प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में एक सभा में कहा कि देश में लोक-लुभावन राजनीति के नाम पर मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटने की संस्कृति पर रोक लगनी चाहिए। वे यह बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में कह रहे थे, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री के इशारे को आम आदमी पार्टी ने अपने ऊपर हमला माना और उसके सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि मुफ्त बिजली, पानी, स्वास्थ्य-सेवाएं, विश्वस्तरीय-शिक्षा और महिलाओं का मुफ्त परिवहन राज्य की जिम्मेदारी है। उनके कार्यकर्ताओं ने गुजरात में जगह-जगह मोदी के ‘रेवड़ी संस्कृति’ बयान के विरोध में प्रदर्शन भी किया। इसके जवाब बीजेपी के गुजरात-प्रमुख सीआर पाटिल ने कहा कि ‘रेवड़ी संस्कृति’ से राज्य और भारत के सामने वैसी ही परिस्थिति पैदा हो सकती है जैसी श्रीलंका में बन गई है।
इस रेवड़ी-चर्चा ने कुछ समय के लिए जोर भी
पकड़ा, पर इस विषय पर गंभीरता से विमर्श कभी नहीं हुआ। चुनाव-चर्चा से आगे यह बात
कभी नहीं गई। मोदी और केजरीवाल में से कौन सही है? श्रीलंका
में हालात क्या ‘रेवड़ी संस्कृति’ के कारण बिगड़े? आम
आदमी पार्टी ने दिल्ली में मुफ्त पानी-बिजली के सहारे बड़ी सफलता प्राप्त की। इसे उन्होंने
पंजाब में भी दोहराया। और अब हिमाचल और गुजरात भी दोहराना चाहते हैं।
इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी।
यह सवाल केवल गुजरात या दिल्ली तक सीमित नहीं
है। एक अरसे से चुनाव के दौरान तोहफों और लोक-लुभावन वायदों की बौछार होती है। चुनाव
जीतने के क्षुद्र हथकंडों के बरक्स विचारधारा, दर्शन
और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। हम जिसे ‘रेवड़ी-संस्कृति’ कहते हैं, उसे पलट कर ‘सामाजिक
कल्याणवाद’ भी कहा जा सकता है। सरकार पर कई तरह की जिम्मेदारियाँ मानी जाती हैं।
भोजन, बिजली, खाद, शिक्षा और यहाँ तक कि रेलगाड़ी तक का सफर सब्सिडी पर आश्रित है।
दो साल पहले महामारी की शुरुआत के बाद मोदी
सरकार ने देश के 80 करोड़ गरीबों के लिए मुफ्त अनाज की जो योजना शुरू की थी, उसे
क्या कहेंगे, रेवड़ी या सामाजिक-कल्याण कार्यक्रम? गरीब को गैस का चूल्हा, नल से जल या घरेलू बिजली के कार्यक्रम जरूरी
हैं। मुफ्त की रेवड़ी और सामाजिक-कल्याण के फर्क को स्पष्ट किया जाना चाहिए। 2019
के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने देश के 20 फीसदी निर्धनतम परिवारों के लिए
72,000 रुपये की सालाना आय की गारंटी ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) का वायदा किया था।
इसके अलावा आवास का अधिकार, मुफ्त इलाज, मुफ्त
जाँच और मुफ्त दवाई पाने का अधिकार वगैरह की बातें थीं। साथ ही लाखों सरकारी
नौकरियों को देने का वायदा भी था। पर सीटें मिलीं 55। ऐसा क्यों हुआ? जनता को उनपर यकीन नहीं था।
वायदों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं
देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वायदा किया था कि एक रुपये
में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा।
नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया।
वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका,
पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था।
सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया।
सन 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन
टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु
राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को
भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस
के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं।
लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं,
यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम
कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते
हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को
आलसी बना दिया है।
मान लिया ‘रेवड़ी-संस्कृति’, तब मोदी
सरकार का 80 करोड़ लोगों मुफ्त अनाज देना क्या है? अलग-अलग व्यक्तियों की नजर में इसके अलग-अलग अर्थ हैं। जब
सरकार अपने नागरिकों को कोई सुविधा देती है, तब उसकी कीमत भी होती है। इसके लिए
किसी दूसरे मद से पैसे की कटौती करके या कर्ज लेकर ऐसी सुविधाएं मुहैया कराई जाती
हैं। मनरेगा ने लोगों को रोजगार दिया है, जिससे उपभोक्ता-बाजार का विकास हुआ है।
पर उसके कारण भ्रष्टाचार को जगह मिली है, साथ ही संसाधनों का दुरुपयोग भी हुआ है।
बेशक केजरीवाल सरकार
ने दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी देने के लिए जनता पर कोई नया टैक्स नहीं लगाया, पर
किसी न किसी मद से पैदा कम तो किया ही गया है। दिल्ली के पास प्रचुर संसाधन हैं। जीडीपी
और प्रति व्यक्ति आय के मामले में दिल्ली काफी आगे है। ऐसे में प्राथमिकताओं को तो
देखना ही होगा। सरकार को बिजली और पानी मुफ्त में नहीं मिले हैं। वह उन्हें
नागरिकों को मुफ्त में क्यों देना चाहती है?
गरीबों और ज़रूरतमंदों की बात समझ में आती है,
पर खाते-पीते घरों को मुफ्त का माल क्यों चाहिए? गरीबों
को कम खर्च पर पानी बिजली मिले, गरीब महिलाओं को मुफ्त परिवहन मिले, तो उसके
सामाजिक लाभ भी नजर आएंगे। मुफ्त में मिलेगा, तो मना कोई नहीं करेगा, पर इससे
मुफ्तखोरी की जो संस्कृति पैदा होगी, उसके दुष्परिणाम भी होंगे। ऐसा भी नहीं है कि
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोशनी, सड़कों, यातायात, परिवहन और अन्य सामुदायिक सेवाओं के
उच्चतम शिखरों पर हम बैठे हों। दिल्ली के चौराहों पर आज भी भिखारी नजर आते हैं।
राजनीति हमें सपने दिखाती है, और उन सपनों से खुद
खेलती है। साल के शुरू में जब पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे थे, सुप्रीमकोर्ट
में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण
रद्द करने का निर्देश दे, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से,
विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में
कहा गया कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी
चाहिए। कानूनन ऐसा करना संभव नहीं है, पर कोई सीमा या लगाम तो लगनी ही चाहिए।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (31-07-2022) को "सावन की तीज का त्यौहार" (चर्चा अंक--4507) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'