दुनिया के किसी
भी देश के अंतरिक्ष अभियान पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि हर सफलता के पीछे विफलताओं
की कहानी छिपी होती। हर विफलता को सीढ़ी की एक पायदान बना लें वह सफलता के दरवाजे
पर पहुँचा देती है। यह बात जीवन पर भी लागू होती है। भारत के जियोसिंक्रोनस
सैटेलाइट लांच वेहिकल (जीएसएलवी) के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि यह रॉकेट कई
प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हुए तैयार हुआ है। इसकी सफलता-कथा ही लोगों को
याद रहेगी, जबकि जिन्हें जीवन में चुनौतियों का सामना करना अच्छा लगता है, वे इसकी
विफलता की गहराइयों में जाकर यह देखना चाहेंगे कि वैज्ञानिकों ने किस प्रकार इसमें
सुधार करते हुए इसे सफल बनाया।
जीएसएलवी की
चर्चा करने के पहले देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम पर नजर डालनी चाहिए। यह समझने की
कोशिश भी करनी चाहिए कि देश को अंतरिक्ष कार्यक्रम की जरूरत क्या है। कुछ लोग
मानते हैं कि जिस देश में सत्तर करोड़ से ज्यादा लोग गरीब हों और जहाँ चालीस करोड़
से ज्यादा लोग खुले में शौच को जाते हों उसे अंतरिक्ष में रॉकेट भेजना शोभा नहीं
देता। पहली नजर में यह बात ठीक लगती है। हमें इन समस्याओं का निदान करना ही चाहिए।
पर अंतरिक्ष कार्यक्रम क्या इसमें बाधा बनता है? नहीं बनता बल्कि इन
समस्याओं के समाधान खोजने में भी अंतरिक्ष विज्ञान मददगार हो सकता है।
भारतीय अन्तरिक्ष
कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है। उन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम
का जनक कहा गया है। स्वतंत्रता हासिल करने के बाद से ही हमारे देश ने विज्ञान और
तकनीक के सहारे अपनी समस्याओं के समाधान का रास्ता खोजना शुरू कर दिया था। उस
जमाने में रूस और अमेरिका के बीच अंतरिक्ष में प्रभुत्व की दौड़ चल रही थी। प्रधान
मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को महत्वपूर्ण माना
था। सन 1957 में रूसी स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद हमारे यहाँ भी महसूस किया गया
कि हमें भी जानकारी के इस क्षेत्र में पीछे नहीं रहना चाहिए। सन 1961 में अंतरिक्ष
अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु ऊर्जा विभाग के निदेशक
होमी भाभा देश के परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं। सन 1962 में अंतरिक्ष
अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ. साराभाई को
सभापति बनाया गया।
सन 1962 में अंतरिक्ष
कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही हमारे यहाँ साउंडिंग रॉकेटों का प्रक्षेपण शुरू कर
हुआ। ये रॉकेट हवा के दबाव वगैरह का अध्ययन करने के लिए छोड़े जाता हैं। हमारे देश
का दक्षिणी हिस्सा भूमध्य रेखा के करीब होने से इन परीक्षणों में आसानी होती थी। ये
