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Monday, April 15, 2013

सज़ा नहीं हत्या है फाँसी


मौत की सज़ा क्या सोची-समझी ऐसी हत्या नहीं है, जिसकी तुलना हम किसी भी सुविचारित अपराध से नहीं कर सकते? तुलना करनी ही है तो यह उस अपराधी को दी गई सजा है, जिसने अपने शिकार को पहले से बता दिया हो कि मैं फलां तारीख को तुझे मौत की नींद सुला दूँगा। और उसका शिकार महीनों तक उस हत्यारे की दया पर जीता हो। ऐसे वहशी सामान्य जीवन में नहीं मिलते। -अल्बेर कामू

इस साल हम फ्रांसीसी साहित्यकार पत्रकार अल्बेयर कामू की जन्मशती मना रहे हैं। कामू का जन्म फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया में हुआ था। वहीं उनकी शुरूआती पढ़ाई भी हुई। सन 1957 में कामू को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उसी साल कामू और आर्थर कोस्लर ने मिलकर मौत की सजा के खिलाफ एक लम्बा निबंध लिखा। यह निबंध मनुष्य की प्रकृति का विवेचन करता है। अलबेयर कामू मानवाधिकारों को लेकर बेहद संवेदनशील थे। वामपंथी झुकाव के बावज़ूद उन्हें वामपंथियों की आलोचना का विषय बनना पड़ा। व्यष्टि और समष्टि की इस दुविधा के कारण उन्होंने बहुत से मित्रों को दुश्मन बना लिया। मानवाधिकार को लेकर उन्होंने सोवियत रूस, पोलैंड और जर्मनी की सरकारों के कई निर्णयों की खुलकर आलोचना की। जब कामू लिख ही रहे थे तभी 1954 में अल्जीरिया का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया। यहाँ कामू की दुविधाएं सामने आईं। बहरहाल विचार का वह अलग विषय है। मृत्युदंड पर अपने निबंध की शुरूआत कामू एक व्यक्ति की सरेआम गर्दन काटे जाने के प्रसंग से करते हैं, जिसे उनके पिता देखकर आए थे। उस व्यक्ति को एक परिवार की हत्या के कारण मौत की सजा दी गई थी। उसने महिलाओं-बच्चों समेत परिवार के सभी लोगों को मार डाला था। जब पिता इस सजा को देखकर वापस आए तो वे बेहद व्यथित थे। उनके मन में मारे गए बच्चों की छवि नहीं थी बल्कि वह शरीर था, जिसकी गर्दन काटने के लिए उसे एक बोर्ड से नीचे गिराया गया था। कामू ने लिखा राजव्यवस्था के हाथों हुई यह नई हत्या मेरे पिता के मन पर भयानक तरीके से हावी रही। राजव्यवस्था ने एक खराबी के जवाब में दूसरी खराबी को जन्म दिया। यह मान लिया गया कि सजा पाने वाले ने समाज से किए गए अपने अपराध की कीमत चुका दी और न्याय हो गया। यह सामाजिक प्रतिशोध है।

मौत की सज़ा को सज़ा कैसे कहा जा सकता है? सजा तो उस व्यक्ति को मिलती है, जो उसे महसूस करे। जिसे मार दिया, वह क्या महसूस करेगा? अलबत्ता भारत जैसे देश में जहाँ मौत की सज़ा मिलने के बाद बीस-तीस साल बाद तक वह लागू नहीं हो पाती, ज़्यादा बड़ी सज़ा है। इस पर कहा जाता है कि यह उस व्यक्ति को नहीं मिलती बल्कि दूसरे लोगों को नसीहत के रूप में रूप में होती है। ताकि वे डरें और अपराध में शामिल न हों। यानी यह डिटरेंट है। पर डिटरेंट तो सारी सज़ाएं हैं। चाहे वह दो महीने की कैद हो या उम्र कैद। सजा देने के पीछे आमतौर पर तीन बातें होती हैं। पहली व्यक्ति को सजा देना, अपने किए को याद करना। उसे बताना कि गलत काम का नतीज़ा खराब होता है। दूसरा कारण यह कि दूसरे लोग भी देखें और डरें। अपराध करने से बचें। और तीसरा यह कि अपराधी व्यक्ति मनोरोगी होता है। उसे सुधारा जाए, ताकि दुनिया बेहतर बने।

