बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है। साथ ही उन परिस्थितियों पर फिर से विचार हो रहा है, जिनमें बांग्लादेश की नींव पड़ी। बांग्लादेश में इस साल ‘मुजीब-वर्ष’ यानी शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। बांग्लादेश की मुक्ति और स्वतंत्रता संग्राम के 50 वर्ष के साथ दोनों देशों के राजनयिक संबंधों के 50 साल भी पूरे हो रहे हैं। मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे और अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद वहाँ गए।
इस दौरान देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा
गांधी के नाम का उल्लेख नहीं होने पर बहुत से लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त
की। वयोवृद्ध नेता कर्ण सिंह ने 17 दिसंबर को कहा कि इंदिरा गांधी के मजबूत और
निर्णायक नेतृत्व के बिना बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को जीता नहीं जा सकता था। विरोधी
दलों के नेताओं ने भी इसी किस्म के विचार व्यक्त किए। लोकसभा में कांग्रेस के नेता
अधीर रंजन चौधरी ने स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर उनके बयान का संदर्भ देते हुए
याद दिलाया कि विजय दिवस इंदिरा गांधी के साहसिक और निर्णायक फैसले की वजह से है।
उन्होंने यह भी याद दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष
में रहने के बावजूद इंदिरा गांधी की प्रशंसा की थी और उन्हें 1971 की बांग्लादेश
की आजादी की लड़ाई के बाद ‘दुर्गा’ का अवतार बताया था।
असाधारण विजय
बांग्लादेश की मुक्ति एक सामान्य लड़ाई नहीं
थी। हालात केवल एक देश और समाज की मुक्ति तक सीमित नहीं थे। दूसरे विश्वयुद्ध के
बाद एक और बड़े युद्ध के हालात बन गए थे, जिनमें एक तरफ पाकिस्तान, चीन और अमेरिका
खड़े थे और दूसरी तरफ भारत और रूस। छोटे से गलत कदम से बड़ी दुर्घटना हो सकती थी।
उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड
निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसने भी वैश्विक जनमत को भारत के पक्ष में
मोड़ने में भूमिका निभाई और निक्सन जैसे राजनेता को बौना बना दिया। साथ ही सातवें
बेड़े के कारण पैदा हुए भय का साहस के साथ मुकाबला किया। उस दौरान अमेरिकी
पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के
साथ जाने को मजबूर होना पड़ा। इसलिए एक नजर उन परिस्थितियों पर फिर से डालने की
जरूरत है।
बांग्लादेश की स्थापना के पीछे की परिस्थितियों पर विचार करते समय उन दिनों भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में हुए संसदीय चुनावों के परिणामों पर भी विचार करना चाहिए। भारत में फरवरी 1971 में और उसके करीब दो महीने पहले पाकिस्तान में। पाकिस्तान के फौजी तानाशाह जनरल याह्या खान ने आश्चर्यजनक रूप से राष्ट्रीय असेम्बली के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का फैसला किया। उन्हें अनुमान ही नहीं था कि पूर्वी पाकिस्तान इस लोकतांत्रिक-गतिविधि के सहारे पश्चिम को सबक सिखाने का फैसला करके बैठा है। याह्या खान को लगता था कि किसी को बहुमत मिलेगा नहीं, जिससे मेरी सत्ता चलती रहेगी। पर शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को न केवल पूर्वी पाकिस्तान की 99 फीसदी सीटें मिलीं, बल्कि राष्ट्रीय असेम्बली में पूर्ण बहुमत भी मिल गया, पर पश्चिमी पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान ने उन्हें प्रधानमंत्री पद देने से इनकार कर दिया।
इसकी प्रतिक्रिया में 23 मार्च, 1971 को बांग्लादेश का ध्वज फहरा दिया गया और बंगबंधु मुजीबुर्रहमान
