यूक्रेन की लड़ाई ने दुनिया के सामने कुछ ऐसी पेचीदगियों को पैदा किया है, जिन्हें सुलझाना आसान नहीं होगा। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध की समाप्ति हुई थी। उसके साथ ही वैश्वीकरण की शुरुआत भी हुई थी। दूसरे शब्दों में वैश्विक-अर्थव्यवस्था का एकीकरण। विश्व-व्यापार संगठन बना और वैश्विक-पूँजी के आवागमन के रास्ते खुले। राष्ट्रवाद की सीमित-संकल्पना के स्थान पर विश्व-बंधुत्व के दरवाजे खुले थे। यूक्रेन की लड़ाई ने इन दोनों परिघटनाओं को चुनौती दी है। इस लड़ाई के पीछे दो पक्षों के सामरिक हित ही नहीं हैं, बल्कि वैश्विक-राजनीति के कुछ अनसुलझे प्रश्न भी हैं। इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र की भूमिका। क्या यह संस्था उपयोगी रह गई है?
चक्रव्यूह में रूस
रूस ने लड़ाई शुरू कर दी है, पर क्या वह इस
लड़ाई को खत्म कर पाएगा? खत्म होगी, तो किस मोड़ पर होगी? फिलहाल
वह किसी निर्णायक मोड़ पर पहुँचती नजर नहीं आती है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि रूस
ने किस इरादे से कार्रवाई शुरू की है। क्या वह पूरे यूक्रेन पर कब्जा चाहता है और राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर अपने किसी समर्थक को बैठाना चाहता है? क्या यूक्रेनी जनता ऐसा होने देगी? क्या
अमेरिका और नेटो अपने कदम वापस खींचकर यूक्रेन को तटस्थ देश बनाने पर राजी हो
जाएंगे? ऐसा संभव है, तो वे अभी तक माने क्यों नहीं हैं?
रूस भी चक्रव्यूह में फँसता नजर आ रहा है। अमेरिका
ने हाइब्रिड वॉर और शहरी छापामारी का काफी इंतजाम यूक्रेन में कर दिया है। दूसरी
तरफ संयुक्त राष्ट्र और दूसरे मंचों पर पश्चिमी देशों ने रूस पर दबाव बनाना शुरू
कर दिया है। वैश्विक-व्यवस्थाएं अभी पश्चिमी प्रभाव में हैं। हाँ रूस यदि अपने इस
अभियान में आंशिक रूप से भी सफल हुआ, तो मान लीजिए कि अमेरिका का सूर्यास्त शुरू
हो चुका है। फिलहाल ऐसा संभव लगता नहीं, पर बदलाव के संकेतों को आप पढ़ सकते हैं।
एटमी खतरा
यूक्रेन के ज़ापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र
में शुक्रवार तड़के रूसी हमले के कारण आग लग गई। अब यह बंद है और रूसी कब्जे में
है। इस घटना के खतरनाक निहितार्थ हैं। हालांकि आग बुझा ली गई है, पर इससे संभावित खतरों पर रोशनी पड़ती है। यूक्रेन में 15 नाभिकीय
संयंत्र हैं। यह दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो
आधी से ज्यादा बिजली के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भर हैं। जरा सी चूक से पूरे
यूरोप पर रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है।
यूक्रेन जब सोवियत संघ का हिस्सा था, तब उसके
पास नाभिकीय अस्त्र भी थे। सोवियत संघ के ज्यादातर नाभिकीय अस्त्र यूक्रेन में थे।
फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट के अनुसार उस समय यूक्रेन के पास 3000 टैक्टिकल यानी
छोटे परमाणु हथियार मौजूद थे। इनके अलावा उसके पास 2000 स्ट्रैटेजिक यानी बड़े
एटमी हथियार थे, जिनसे शहर ही नहीं, छोटे-मोटे देशों का सफाया हो सकता है।
दिसंबर 1994 में बुडापेस्ट, हंगरी में तीन
समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे, जिनके तहत यूक्रेन, बेलारूस और कजाकिस्तान ने अपने
नाभिकीय हथियारों को इस भरोसे पर त्यागा था कि जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा की
जाएगी। यह आश्वासन, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने दिया था। फ्रांस और चीन ने एक अलग
दस्तावेज के मार्फत इसका समर्थन किया था।
आज यदि यूक्रेन के पास नाभिकीय-अस्त्र होते तो क्या रूस उसपर इतना बड़ा हमला कर सकता था? यूक्रेन पर हुए हमले ने नाभिकीय-युद्ध को रोकने की वैश्विक-नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं। जो देश नाभिकीय-अस्त्र हासिल करने की परिधि पर हैं या हासिल कर चुके हैं और उसे घोषित किया नहीं है, उनके पास अब यूक्रेन का उदाहरण है। दुनिया ईरान को समझा रही थी, पर क्या उसे समझाना आसान होगा?