सारी बातें समय और समाज तय करता है। एक ज़माना था यूरोप सहित दुनिया के तमाम देशों में छोटे अपराधों की सज़ा भी मौत होती थी। यह सज़ा खुले आम दी जाती थी। लोग इस सज़ा पर जश्न मनाते थे। एक प्रकार का पागलपन था। ऐसा पागलपन हमने हाल में अपने देश में भी देखा। आज यूरोप के लोगों को फाँसी स्वीकार नहीं है। यूरोपियन यूनियन मानवाधिकार घोषणापत्र की धारा-2 के तहत यूरोपियन संघ के सदस्य राष्ट्रों में मृत्युदण्ड का निषेध है। सन 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव पास करके सदस्य देशों से आग्रह किया कि वे अपने यहाँ मृत्युदंड पूरी तरह खत्म कर दें। दुनिया के 140 देशों ने मृत्यु दंड खत्म कर दिया है। अब केवल 58 देशों में मृत्यु दंड दिया जाता है। भारत में भी सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि फाँसी रेयर ऑफ द रेयरेस्ट केस में दी जानी चाहिए (बच्चन सिंह 1980)। पर हमारा समाज इस मामले में दुविधा में है। हमारे यहाँ सिद्धांततः इस बात पर सहमति है कि यह सज़ा ठीक नहीं है। पर देशद्रोह और विदेशी हमलावर के मामले में हमारे मन बदल जाते हैं। पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को दी गई फाँसी पिछले पिछले सत्रह साल में दी गई पहली फाँसी थी। उसके बाद अफज़ल गुरु को फाँसी दी गई। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्याधीश जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर मानते हैं कि मौत की सजा, सजा है ही नहीं। वह राजव्यवस्था द्वारा की गई हत्या है। उनके विचार से मृत्युदंड किसी भी स्थिति में होना ही नहीं चाहिए। वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने शुरू में ही कहा था कि कसाब को फाँसी देने से उसे क्या सजा मिलेगी? उसे जीवित रखने से ही वह अपनी गलती को समझेगा।

पिछले साल राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपना पद भार छोड़ने के पहले 35 व्यक्तियों के मृत्युदंड को कम किया था। किसी राष्ट्रपति के कार्यकाल में इतनी बड़ी माफी नहीं हुई थी। पर यह राष्ट्रपति का निजी फैसला नहीं था। गृहमंत्री ने उन्हें सलाह दी थी। लगता था कि हम धीरे-धीरे मृत्युदंड को खत्म करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। एक सभ्य समाज में मौत की सजा कलंक है। अजमल कसाब और अफज़ल गुरु की फाँसी के बाद यह विषय फिर से चर्चा का विषय बना है। हमारे यहाँ पिछले सत्रह सालों में दो लोगों को फाँसी की सजा हुई है वहीं चीन में हजार से ज्यादा हर साल होती हैं। मध्य युग में हजारों लोगों को एक साथ मारे जाने का चलन था। आज नहीं है। यह दो दौर और दो समाजों का फर्क भी है।
मृत्युदंड पर अब विभिन्न देशों में विवाद है। इसके विपक्षियों का कहना है कि यह बहुत हद तक संभव है कि कानून को तोड़-मरोड़ कर और झूठी गवाही के आधार पर निर्दोष व्यक्ति को फांसी दे दी जाए। तथ्य बताते हैं कि मृत्युदंड के शिकार लोगों में से अधिकतर गरीब होते हैं या ऐसे लोग जो अपनी पैरवी के लिए वकील नहीं रख सकते हैं। इसके विपरीत, मृत्युदंड के पक्षधर अनेक आधारों पर विभिन्न सजाओं को श्रेणीबद्ध करते हुए यह कहते हैं कि किसी अपराधी को मृत्युदंड दिया जाना उसे सदा के लिए कारागार में रखने से कहीं सस्ता सौदा होता है। इसके अलावा इसे एक सबक के तौर पर भी मानते हैं, ताकि अन्य लोग सीख लें। पर क्या यह भय अपराधों पर रोक लगाता है? हम यह समझते हैं कि फाँसी की सजा डिटरेंट हैं। दूसरे अपराधियों को अपराध करने से रोकती है तो यह भी गलत फहमी है। जिन देशों में फाँसी की सजा नहीं है, वहाँ हमारे देश के मुकाबले कम अपराध होते हैं।

