक दल का अनुशासन स्थापित
करने का कौशल उसके नेताओं के पास कैसा है अभी से देखना होगा। कांग्रेस के पास
जयराम रमेश जैसे नेता पहले से हैं, जो लालबत्ती का तिरस्कार ‘आप’ की परिकल्पना का पहले से करते आए हैं। उन्हें
फुटपाथ पर चलते देखा जा सकता है। कांग्रेस का सकल प्रभाव अच्छा नहीं है तो उसके
व्यवहारिक कारणों को भी खोजना होगा। अजब बात है कि कांग्रेस पिछले दो साल से जिन
कार्यों को गेम चेंजर मान रही थी उन्हें अचानक वह भूल गई है। और जिन बातों की उसने
सायास उपेक्षा की उन्हें याद कर रही है। यह उसका बचकानापन है। उसे कोई जादुई चिराग
मिले तभी खैर है, वरना...।
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