दो साल की तल्ख़ियों, टकरावों और हिंसक घटनाओं के बाद चीन ने भारत की ओर फिर से ‘दोस्ती का हाथ’ बढ़ाया है। ‘दोस्ती’ मतलब फिर से उच्च स्तर पर द्विपक्षीय संवाद का सिलसिला। इसकी पहली झलक 25 मार्च को चीनी विदेशमंत्री वांग यी की अघोषित दिल्ली-यात्रा में देखने को मिली। दिल्ली में उन्हें वैसी गर्मजोशी नहीं मिली, जिसकी उम्मीद लेकर शायद वे आए थे। भारत ने उनसे साफ कहा कि पहले लद्दाख के गतिरोध को दूर करें। इतना ही नहीं वे चाहते थे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी मुलाकात हो, जिसे शालीनता से ठुकरा दिया गया। इन दोनों कड़वी बातों से चीन ने क्या निष्कर्ष निकाला, पता नहीं, पर भारत का रुख स्पष्ट हो गया है।
दिल्ली आने के पहले वांग यी पाकिस्तान और
अफगानिस्तान भी गए थे। पाकिस्तान में ओआईसी विदेशमंत्रियों के सम्मेलन में
उन्होंने कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी-दृष्टिकोण
की ताईद करके उन्होंने भारत को झटका दिया है। पाकिस्तान
ने इस सम्मेलन का इस्तेमाल कश्मीर के सवाल को उठाने के लिए ही किया था। उसमें चीन
को शामिल करना भी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। अगस्त 2018 में जब भारत ने
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया था, तब से चीन
पाकिस्तानी-दृष्टिकोण का खुलकर समर्थन कर रहा है। चीन ने उस मामले को
सुरक्षा-परिषद में उठाने की कोशिश भी की थी, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली।
कश्मीर का मसला
पाकिस्तान में हुए ओआईसी के सम्मेलन में वांग यी ने कहा, ‘कश्मीर के मुद्दे पर हम कई इस्लामी दोस्तों की आवाज़ सुन रहे हैं, चीन की भी इसे लेकर यही इच्छा है। कश्मीर समेत दूसरे विवादों के समाधान के लिए इस्लामी देशों के प्रयासों का चीन समर्थन जारी रखेगा।’ उनके इस वक्तव्य की भारत ने भर्त्सना की और कहा कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है, जिसे लेकर कोई बात कहने का चीन को अधिकार नहीं है।
कहना मुश्किल है कि उनकी दिल्ली-यात्रा के पीछे
भारतीय विदेश मंत्रालय का बयान है या नहीं, पर सच यह है कि भारत के दो कड़े बयानों
के बाद उनकी यह यात्रा हुई है। उनका नेपाल जाने का कार्यक्रम घोषित था, पर उनकी
भारत-यात्रा इस कार्यक्रम में शामिल नहीं थी। ओआईसी के किसी सम्मेलन में भी चीन की
पहली उपस्थिति महत्वपूर्ण है। यह पाकिस्तानी-पहल पर संभव हुई। इतनी ही महत्वपूर्ण
उनकी अफगानिस्तान-यात्रा है। पर यह भी नजर आ रहा है कि चीन दक्षिण एशिया और पश्चिम
एशिया में अपनी गतिविधि बढ़ा रहा है। भारत की दिलचस्पी इन दोनों क्षेत्रों में है
और चीनी गतिविधियों पर उसकी नजर है।
यूक्रेन का असर
यूक्रेन की लड़ाई का असर केवल यूरोप पर ही नहीं
होगा। सारी दुनिया पर होगा। भारत की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। इसमें
चीन की दिलचस्पी रूस से कम नहीं है। खासतौर से अमेरिका ने रूस पर जो आर्थिक-प्रतिबंध
लगाए हैं, उनसे चीन भी प्रभावित होगा। पर्यवेक्षकों का कहना है कि चीन इस साल अपनी
जीडीपी में 5.5 फीसदी की संवृद्धि के लक्ष्य को
प्राप्त नहीं कर सकेगा। चीनी अर्थव्यवस्था में लगातार मंदी आ रही है, जो चिंता का
विषय है। अफगानिस्तान से अमेरिकी पलायन के बाद के वैश्विक-घटनाक्रम का असर भारत की
विदेश-नीति पर पड़ा है।
यह प्रभाव भारत-अमेरिका, भारत-रूस और भारत-चीन
रिश्तों पर भी पड़ेगा। इसीलिए भारत अपने विकल्पों को खुला रख रहा है। हालांकि चीन
के साथ भारत के मतभेद काफी खुल चुके हैं, फिर भी भारत की कोशिश होगी कि वांग यी की
यात्रा के सकारात्मक परिणाम निकल सकें, तो बेहतर। फिलहाल लद्दाख की गतिरोध दूर हो
सके, तो वह बड़ी उपलब्धि होगी।
यूक्रेन की लड़ाई को एक महीने से ज्यादा का समय
निकल चुका है, पर वैश्विक-व्यवस्था कोई समाधान नहीं निकाल पाई है। संयुक्त राष्ट्र
में मतदानों से लगातार अनुपस्थित होकर भारत ने एक स्पष्ट रुख अपनाया है। वह इस
युद्ध के लिए रूस को जिम्मेदार नहीं मानता। दूसरी तरफ दक्षिण चीन सागर में चीनी
दादागीरी का भारत विरोध करता है।
चीनी-पहल
यह भी स्पष्ट है कि संबंधों को सुधारने की यह