आर्थिक-प्रतिबंध
नब्बे के दशक के बाद दुनिया आर्थिक रूप से इस
कदर जुड़ गई है कि आर्थिक-प्रतिबंधों के पेच अभी दिखाई पड़ नहीं रहे हैं। रूस को
स्विफ्ट प्रणाली से बाहर करने के कारण पैदा हुआ है। यूरोप के देश रूस से गैस
खरीदते हैं, जिसका भुगतान इसके माध्यम से होता है। बेल्जियम से संचालित होने वाली सोसायटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक
फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशंस (स्विफ्ट) बैंकों के बीच लेन-देन को आसान बनाती है।
वस्तुतः यह प्रणाली पश्चिमी देशों द्वारा नियंत्रित है। इस लड़ाई ने इस व्यवस्था
को धक्का पहुँचाया है। फिलहाल इसका प्रभाव हम देख नहीं पा रहे हैं, पर जल्द ही वह
नजर आने लगेगा।
यूरोप की लीज़िग कंपनियों ने रूस की विमान
सेवाओं से कहा है कि वे 28 मार्च तक पट्टे पर दिए गए 520 विमानों को वापस कर दें।
दुनियाभर की विमान सेवाओं के पास आधे से ज्यादा विमान पट्टे पर हैं। रूस का कहना
है कि आपने विमान दिए। आप ही उन्हें वापस ले जाइए। हम कहाँ से 520 पायलट लाएं, जो इन्हें उड़ाकर यूरोप में पहुँचाएं। दुनिया के 33
देशों ने रूसी विमान सेवाओं के लिए एयरस्पेस बंद कर दिया है। रूसी विमान बाहर
जाएंगे भी तो कैसे? हाँ अब इन्हें उन देशों में यूरोपियन कंपनियों
को सौंपा जा सकता है, जहाँ रूसी विमानों के प्रवेश की अनुमति है।
पेच दर पेच
कहा जाए कि आप रूस में आकर विमान ले जाएं, तब
भी यह संभव नहीं है। जैसे ही रूस
इन विमानों को यूरोपियन कंपनियों को सौंपेगा, रूस का उनपर स्वामित्व समाप्त हो जाएगा।
उसके बाद वे विमान उड़ान नहीं भर सकेंगे, क्योंकि रूसी आकाश यूरोपियन विमानों को
लिए बंद है। 36 देशों ने अपने एयरस्पेस को रूसी विमान
सेवाओं के लिए बंद कर दिया है। बदले में रूस ने इन 36 देशों की विमान सेवाओं का
प्रवेश रोक दिया है।
रूस को इन विमानों का
शुल्क भी देना है, पर वह दे नहीं सकता, क्योंकि स्विफ्ट से वह बाहर है। दूसरी तरफ यूरोपियन लीज़िंग कंपनियों के दिवालिया होने का खतरा पैदा
हो गया है। यह केवल एक उदाहरण है। शीतयुद्ध के दौरान दुनिया साफ-साफ खेमों में
बँटी थी, पर अब ताने-बाने की तरह वह जुड़ी हुई है। अब वह ऐसे प्रतिबंधों के लिए
तैयार नहीं है।
महंगाई का ठीकरा
रूस गारंटी चाहता है कि यूक्रेन, नाटो के पाले में नहीं जाएगा। वस्तुतः उसकी यह लड़ाई यूक्रेन के साथ
नहीं, सीधे अमेरिका के साथ है। पर उसके सामने भी इस लड़ाई के फौजी और डिप्लोमैटिक दोनों तरह
के जोखिम हैं। इस हमले से केवल विश्व-शांति को ठेस ही नहीं लगी है, बल्कि दूसरे सवाल भी खड़े हुए हैं, जिनके
दूरगामी असर होंगे। पेट्रोलियम की कीमतें 120 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई हैं।
अंदेशा है कि भारत में पेट्रोल की कीमतें 12 से 15 रुपये की बीच बढ़ेंगी। दूसरी
खनिज सामग्री यानी कोयले और धातु अयस्कों की कीमतें बढ़ेंगी। इससे उनसे जुड़े
उत्पादों और उपभोक्ता सामग्री की कीमतें भी बढ़ेंगी। रूस पर आर्थिक-बंदिशों का असर
भी हमपर पड़ेगा। यह सब तब हुआ है, जब दुनिया महामारी से घिरी हुई है। दुनिया के इन
दुख-दर्दों का ठीकरा रूस के माथे पर ही टूटेगा। यों भी छोटे देश पर बड़ी ताकत के
हमले को गलत ही कहा जाएगा।
क्या रूस सफल होगा?
व्लादिमीर पुतिन ने 24 फरवरी को अपने टीवी
संबोधन में जो बातें कहीं, उनपर ध्यान दें, तो
पता लगेगा कि उनके मन में कितना गुस्सा भरा है। उन्होंने कहा, हमारी योजना यूक्रेन पर कब्जा करने की नहीं है…पर सोवियत संघ के
विघटन ने हमें बताया कि ताकत और इच्छा-शक्ति को लकवा मार जाने के दुष्परिणाम क्या
होते हैं। उनकी बातों के पीछे यह दर्द भी छिपा था कि हमारी वैध जमीन हमसे छिन गई।
चीन के मन में भी अपने पुराने साम्राज्य के सपने हैं। पश्चिमी देश तो
औपनिवेशिक-दौर के ध्वजवाहक ही हैं। लगता है कि यह धौंसपट्टी, विस्तारवाद और पुराने
रसूखों का टकराव है। पुतिन ने इस बात का जिक्र नहीं किया, पर
पाठकों को याद दिलाना जरूरी है कि 7 मई 1999 को अमेरिकी लड़ाकू विमानों ने
बेलग्रेड में चीनी दूतावास के ऊपर बमबारी की थी, जिसमें
तीन पत्रकार मारे गए थे, और 20 अन्य लोग घायल हुए थे। रूस और चीन दोनों ने अपमान सहन किया है।
अब दोनों हिसाब बराबर करना चाहते हैं। क्या वे कर पाएंगे? इसका
जवाब समय देगा।
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