चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले
जा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके
बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है,
जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों
में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को
भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा
सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और किसी ने उससे
बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की थी। अब सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके
शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ। इन परिणामों में भाजपा-विरोधी
राजनीति या महागठबंधन के सूत्रधारों के विचार के लिए कुछ सूत्र भी हैं।
उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण
हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली
है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य
होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता
उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो
कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भाजपा-विरोधी राजनीति
ने इसबार पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है।
भारतीय और विदेशी-मीडिया और
विदेशी-विश्वविद्यालयों से जुड़े अध्येताओं का एक बड़ा तबका महीनों पहले से घोषणा
कर रहा था, ‘अबकी बार अखिलेश सरकार।’ अब
लगता है कि यह विश्लेषण नहीं, मनोकामना थी। बेशक जमीन पर तमाम परिस्थितियाँ ऐसी
थीं, जिनसे एंटी-इनकम्बैंसी सिद्ध हो सकती है, पर भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ और
भी बता रहा है। आप इसे साम्प्रदायिकता कहें, फासिज्म, हिन्दू-राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक-भावनाएं,
पिछले 75 वर्ष की राजनीतिक-दिशा पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। केवल
हिन्दू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को ही नहीं मुस्लिम-दृष्टिकोण और कथित ‘प्रगतिशील-वामपंथी’ दृष्टिकोण पर
नजर डालने की जरूरत है।
इस चुनाव के ठीक पहले
कर्नाटक के हिजाब-विवाद के पीछे भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सम्भव है, पर जिस
तरह से देश के ‘प्रगतिशील-वर्ग’ ने हिजाब का
समर्थन किया, उससे उसके अंतर्विरोध सामने आए। प्रगतिशीलता यदि
हिन्दू और मुस्लिम समाज के कोर में नहीं होगी, तब उसका कोई मतलब नहीं है।
इन परिणामों के राजनीतिक संदेशों को पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा।
विद्वानों का नजरिया
उत्तर प्रदेश का चुनाव भारतीय जनता पार्टी के
लिए ही नहीं विरोधी दलों की राजनीति के लिए प्रतिष्ठा का कितना बड़ा प्रश्न बना
हुआ है, यह समझने के लिए आपको न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और गार्डियन जैसे
विदेशी अखबारों और अमेरिकी विश्वविद्यालयों से जुड़े प्राध्यापकों की टिप्पणियाँ
पढ़नी होंगी। भारत की आंतरिक राजनीति से विदेशी मीडिया का इतना गहरा जुड़ाव पिछले
कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है। इसकी एक झलक पिछले वर्ष कोरोना की दूसरी लहर
के दौरान देखने को मिली थी, जब भारतीय श्मशान घाटों पर विदेशी एजेंसियों के
फोटोग्राफरों की कतारें लग गई थी। उनकी ऊँची कीमत के साथ-साथ पुलिट्जर जैसे
पुरस्कार मिलने का लोभ भी था।
इन बातों की भारत में प्रतिक्रिया होती है, जो
इन चुनावों में देखने को मिली। सामान्य नागरिक का राजनीतिक-व्यवहार केवल चुनाव में
वोट देने तक सीमित नहीं होता। हम जिसे वॉट्सएप यूनिवर्सिटी कहकर मजाक में उड़ा
देते हैं, वह कितनी गहराई तक असर करता है, इसे समझने की जरूरत है। प्रगतिशीलता और
वैज्ञानिक-दृष्टिकोण किस हद तक हमारे सामाजिक-जीवन में शामिल हुआ है, इसका कोई
पैमाना हमारे पास नहीं है। इस दृष्टिकोण की जरूरत केवल एक समुदाय को ही नहीं, पूरे
समुदाय को है।
किसान-आंदोलन के दौरान कृषि-कानूनों की
उपादेयता पर विचार नहीं करके, इस पूरे मामले को राजनीतिक-दृष्टि से समेट दिया गया।
आप क्या समझते हैं, 26 जनवरी को लालकिले पर जो हुआ, उसका असर वोटर के मन पर नहीं
हुआ होगा? वोट केवल इतनी सी बात पर नहीं पड़ा होगा। उसके
पीछे अनाज और गरीबों की सहायता के कार्यक्रम भी रहे होंगे। 2004 में यूपीए सरकार
ने जब ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को लागू किया था, तब उसके पीछे कोई राजनीतिक
योजना थी। बीजेपी की सरकार ने भी उस विचार का लाभ उठाया।
आंदोलनों का असर
बहरहाल महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज
पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन,
लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ
सरकार को फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। सपा-गठबंधन के पुष्ट
होने की वजह से बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में 2017 की तुलना में करीब 50 की
कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है।
केवल चुनावी गणित के विचार से देखें, तो आप