कसाब की फाँसी के साथ जुड़ा मामला बिलकुल अलग है। कसाब को फाँसी तो उसके देश के उन लोगों ने दी जिन्होंने उसे भेजा था। वह मरने के लिए ही आया था। यह कौन सी मानसिकता थी? वह कौन सा विचार है जो किसी व्यक्ति को तोप के गोले की तरह इस्तेमाल करता है? लश्करे तैयबा के हफीज़ सईद खुद क्यों न आए? क्यों गरीब, बेरोज़गार नौजवानों को इस काम पर लगाया गया? पाकिस्तान सरकार ने कसाब की लाश लेने से इनकार कर दिया। वहीं लश्करे तैयबा और तहरीके तालिबान उसे हीरो मानते हैं। संयोग है कि हमने कसाब को फाँसी तब दी है जब दो दिन पहले ही संयुक्त महासभा की मानवाधिकार समिति ने दुनिया भर में मृत्यु दंड समाप्त करने का प्रस्ताव पास किया था।

हाल में नॉर्वे में 77 लोगों की हत्या की बात स्वीकार कर चुके आंद्रे बेरिंग ब्रेविक को अदालत ने 21 साल की जेल की सजा सुनाई है। पिछले साल जुलाई में 33 वर्षीय ब्रेविक ने गोलियाँ चलाकर 77 लोगों को मार डाला था। इस घटना में 240 लोग घायल हुए थे। पर उसे मौत की सजा नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह समाज मौत की सजा नहीं देता। अक्सर हम कसाब की बिरयानी का विवरण सुनते देता। ब्रेविक का जेल विवरण सुनकर हमें लगेगा कि उसे फाइवस्टार जीवन प्राप्त हुआ है। उसके पास छोटा सा जिम और बगैर इंटरनेट वाला कम्प्यूटर है। उम्मीद है वह अपने विचारों की किताब लिखेगा। एक हत्यारे को मिली सुविधाओं को सुनकर हम विचलित हो सकते हैं, पर यह देश-काल और समय-संस्कृति का मसला है। अफजल गुरू और अजमल कसाब को लेकर फेसबुक में तानाकशी की ढेरों प्रविष्टियाँ मिलती हैं। पर सजा-ए-मौत को लेकर हमारे यहाँ विमर्श नहीं है।

सच यह है कि सजा पाने वाले ज्यादातर गरीब लोग होते हैं, जो अपने मुकदमें ठीक से नहीं लड़ पाते।  दूसरा सच यह है कि अदालतों के प्रक्रियागत दोषों के कारण कई बार न्याय हो ही नहीं पाता। हमारे सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि फाँसी की सजा देने में गलतियाँ हुई हैं। मौत की सजा का सवाल पूरी तरह सामाजिक बदलाव का मसला है। हम एक ओर मानते हैं कि जेल व्यक्ति को सुधारने के चिकित्सालय हैं। वहीं हम बदला लेने की पाशविक प्रवृत्ति को छोड़ नहीं पाते। समाज उतना उदार, मानवीय और विकसित नहीं है, जितना वह प्रकट करता है। क्या समाज या राज्य अपराध नहीं करता? साम्प्रदायिक, जातीय और संकीर्ण आधारों पर हुए फसादों में गई हजारों जानों का हिसाब किसने दिया और किसने माँगा? पर क्या हम अपने समाज को मौत की सजा दे सकते हैं? अपेक्षा की जाती है कि वह खुद को बदलेगा। पश्चाताप करेगा। उदार बनेगा। व्यक्ति पर भी यही धारणा क्यों नहीं लागू होतीसमकालीन सरोकार में प्रकाशित

2 comments:

  1. Anonymous7:14 PM

    Bas musalmano ko deni chahiye

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  2. हमारे देश में हर केस में फांसी की सजा नहीं सुनाई जाती. ये 'दुर्लभतम से दुर्लभ' मामलों के लिए है. फांसी की सजा अगर अमानवीय है तो दुर्दांत अपराधी और उनके अपराध भी अमानवीय ही होते हैं. किसी मासूम के साथ बलात्कार फिर उसकी हत्या, देश के विरुद्ध युद्ध छेड़ना, एक साथ कई लोगों को बर्बर तरीके से मार डालना...आदि..आदि..ये सब अपराध की सजा अगर 8-14 वर्ष की कैद हो तो निश्चित ही अपराध बढ़ेंगे. शायद इसलिए हमारे देश में फांसी अभी भी प्रासंगिक है.. थोड़ी और ज़रुरत एक अतिरिक पैनल की हो सकती है जो फांसी की सजा वाले मामलों की समीक्षा करे..

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