ने 26 मार्च की मध्यरात्रि को स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उसके एक दिन पहले 25
मार्च को पहले से मौजूद सेना के अलावा पश्चिमी पाकिस्तान से 40 हजार सैनिकों की
अतिरिक्त फौज भेज दी गई। शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया। अवामी लीग ने
ताजुद्दीन अहमद के नेतृत्व में कोलकाता में बांग्लादेश की निर्वासित सरकार की
घोषणा कर दी। उसके बाद चला दमन-चक्र, जिसमें लेखकों,
कलाकारों, विचारकों, छात्रों,
अध्यापकों और आम नागरिकों की हत्याएं हुईं। बांग्लादेश के उस दमन
चक्र में मरने वालों की संख्या को लेकर 50 हजार से लेकर 30 लाख तक के अलग-अलग
अनुमान हैं।
हमदर्दी की लहर
पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे इस भयानक दमन-चक्र
को लेकर भारत में बांग्लादेश के नागरिकों के प्रति हमदर्दी की लहर पैदा हुई।
पाकिस्तानी फौज से पीड़ित-प्रताड़ित लोग सीमा पार करके भारत आने लगे। भारत पर
शरणार्थियों का बोझ बढ़ने लगा। इंदिरा गांधी की जीवनीकार पुपुल जयकर ने लिखा है कि
इंदिरा गांधी की सहजबुद्धि में, जो शायद ही कभी गलत साबित हुई हो,
यह बात फौरन आ गई कि जो कुछ हो रहा है, उसकी
परिणति भारत-पाकिस्तान युद्ध में हो सकती है। डर था कि इस लड़ाई में कहीं बड़ी
ताकतें भी शामिल न हो जाएं।
हालात को भाँप लेने की अपनी अद्भुत क्षमता के
बदौलत इंदिरा गांधी ने अपनी प्राथमिकताएं तय करनी शुरू कीं। उन्होंने सबसे पहले
अपने सलाहकारों को बुलाया। शरणार्थी-शिविरों, भोजन-वस्त्र
वगैरह की व्यवस्थाएं वरिष्ठ नौकरशाहों को सौंपी गईं। डर यह भी था कि इन बातों से
देश में भी अशांति पैदा हो सकती है, सांप्रदायिक
झगड़े भी खड़े हो सकते हैं। इसे रोकने के विचार से उन्होंने विपक्ष के साथ परामर्श
शुरू किया, दैनिक प्रेस-ब्रीफिंग और मुख्यमंत्रियों के साथ
संपर्क बनाया गया। ऐसा माहौल बनाने के कोशिश की गई कि लोग शरणार्थियों के आगमन को
हमदर्दी के साथ देखें।
मानेकशॉ से संवाद
इंदिरा गांधी की आधिकारिक जीवनी की लेखक पुपुल
जयकर ने लिखा है, 25 अप्रेल को सेनाध्यक्ष एसएचएफजे
मानेकशॉ कैबिनेट की बैठक में बुलाया गया। उन्होंने पाया कि प्रधानमंत्री बहुत
गुस्से में हैं।
‘आपको पता है कि पूर्वी पाकिस्तान में क्या हो रहा है?’
‘हाँ, हत्याएं हो रही
हैं,’ मानेकशॉ ने जवाब दिया।
‘मेरे पास त्रिपुरा, मणिपुर,
असम, बंगाल के मुख्यमंत्रियों के टेलीग्राम
आए हैं। शरणार्थियों की भीड़ आ रही है। आप उन्हें रोकिए। जरूरी हो तो पूर्वी
पाकिस्तान में प्रवेश कर जाइए, पर रोकिए।’
‘आप जानती हैं इसका मतलब है युद्ध।’
‘मुझे लड़ाई की परवाह नहीं, प्रधानमंत्री ने कहा’
इसके बाद जनरल ने खतरों का विवरण दिया। ‘मॉनसून
आने वाला है-सैनिक सड़क के रास्ते ही आगे बढ़ सकेंगे। बाकी जमीन पर दलदल होगी,
और नदियाँ समुद्र बन जाएंगी। वायुसेना भी काम नहीं कर सकेगी। मैं फँस
जाऊँगा।’ उन्होंने प्रधानमंत्री को बताया कि ऐसी हालत में हम लड़ाई जीत नहीं
पाएंगे। बड़ी संख्या में सेना पश्चिम बंगाल में नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई में
लगी है।
मुझे डेढ़ महीना उन्हें वापस लाने में लगेगा।
उन्हें फिर से ट्रेनिंग देनी होगी।
‘पंजाब और हरियाणा में फसल की कटाई शुरू हो गई
है। फसल के टाइम पर लड़ाई शुरू हुई, तो सड़कें घिर जाएंगी, फौजी
कूच में सारे घोड़े लग जाएंगे। ऐसे में अनाज की आमद रुकी, तो
अकाल पड़ जाएगा।’ इसके बाद उन्होंने चीन के खतरे का भी जिक्र किया। अगले कुछ दिनों
में पहाड़ी दर्रे खुल जाएंगे। ‘चीन हमें अल्टीमेटम देगा, तो
हम क्या करेंगे?’