रॉकेट थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से छोड़े जाते थे, जो दक्षिण केरल में तिरुवनंतपुरम के नजदीक है। हालांकि
हमने अमेरिका और फ्रांस में बने रॉकेटों से काम शुरू किया, पर कुछ नया करने की
कोशिश में भारत ने ठोस ईंधन वाले साउंडिंग रॉकेटों को तैयार किया, जिनका नाम रखा
गया रोहिणी।
हमारा अंतरिक्ष
कार्यक्रम परमाणु ऊर्जा विभाग के तहत आने वाले इनकोस्पार से 1969 में बाहर आया और भारतीय
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन किया गया। जून, 1972 में अंतरिक्ष विभाग की स्थापना की गई। हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम
का उद्देश्य मिसाइलें बनाना नहीं था। साठ के दशक में डॉ. साराभाई ने टेलीविजन के
सीधे प्रसारण जैसे इस्तेमाल पर काफी पहले ही विचार किया। उन्होंने नासा के साथ विमर्श
में पाया कि प्रसारण के लिए यह सबसे सस्ता और प्रभावशाली साधन है। सन 1962 में
अमेरिका ने दुनिया का पहला संचार उपग्रह टेलस्टार पृथ्वी की कक्षा में स्थापित
किया। उपग्रहों की स्थापना के साथ-साथ प्रक्षेपण वाहनों के बारे में भी सोचा गया। इसरो
ने अपने पहले स्पेस लांच वेहिकल (एस.एल.वी.) की योजना साठ के दशक में ही बना ली
थी। और सत्तर के दशक में उपग्रह के माध्यम से टीवी के शैक्षिक कार्यक्रमों का
परीक्षण भी किया था। हमारे लोकतंत्र की ताकत है जनता की भागीदारी। इतने बड़े देश
को जोड़ने में अंतरिक्ष की तकनीक काफी मददगार साबित होगी।
भारत ने अंतरिक्ष
में पहली छलांग 1975 में रूस के सहयोग से पहले उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण के
मार्फत लगाई। सन 1979 तक सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र एसएलवी. प्रक्षेपण के लिए
तैयार हो चुका था। इसका 1979 में पहला प्रक्षेपण सफल नहीं हो पाया। सन 1980 में देश
में बना पहला उपग्रह रोहिणी-1 अपने रॉकेट एसएलवी-3 पर रखकर छोड़ा गया। एसएलवी के
बाद एएसएलवी और फिर पीएसएलवी रॉकेट तैयार हुए। पोलर सैटेलाइट लांच वेहिकल हमारा
सबसे सफल रॉकेट है। पर यह हमारी जरूरतें पूरी नहीं करता। दो-ढाई टन के संचार
उपग्रह को भू-स्थिर कक्षा में स्थापित करने के लिए हमने जीएसएलवी की योजना बनाई
थी। उधर पीएसएलवी का पहला प्रक्षेपण 1993 में किया गया। पर इसकी कमियाँ 1996 तक
जाकर दूर हुईं। उसके समानांतर जीएसएलवी के विकास का काम शुरू हो गया था।
उस दिशा में हम
तभी आगे जा सकते थे, जब क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक हमारे पास होती। इसलिए नब्बे के
दशक में हमने उस दिशा में काम शुरू भी कर दिया। पर अमेरिकी दबाव में रूस ने हमें
तकनीक देने के बजाय केवल सात इंजन देना मंजूर किया। बावजूद इसके कि हमारा उसके साथ
पाँच इंजन और तकनीक देने का समझौता हो चुका था। विज्ञान और तकनीक के मामले में ऐसी
अड़ंगेबाजियाँ लगती ही रहेंगी। शायद इसीलिए भारत ने पिछले साल देश के पहले नौवहन
उपग्रह आईआरएनएसएस-1ए का प्रक्षेपण किया था। इस उपग्रह की मदद से हमें नौवहन में
मदद मिलेगी। इस नेटवर्क को पूरा
करने के लिए अभी छह और सैटेलाइट भेजे जाएंगे। यह काम 2014 में ज़ारी रहेगा और
उम्मीद है कि इससे जुड़े अधिकतर उपग्रह इस साल ही छोड़े जाएंगे। चूंकि चार
सैटेलाइटों के कक्षा में पहुँच जाने के बाद यह प्रणाली काम शुरू कर देगी, इसलिए
आशा है कि इस साल यह काम शुरू हो जाएगा। सातों सैटेलाइटों का काम 2015 तक पूरा
होना है। यह काम हम
अमेरिकी जीपीएस की मदद से भी कर सकते हैं, पर कौन जाने कल वह हाथ खींच ले।
श्रीहरिकोटा स्थित
सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से 5 जनवरी को जीएसएलवी का परीक्षण सफल रहा। जीएसएलवी
अपने साथ 1982 किलोग्राम वज़न के संचार उपग्रह जीसैट-14 को ले गया। इस रॉकेट और
उपग्रह का प्रक्षेपण 19 अगस्त 2013 को अंतरिक्ष में रवाना होने के पहले उलटी गिनती
के दौरान रोक दिया गया था। जीएसएलवी से ज्यादा यह उसके क्रायोजेनिक इंजन का
परीक्षण था। जीएसएलवी के प्रयोग पहले सफल हो चुके हैं, पर वे रूसी इंजन के साथ थे।
हमें अपने संचार उपग्रहों के लिए जो रॉकेट चाहिए वह स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की
सफलता के बगैर संभव नहीं था। क्रायोजेनिक इंजन अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली होता है।
वह कम ईंधन से ज्यादा थ्रस्ट तैयार करता है। भारतीय क्रायोजेनिक इंजन की सफलता ऐसे
रॉकेटों के निर्माण की दिशा में पहला सफल कदम होगा, जो अधिक वजन उठाने यानी, चार टन तक के भार
वाले उपग्रह को ले जाने में सक्षम हो। भविष्य में भारत को दूसरे ग्रहों की यात्रा
करने लिए या अंतरिक्ष स्टेशन बनाने के लिए चार टन से भी ज्यादा वज़न ले जाने वाले
रॉकेटों की जरूरत होगी। जीसैट-14 के फौरन बाद इसी साल जीसैट-15 भी छोड़ा जाएगा। इसके
लिए यूरोपियन एरियान रॉकेट चुना गया है।
पिछले साल 5 नवंबर
को भारत ने जो मंगलयान छोड़ा था, उसके लिए हमें खासतौर से जीएसएलवी की ज़रूरत थी। पर
वह समय से तैयार नहीं हो पाया। मंगल पर पिछले साल हम यान न भेजते तो फिर दो साल
बाद वह मौका मिलता। इसके कारण हमें मंगलयान का वज़न कम करना पड़ा। उसके उपकरणों की
संख्या कम हुई। साथ ही इसका यात्रा पथ अपेक्षाकृत लंबा और समय साध्य हो गया। हालांकि
इसके कारण भारत ने एक और क्षेत्र में अपनी सामर्थ्य को परख लिया। हमारे वैज्ञानिकों एक जटिल काम को पूरा करके
दिखाया है। फिर हम ज्यादा से ज्यादा इसे मंगल की 380 किलोमीटर गुणा 80,000 किलोमीटर की
कक्षा में स्थापित कर पाएंगे। यदि यह यान जीएसएलवी पर सवार होकर जाता तो मंगल की
और करीबी कक्षा में जा सकता था।
मंगल के बाद अब हमें
समानव उड़ान के लिए और वज़नी रॉकेटों की जरूरत होगी। उसके लिए जीएसएलवी मार्क-3 का
परीक्षण चलेगा। इसमें भारत में ही बना सीई-20 क्रायोजेनिक इंजन लगेगा। इस इंजन का
