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Sunday, July 31, 2022

‘रेवड़ीवाद’ और ‘कल्याणवाद’ का फर्क


देश की राजनीति में अचानक 'रेवड़ी-संस्कृति' के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी। यह मामला केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे राजनीति में 'मुफ्त की रेवड़ियाँ' बाँटने की संस्कृति जन्म ले रही है। बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे राज-व्यवस्था के चरमराने का खतरा पैदा हो गया है।

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों से इतर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में इस खतरे के प्रति आगाह किया गया है। आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रहीं हैं, जिससे वे कर्ज के जाल में फँसती जा रही हैं। 'स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिसशीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धँसते जा रहे हैं। पर मीडिया मे चर्चा सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर नहीं हुई है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद शुरू हुई है। उन्होंने गत 16 जुलाई को बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे  का उद्घाटन करते हुए 'रेवड़ी कल्चर' का जिक्र किया और जनता को सलाह दी कि इस मुफ्तखोरी का राजनीति से बचें। हालांकि प्रधानमंत्री ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस टिप्पणी को अपने ऊपर ले लिया और उसी शाम जवाब दिया कि उनका ‘दिल्ली-मॉडल’ वोट जुटाने के लिए मुफ्त पेशकश करने से दूर कमजोर आय वाले लोगों को निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी सुनिश्चित करके ‘देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद’ को मजबूत बनाने की कोशिश कर रहा है।

कौन सा मॉडल?

प्रधानमंत्री की टिप्पणी और दिल्ली के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया ने देश का ध्यान लोकलुभावनवाद और सामाजिक-कल्याणवाद की ओर खींचा है। इसमें दो राय नहीं कि सामाजिक-कल्याणवाद के मॉडल ने बीजेपी को भी चुनावी सफलताएं दिलाने में मदद की है। अलबत्ता इसमें एक बुनियादी फर्क है। बीजेपी ने मुफ्त बिजली-पानी, साइकिल, लैपटॉप, मिक्सर ग्राइंडर, मंगलसूत्र, टीवी, गाय, बकरी की पेशकश करके मध्यवर्ग को आकर्षित करने का कार्यक्रम नहीं चलाया है। बल्कि अपेक्षाकृत गरीब तबकों पर ध्यान केंद्रित किया है। उसका लक्ष्य सार्वजनिक सफाई, शौचालय, ग्रामीण सड़कें, पक्के मकान, नल से जल, घरेलू गैस, घरेलू बिजली, बैंकिंग, आवास, स्वास्थ्य बीमा और मातृत्व सुरक्षा रहा है। दूसरे इनमें से कोई भी चीज पूरी तरह मुफ्त नहीं है, जैसे कि घरेलू-गैस। यूपीए का मनरेगा, खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम और भूमि-सुधार कानून भी कल्याणकारी था। मोदी और केजरीवाल के बयानों के पीछे की राजनीति को भी देखना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपनी बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में भी कही होगी, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है।

मुफ्त अनाज

आप पूछ सकते हैं कि पिछले दो वर्षों में देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज का जो कार्यक्रम चलाया गया है, क्या वह मुफ्त की रेवड़ी नहीं है? बेशक वह मुफ्त है, पर उसे भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहना उचित नहीं होगा, बल्कि मुसीबत में फँसे लोगों के लिए यह योजना सबसे बड़ी मददगार साबित हुई है। यह राज्य की जिम्मेदारी है। बेशक इसकी भारी कीमत देश ने दी है। यों भी सरकारी कार्यक्रमों पर भारी सब्सिडी दी जाती है। मुफ्त अनाज के अलावा खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम के तहत गरीबों को सस्ता अनाज भी दिया जाता है। देश में इस बात पर आम सहमति भी है। बल्कि माँग यह की जा रही है कि शहरी गरीबों के लिए भी कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जाएं। ऐसे कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र के सन 2030 तक संधारणीय लक्ष्यों की प्राप्ति के अनुरूप भी हैं। दुनिया से गरीबी मिटाने के जो सुझाव अर्थशास्त्रियों ने दिए हैं, उनसे ये योजनाएं मेल खाती हैं। इसे सार्वजनिक-संसाधनों का पुनर्वितरण माना जाता है। यह भी सच है कि सब्सिडी बेशक रेवड़ी नहीं हैं लेकिन चुनाव नतीजों पर उनका असर तो होता ही है। इससे सरकार की प्रशासनिक सूझ-बूझ का पता भी लगता है।