‘प्रधानमंत्री का चेहरा तमतमाकर लाल हो रहा था।
उन्होंने बैठक चार बजे तक के लिए स्थगित कर दी। मुझसे (मानेकशॉ) कहा, आप रुकिए।’ मानेकशॉ बोले, ‘मैंने जो कहा उसकी वजह से क्या आप मेरा इस्तीफा
चाहती हैं? पर मुझे तो आपको सच बताना ही है।’
‘ऑल राइट सैम, गो
अहैड-आय ट्रस्ट यू।’
सहयोगियों से चर्चा
उसके बाद प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष ने एक राय
से काम किया। प्रधानमंत्री ने किसी को इस बात की अनुमति नहीं दी कि उनके बीच में
बोलें। वित्त मंत्रालय के तत्कालीन प्रिंसिपल सेक्रेटरी आईजी पटेल को प्रधानमंत्री
ने बुलाया। वे जानना चाहती थीं कि अमेरिका हमारे खिलाफ हुआ, तो
क्या हमारे पास काम चलाने लायक पैसा है? आईजी पटेल ने
बताया, पहली बार हमारे पास एक हजार करोड़ रुपये का
विदेशी-मुद्रा भंडार है और हमारे भंडारागारों में अनाज भरा है। कम से कम अगले छह
महीने तक काम चल जाएगा।
इंदिरा गांधी इसके बाद असम, त्रिपुरा और बंगाल के शरणार्थी शिविरों के दौरे पर निकल गईं और वहाँ
से लौटकर 24 मई को लोकसभा को संबोधित किया। लोकसभा सदस्य पूर्वी बंगाल के पीड़ितों
के समर्थन में एक थे। उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा, फौरन
कार्रवाई करें। पर सोचे-समझे बगैर कार्रवाई से गड़बड़ भी हो सकती थी। उन्होंने
बांग्लादेश को फौरन मान्यता देने की बात भी स्वीकार नहीं की। उन्होंने सदन को
बताया कि सभी पहलुओं पर विचार किया जा रहा है।
इंदिरा गांधी के सलाहकार भी योग्य और मजबूत थे।
डीपी धर पॉलिसी प्लानिंग कमेटी के अध्यक्ष थे, और
इंदिरा गांधी के मुख्य सलाहकार थे पीएन हक्सर। उनके बाद थे उनके अपने प्रिंसिपल
सेक्रेटरी पीएन धर। टीएन कौल विदेश सचिव थे और एलके झा अमेरिका में भारत के
राजदूत। कुछ महीने पहले ही वे राजदूत बने थे। वे राजदूत बनने से झिझक रहे थे। एक
तो वे डिप्लोमैट नहीं थे, दूसरे अमेरिका में उनके ज्यादातर दोस्त
डेमोक्रेट थे, जो सत्ता में नहीं थे।
अमेरिका और रूस
अमेरिका में राष्ट्रपति थे रिचर्ड निक्सन और
विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर। झा ने अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश की,
पर जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि माहौल भारत के नहीं पाकिस्तान के
पक्ष में है। उधर इंदिरा गांधी को सूचना मिली कि याह्या खां ने शेख मुजीब पर
मुकदमा चलाने का फैसला कर लिया है। अब खतरा मुजीब के जीवन पर था। युद्ध को ज्यादा
देर तक टालना संभव नहीं था, पर परिस्थितियाँ प्रतिकूल थीं।
उसी दौरान अमेरिका और चीन के रिश्ते जोड़ने में
पाकिस्तान कामयाब हो गया। इससे अमेरिका के दरबार में पाकिस्तान का रसूख बढ़ गया। हेनरी
किसिंजर ने अपनी खुफिया चीन यात्रा की सूचना एलके झा को देते हुए कहा कि अपनी
प्रधानमंत्री से कहिएगा कि वे चीन-अमेरिका रिश्तों का विरोध न करें। भारत को इस
रिश्ते पर आपत्ति नहीं थी, पर पाकिस्तान की भूमिका के बढ़ते
प्रभाव के कारण चिंता थी। उधर बंगाल में सक्रिय नक्सलपंथियों को लगा कि भारत में
क्रांति का माहौल पैदा हो गया है। वे बांग्लादेश के शरणार्थियों के शिविरों में
सक्रिय हो रहे थे।
भारत ने इन परिस्थितियों में सोवियत संघ के साथ
9 अगस्त को 20 वर्षीय संधि की और 2 सितंबर को इंदिरा गांधी सोवियत संघ गईं। उस
नाजुक मौके पर भारत ने वैश्विक परिस्थितियों को धीरे-धीरे अपने पक्ष में किया और
फिर पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करके बांग्लादेश की आजादी में मददगार बनने का
फैसला किया, पर उससे पहले ही 3 दिसंबर को पाकिस्तान ने
मोर्चा खोल दिया। पाकिस्तानी वायुसेना ने
3 दिसंबर को भारतीय वायुसेना के 11 स्टेशनों पर एक साथ हवाई हमले किए। इनमें
पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर,
जोधपुर, आगरा आदि शामिल थे। पाकिस्तानी योजना
थी कि एकसाथ इतना जबर्दस्त हमला किया जाए कि भारतीय वायुसेना पूरी तरह निष्क्रिय
हो जाए। पर भारत ने उसी रोज जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी। भारतीय वायुसेना ने
पाकिस्तानी सीमा के भीतर जाकर हमले बोले। थलसेना ने पश्चिमी और पूर्वी दोनों
मोर्चों पर युद्ध शुरू कर दिया। उस युद्ध की एक अलग कहानी है, पर इस बात को भुलाया
नहीं जा सकता कि अमेरिका ने अपना सातवाँ बेड़ा हिंद महासागर में भेजा और भारतीय
नेतृत्व उससे डरा नहीं।
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