परीक्षण चल रहा है और आशा है कि यह 2015 तक तैयार हो जाएगा। जीएसएलवी-मार्क3 की
क्षमता चार से पाँच टन के उपग्रह को जीटीओ (जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट) तक
पहुँचाने की होगी। हमें इससे भी ज्यादा वज़न ले जाने वाले रॉकेटों की जरूरत होगी,
क्योंकि यदि हमें स्पेस स्टेशन बनाना पड़ा तो उसके उपकरण काफी भारी होंगे। चीन का
लांग मार्च-5 हमारे रॉकेटों से ज्यादा ताकतवर है। अभी हमें चंद्रयान-2 के लिए
जीएसएलवी चाहिए। हमें सूर्य का अध्ययन करने के लिए आदित्य भेजना है। उसके लिए भी
भारी रॉकेट चाहिए। खुशी की बात है कि हमने उसे हासिल कर लिया। अपनी गलतियों को
दुरुस्त करते हुए। यह क्या कम बड़ी बात है।
गरीब देशों की
दिलचस्पी
कुछ साल पहले तक
हमें मोबाइल फोन अमीरों की तकनीक लगती थी। आज स्थिति बदली हुई है। स्पेस तकनीक से
भी यही बात साबित होगी। रॉकेट तकनीक में महारत हासिल करने का मतलब है अरबों डॉलर
के अंतरिक्ष प्रक्षेपण में हिस्सेदारी। आने वाले वर्षों में तमाम विकासशील देश
अपने संचार उपग्रह अंतरिक्ष में भेजना चाहेंगे। सत्तर से ज्यादा देशों की अंतरिक्ष
में दिलचस्पी है।
भारत के पड़ोस में
श्रीलंका और पाकिस्तान ने अपने उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे हैं। श्रीलंका ने चीन के
रॉकेट की मदद ली है। हिंद महासागर का नन्हा सा देश मालदीव भी चीन से उपग्रह
प्रक्षेपण की बात कर रहा है। बांग्लादेश और नेपाल की योजना भी है। इंडोनेशिया का
उपग्रह अंतरिक्ष में घूम रहा है। नाइजीरिया का अंतरिक्ष कार्यक्रम इस मामले में
काफी प्रसिद्धि पा चुका है।
टेलीफोन, टेलिविजन
और मौसम की जानकारी जैसे इस्तेमालों को देखते हुए अब अमीर देशों से ज्यादा गरीब
देशों की दिलचस्पी अंतरिक्ष में है। इनमें से किसी के पास रॉकेट नहीं हैं। अरबों
डॉलर के इस व्यापार पर अभी अमेरिका, रूस, यूरोपियन स्पेस एजेंसी का कब्जा है। अब
चीन ने भी इसमें प्रवेश किया है। हमारे देश को भी इसमें संभावनाएं नजर आ रहीं हैं।
हमारी खासियत है कि सस्ता प्रक्षेपण हम उपलब्ध कराते हैं। हालांकि हमारा पीएसएलवी
हल्का रॉकेट है, पर अपने वर्ग में वह बेहद सफल रॉकेट है। एक साथ दस सैटेलाइटों के
प्रक्षेपण का विश्व रिकॉर्ड पीएसएलवी के नाम है। आने वाले समय में विश्वविद्यालय
के छात्र भी अपने प्रायोगिक उपग्रह अंतरिक्ष में भेजेंगे। हमारा पीएसएलवी एक बेहतर
विकल्प है।
पाँच साल में 58 अंतरिक्ष अभियान
इस साल भारत कम से
कम दस-बारह उपग्रहों के प्रक्षेपण करेगा। इनमें सबसे महत्वपूर्ण काम है वायु मार्ग
की दिशासूचक प्रणाली गगन को चालू करना। गगन का पूरा नाम है जीपीएस एडेड जियो
ऑगमेंटेड नेवीगेशन। यह प्रणाली भारतीय आकाश मार्ग से गुजर रहे विमानों के पायलटों
को तीन मीटर तक का अचूक दिशा ज्ञान देगी।
भारतीय अंतरिक्ष
अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 12वी पंचवर्षीय योजना ( 2012-17) के दौरान 58