फिर भी विसंगतियाँ

पिछले 75 वर्षों में हमारी व्यवस्था ग्रामीण-क्षेत्रों और गरीबों के विकास पर विमर्श करती रही है। सामाजिक-कल्याण की आड़ में सार्वजनिक धन का दुरुपयोग भी हुआ है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। निजी उद्योगों का विकास नहीं हो पाने के कारण अर्थव्यवस्था में अकुशलता का तत्व भी शामिल हो गया। कर्ज माफी का इस्तेमाल राजनीतिक-उपकरण की तरह हुआ, जिससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचा। दिल्ली में केजरीवाल के मॉडल से उन्हें राजनीतिक सफलता मिली है। यह मॉडल दिल्ली को उपलब्ध वित्तीय सुरक्षा पर आधारित है। दिल्ली का कर संग्रह अच्छा है और वह देश के सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों में शामिल है। तमिलनाडु में जयललिता ने भी मुफ्त-सुविधाओं पर आधारित प्रशासन कायम किया था। उनका राज्य भी आर्थिक-दृष्टि से बेहतर था। केंद्र-शासित राज्य होने के नाते दिल्ली को एक सुविधा यह है कि उसे पुलिस बल का खर्च नहीं उठाना पड़ता। बिजली और जलापूर्ति से जुड़ी क्रॉस सब्सिडी भी इसमें सहायक है। अब यही पार्टी पंजाब में इस मॉडल को लागू करने का प्रयास करेगी, तो उसे दिक्कतें होंगी।  

हमें क्या चाहिए?

इस रेवड़ी-चर्चा पर जिस संजीदगी से विचार किया जाना चाहिए, ऐसा हुआ नहीं। यह बात चुनाव-चर्चा से आगे नहीं जाती। इन दिनों श्रीलंका की दुर्दशा के संदर्भ में जरूर इसका जिक्र हुआ है। यह सवाल केवल गुजरात या दिल्ली तक सीमित नहीं है। एक अरसे से चुनाव के दौरान तोहफों और लोक-लुभावन वायदों की बौछार होती है। चुनाव जीतने के क्षुद्र हथकंडों के बरक्स विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। वायदों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। गरीबों और ज़रूरतमंदों की बात समझ में आती है, पर खाते-पीते घरों को मुफ्त का माल क्यों चाहिए? गरीबों को कम खर्च पर पानी बिजली मिले, गरीब महिलाओं को मुफ्त परिवहन मिले, तो उसके सामाजिक लाभ भी नजर आएंगे। मुफ्त में मिलेगा, तो मना कोई नहीं करेगा, पर इससे मुफ्तखोरी की जो संस्कृति पैदा होगी, उसके दुष्परिणाम भी होंगे। ऐसा भी नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोशनी, सड़कों, यातायात, परिवहन और अन्य सामुदायिक सेवाओं के उच्चतम शिखरों पर हम बैठे हों। दिल्ली के चौराहों पर आज भी भिखारी नजर आते हैं।

राजनीतिक पाखंड

द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वायदा किया था कि एक रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया। तमिलनाडु में चुनाव जीतने के लिए मंगलसूत्र, टीवी, प्रेशर कुकर, वॉशिंग मशीन और साड़ी बांटी गईं। 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं।

सपनों के सौदागर

राजनीति हमें सपने दिखाती है, और उन सपनों से खुद खेलती है। इस साल के शुरू में जब पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे थे, सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश दे, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए। कानूनन ऐसा करना संभव नहीं है, पर कोई सीमा या लगाम तो लगनी ही चाहिए। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है। इस बात के दूसरे सामाजिक पहलू भी हैं। मनरेगा ने लोगों को रोजगार दिया है, जिससे उपभोक्ता-बाजार का विकास हुआ है। पर उसके कारण भ्रष्टाचार को जगह मिली है, साथ ही संसाधनों का दुरुपयोग भी हुआ है। पंजाब में 1971 में सिर्फ 1,92,000 ट्यूबवेल थे। बिजली बिल में माफी और सब्सिडी मिलने से इसकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई। आज यहां ट्यूबवेल की संख्या 14 लाख से ऊपर है। इससे जमीन के नीचे पानी का स्तर काफी गिर गया है। बहरहाल भविष्य में सरकारों की परीक्षा इस बात से होगी कि वे लोकलुभावनवाद और सामाजिक कल्याणवाद के बीच किस प्रकार का संतुलन बनाती हैं।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

 

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