पाएंगे कि भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों के पास लगभग 45 प्रतिशत वोट है,
जो 2019 के लोकसभा चुनाव में 51 प्रतिशत तक चला गया था। इसके विरोध में इसबार
समाजवादी पार्टी करीब 32 प्रतिशत वोट हासिल कर पाई, जो उसके राजनीतिक जीवन का सबसे
बड़ा वोट है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी। 2017 में भाजपा को जो वोट
प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। सपा का वोट प्रतिशत
जो 2017 में 21.82 प्रतिशत था और अब 32.1 है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव
में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का
वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था।
राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो
2017 में 1.78 प्रतिशत था। समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में भाजपा-विरोधी शक्तियाँ
पूरी शिद्दत से एकताबद्ध थीं। पश्चिमी बंगाल की सफलता का जोश उनके मन में था।
इसका मतलब है कि ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला
जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।
कहना मुश्किल है कि 2024 के चुनाव में भाजपा-विरोधी राजनीति उत्तर प्रदेश में
कितनी ताकतवर होगी, फिलहाल उसकी उच्चतम सीमा प्रकट हो चुकी है। इस राजनीति को केवल
चुनावी रणनीति ही नहीं, अपने नैरेटिव पर भी विचार करना होगा। मुस्लिम वोटों को
केवल एक साथ लाने की कोशिश होगी, तो उसकी प्रतिक्रिया भी होगी। 2014 के बाद से यह
बात कई बार स्पष्ट हुई है कि भारतीय जनता पार्टी केवल सवर्णों की पार्टी नहीं है।
आक्रामक सपा
उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी ताकतें गठबंधनों
के प्रयोग करती रही हैं, जिनमें उन्हें सफलता नहीं मिली है। सन 2015 में बिहार के
महागठबंधन प्रयोग से प्रेरित होकर 2017 के चुनाव में सपा और कांग्रेस ने मिलकर
चुनाव लड़ा। पर यह गठबंधन चला नहीं और भाजपा और उसके सहयोगी दलों को कुल 403 में
से 325 सीटें मिली थीं। अकेले भाजपा की 312 सीटें थीं। उसके दो सहयोगी दलों यानी
अपना दल (सोनेलाल) को 9 सीटों और भारतीय सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 4 सीटों
पर जीत मिली थी। इसबार के चुनाव में भारतीय सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी सपा के
साथ थी।
2017 में सपा और कांग्रेस के गठबंधन को 54
सीटों पर संतोष करना पड़ा था, इसमें सपा को 47 और कांग्रेस को 7 सीटें मिली थीं। इसके
बाद 2019 में सपा-बसपा गठबंधन विफल हुआ था। इसबार केवल सपा को पुष्ट करने की
रणनीति बनाई गई थी। महीनों पहले से पर्सेप्शन बनाया गया कि इसबार अखिलेश की सरकार
बनने वाली है। मोटा अनुमान था कि मुस्लिम वोट एकमुश्त सपा के साथ आएगा। काफी हद तक
ऐसा हुआ भी है। पहली बार सपा को राज्य में 32 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस और
बसपा के वोट में भारी गिरावट आई है। फिर भी सपा गठबंधन सवा सौ सीटों के आसपास ही
रुक गया। यह तब हुआ है, जब अखिलेश यादव बार-बार कह रहे थे कि हम 300 से ज्यादा
सीटें जीतेंगे।
वर्ष के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के
चुनाव और होंगे। एक तरह से 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले राजनीतिक दृष्टि से यह
सबसे महत्वपूर्ण वर्ष है। उत्तर प्रदेश का चुनाव केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि
जनादेश की भूमिका निभाता है। ये परिणाम विरोधी दलों के उस महागठबंधन की जरूरत को
एकबार फिर से रेखांकित कर रहे हैं, जो तमाम कोशिशों के बावजूद बन नहीं पा रहा है।
2015 में बिहार के विधानसभा चुनाव में इसकी
कोशिश हुई, जिसे सफलता मिली, पर वह गठबंधन 2017 में टूट गया। उसके बाद कर्नाटक और
महाराष्ट्र में गैर-भाजपा सरकारें बनीं, जिनमें कर्नाटक की सरकार सफल नहीं हुई, पर
महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना गठबंधन की सरकार चल रही है। पिछले
वर्ष पश्चिम बंगाल चुनाव में सफलता पाने के बाद से ममता बनर्जी के नेतृत्व में
तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की कोशिश की है। यह प्रयास
कितनी दूर तक जाएगा, कहना मुश्किल है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के साथ उसके
अंतर्विरोध बढ़ रहे हैं। पंजाब में सफलता के बाद आम आदमी पार्टी भी इस गठबंधन की
सदस्यता पाने की दावेदार हो गई है। उसकी सफलता कांग्रेस के क्रमशः होते क्षय को
रेखांकित कर रही है।
पाँच विधानसभाओं के चुनाव को तत्काल बाद 31
मार्च को राज्यसभा के लिए छह राज्यों में खाली हो रही 13 सीटों के लिए चुनाव
होंगे। ये सीटें अप्रेल के महीने में खाली होंगी। राज्यसभा में आम आदमी
पार्टी के सदस्यों की संख्या और बढ़ेगी। इससे इस साल जुलाई में होने वाले
राष्ट्रपति चुनाव पर भी असर पड़ेगा। इतना स्पष्ट है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति
पद पर भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी ही जीतेंगे।
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