अंतरिक्ष मिशनों के संचालन की योजना तैयार की है। इन मिशनों पर तकरीबन 39,750 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। वित्त वर्ष 2012-13 में इसके लिए 5,615 करोड़ रुपये का आवंटन
किया गया था। जीसैट-15 और जीसैट-16 सहित कुछ अहम परियोजनाओं
के प्रस्तावों को 28 जून 2013 को कैबिनेट की मंजूरी मिल चुकी है। जीसैट-15 का निर्माण इसरो की उस योजना का हिस्सा है, जिससे आवश्यक क्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी।
इस समय देश के नौ
इनसैट/जीसैट उपग्रह काम कर रहे हैं जो लगभग 195
ट्रांसपोंडरों को
विभिन्न फ्रीक्वेंसी के बैंड उपलब्ध कराते हैं। जीएसएलवी के समय से तैयार न हो
पाने के कारण हमें आवश्यक उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए यूरोप के एरियान रॉकेट की
मदद लेनी पड़ती थी। सामान्यतः एक प्रक्षेपण की कीमत 600 करोड़ रुपए होती है।
स्वदेशी रॉकेट तैयार हो जाने के बाद यह प्रक्षेपण तकरीबन 200 करोड़ रुपए में होगा।
जीएसएलवी-डी5
लक्ष्य
|
और उपलब्धि
|
पेरिजी 180
किलोमीटर (5 किलोमीटर कम या ज्यादा)
|
179 किलोमीटर
|
अपोजी 35975
किमी (650 किमी कम या ज्यादा)
|
36025 किलोमीटर
|
जीएसएलवी
परीक्षणों का इतिहास
|
तिथि
|
परीक्षण
|
क्रायोजेनिक
इंजन
|
परिणाम
|
1
|
18 अप्रैल,2001
|
जीएसएलवी-डी1
के साथ जीसैट-1
|
रूसी
|
इसरो ने इस
परीक्षण में जीएसएलवी को सफल और निर्धारित कक्षा में न पहुँच पाने के कारण
जीसैट-1 को विफल बताया।
|
2
|
8 मई, 2003
|
जीएसएलवी-डी2
के साथ जीसैट-2
|
रूसी
|
सफल
|
3
|
20 सितंबर,
2004
|
जीएसएलवी-एफ01
के साथ एडुसैट (जीसैट-3)
|
रूसी
|
सफल
|
4
|
10 जुलाई, 2006
|
जीएसएलवी-एफ02
के साथ इनसैट-4सी
|
रूसी
|
विफल। भटकाव के
कारण रॉकेट और उपग्रह दोनों को बंगाल की खाड़ी के ऊपर नष्ट कर दिया गया।
|
5
|
2 सितंबर, 2007
|
जीएसएलवी-एफ04
के साथ इनसैट-4सीआर
|
रूसी
|
सफल। उपग्रह को
स्थापित करने में थोड़ी सी कमी रही, पर बाद में उपग्रह को सही कक्षा में ले जाया
गया। उपग्रह आज भी काम कर रहा है।
|
6
|
15 अप्रैल,
2010
|
जीसैट-4 के साथ
जीएसएलवी-डी3
|
स्वदेशी
|
विफल।
क्रायोजेनिक अपर स्टेज के फ्यूल बूस्टर टर्बो पंप में खराबी के कारण रॉकेट
निर्धारित कक्षा में नहीं पहुँच सका।
|
7
|
25 दिसंबर,
2010
|
जीसैट-5पी के
साथ जीएसएलवी-एफ06
|
स्वदेशी
|
विफल। लिक्विड
फ्यूल बूस्टरों में खराबी के कारण रॉकेट नियंत्रण से बाहर हो गया और रेंज सिक्योरिटी
ऑफिसर ने उसे ध्वस्त कर दिया।
|
8
|
19 अगस्त, 2013
|
जीसैट-14 के
साथ जीएसएलवी-डी5
|
स्वदेशी
|
परीक्षण से एक
घंटा चौदह मिनट पहले ईंधन टैंक में रिसाव की जानकारी मिलने पर प्रक्षेपण रोका
गया।
|
9
|
05 जनवरी, 2014
|
जीसैट-14 के
साथ जीएसएलवी-डी5
|
स्वदेशी
|
पूरी तरह सफल
|
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