पहल चीन की ओर से की गई है। उसकी कोशिश है कि इस साल चीन में हो रहे ब्रिक्स के
शिखर सम्मेलन के पहले माहौल सुधरे। इसके लिए उच्च स्तरीय राजनेताओं और अधिकारियों का
आवागमन शुरू करने की पेशकश चीन ने की है, जिसकी शुरुआत उसके विदेशमंत्री वांग यी
की अघोषित दिल्ली-यात्रा से हो गई है। संभवतः भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर भी
जल्द चीन जाएंगे।
चीन ने पोलितब्यूरो के शीर्ष-सदस्यों और शी
चिनफिंग-प्रशासन के अधिकारियों के दौरे की पेशकश भी की है। पिछले दो वर्षों में
चीन की वैश्विक-छवि में गिरावट आई है।
हांगकांग के लोकतांत्रिक-आंदोलन के दमन, कोविड-19 और विकासशील देशों को सहायता के
नाम पर कर्ज़दार बनाने के आरोपों की वजह से उसकी छवि को धक्का लगा है। पश्चिमी देश
मानते हैं कि यूक्रेन पर रूस का हमला, चीन की सलाह से हुआ है। अलबत्ता रूस की हमले
को परोक्ष चीनी-समर्थन के भी गहरे निहितार्थ हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर आक्रामक
होते जा रहे अमेरिका का ध्यान बँट गया है।
झुकाव और प्रभाव
भारत और चीन के बीच नेताओं के आवागमन से रिश्तों
में आकस्मिक-सुधार नहीं हो जाएगा। शायद टूटा हुआ संवाद फिर से जुड़ेगा। चीनी
रीति-नीति को पढ़ना आसान नहीं है। अलबत्ता वैश्विक-घटनाचक्र को देखते हुए दोनों
देश अपने रिश्तों की भावी दिशा को निर्धारित कर रहे हैं। यूक्रेन के घटनाक्रम की रोशनी
में दो प्रवृत्तियाँ देखने को मिल रही हैं। अमेरिका चाहता है कि भारत का झुकाव रूस
के प्रति कम हो, वहीं रूस की दिलचस्पी इस बात में है कि भारत-चीन तनाव कम हो, ताकि
उसका अमेरिका की ओर झुकाव कम हो।
उधर पूर्वी लद्दाख की बदमज़गी दूर करने के लिए भारत
और चीन के बीच कोर कमांडर स्तर की वार्ता का 15वाँ दौर गत 11 मार्च को पूरा हुआ। यह
बैठक भारत की ओर चुशूल-मोल्डो सीमा मिलन स्थल पर हुई। गतिरोध समाप्त नहीं हुआ है,
पर अब तक की बातचीत से पैंगोंग झील, गलवान और गोगरा
हॉट स्प्रिंग क्षेत्रों को लेकर कुछ सहमतियाँ बनी हैं। भारत ने देपसांग और देमचोक
में लंबित मुद्दों को सुलझाने और शेष जगहों से सेनाओं को जल्द से जल्द पीछे हटाने
पर जोर दिया है। फिलहाल फोकस हॉट स्प्रिंग (पेट्रोलिंग प्वाइंट-15) क्षेत्र में
सेनाओं को पीछे हटाने की रुकी हुई प्रक्रिया को पूरा करने पर है।
मोदी को बुलाने का जतन
सीमा-विवाद पर से ध्यान हटाते हुए चीन ने ‘भारत-चीन
सभ्यता-संवाद’ की पेशकश की है, जो दोनों देशों में चलेगा।
भारत-चीन व्यापार और निवेश सहयोग फोरम और भारत-चीन फिल्म फोरम बनाने का प्रस्ताव
भी है। यह सब हमें फिर से पचास के दशक में ले जाता है, जब हम ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के
नारे सुनते थे। चीन की मनोकामना है कि किसी प्रकार से ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हों।
चीन इस शिखर सम्मेलन के हाशिए पर ‘रिक’ (रूस-भारत-चीन) शिखर-सम्मेलन भी आयोजित करना चाहता है। पर
सीमा-विवाद के जारी रहते मोदी का चीन जाना आसान नहीं लगता है। मोदी-शी मुलाकात
इसके पहले नवंबर 2019 में ब्राजील में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में हुई थी।
उसके पहले अक्तूबर में शी चिनफिंग भारत आए थे, जिनके साथ मामल्लापुरम में नरेंद्र
मोदी की अनौपचारिक बातचीत हुई थी।
उस मुलाकात के बाद चीनी शी चिनफिंग ने भारत के
फार्मा और आईटी उद्योगों को चीन में निवेश करने का निमंत्रण दिया। सांस्कृतिक
सहयोग और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सहयोग का सुझाव दिया। ऐसे अनौपचारिक सम्मेलनों
का सुझाव प्रधानमंत्री मोदी का था। इस सीरीज़ में अगली मुलाकात चीन में होनी थी, जो
नहीं हुई, क्योंकि उसके बाद गलवान-प्रकरण हो गया। अब भारतीय दृष्टिकोण है कि
सीमा-प्रश्नों को सुलझाए बगैर चीन के साथ सामान्य-रिश्ते कायम नहीं हो सकेंगे।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-03-2022) को चर्चा मंच "कटुक वचन मत बोलना" (चर्चा अंक-4385) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जानकारी युक्त समाचार ।
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट।