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Wednesday, November 17, 2021

असली भारत का सम्मान


सोमवार 8 और मंगलवार 9 नवंबर को राष्ट्रपति भवन में हुए पद्म पुरस्कार वितरण समारोह में इसबार कुछ ऐसी हस्तियाँ थीं, जिन्हें देखकर हर्ष और विस्मय दोनों होते हैं। इनमें एक थे इसमें एक थे कर्नाटक से आए हरेकला हजब्बा। साधारण कपड़े पहने हजब्बा पद्मश्री पुरस्कार लेने नंगे पाँव आए थे। जब उन्हें सम्मान-पत्र दिया गया, तब पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। वे सड़क के किनारे संतरे बेचते थे। जिस गांव में पैदा हुए वहां स्कूल नहीं था, इसलिए पढ़ नहीं पाए। उन्होंने ठान लिया कि अब इस वजह से गांव का कोई भी बच्चा अशिक्षित नहीं रहेगा। संतरा बेचकर पाई-पाई जुटाए पैसों से उन्होंने गांव में स्कूल खोला, जो आज 'हजब्बा आवारा शैल' यानी हजब्बा का स्कूल के नाम से जाना जाता है।

इसी समारोह में कर्नाटक की 72 वर्षीय आदिवासी महिला तुलसी गौडा पद्मश्री पुरस्कार लेने नंगे पाँव आई थीं। तुलसी गौडा पिछले छह दशक से पर्यावरण-संरक्षण का अलख जगा रही हैं। कर्नाटक के एक गरीब आदिवासी परिवार में जन्मीं तुलसी कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन उन्हें जंगल के वाले पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों के बारे में इतनी जानकारी है कि उन्हें 'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट' कहा जाता है। हलक्की जनजाति से ताल्लुक रखने वाली तुलसी गौडा ने 12 साल की उम्र से अबतक कितने पेड़ लगाए गिनकर वे बता नहीं सकतीं। अंदाज़ा लगाती हैं शायद चालीस हजार, पर असली संख्या शायद एक लाख से भी ऊपर है। उनके सम्मान में हॉल में उपस्थित प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से लेकर तमाम उपस्थित अतिथि हाथ जोड़े खड़े थे।

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की आदिवासी महिला राहीबाई सोमा पोपेरे भी पद्मश्री ग्रहण करने आईं। उन्हें 'सीड मदर' के नाम से जाना जाता है। 57 साल की पोपेरे स्वयं सहायता समूहों के जरिए 50 एकड़ जमीन पर 17 से ज्यादा देसी फसलों की खेती करती हैं। दो दशक पहले उन्होंने बीजों को इकट्ठा करना शुरू किया। आज वे सैकड़ों किसानों को जोड़कर वैज्ञानिक तकनीकों के जरिए जैविक खेती करती हैं।

सम्मानित होने वालों में अयोध्या से आए मोहम्मद शरीफ भी थे, जो अपने ढंग से समाज सेवा में लगे हैं। हजारों लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके समाजसेवी मोहम्मद शरीफ को निस्वार्थ सेवा के लिए राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बताया जाता है कि पिछले 25 वर्षों में 25,000 से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार किया है। 30 वर्ष पूर्व उनके एक जवान बेटे की कहीं सड़क दुर्घटना से मौत हो गई थी। घरवालों को इस बात की जानकारी भी नहीं हो पाई और पुलिस ने लावारिस मानकर अंतिम संस्कार कर दिया। उसके बाद से मोहम्मद शरीफ ने निश्चय किया कि लावारिसों का वारिस मैं बनूँगा। आर्थिक तंगी के बावजूद वे इस जिम्मेदारी को निभाते रहे हैं।

अभिजात्य से हटकर

पुरस्कारों और सम्मानों की बात जब होती है, तब सम्मानित लोगों की जो छवि हमारे मन में बनी है, उससे कुछ अलग किस्म के लोगों का सम्मान देखकर मन प्रफुल्लित होता है। यह असली भारत का सम्मान है, साथ ही बदलते भारत की तस्वीर। यह उन लोगों का सम्मान है, जो अपनी धुन और लगन से काम करते चले आ रहे हैं। ये हैं इस देश के वास्तविक नायक। आम धारणा रही है कि पद्म पुरस्कार ज्यादातर उन्हीं को मिलते हैं जिनकी सत्ता के गलियारों तक पहुंच हो। पर भारत सरकार के इस नए चलन से धारणा बदलेगी। देश के वास्तविक नायकों को खोजना और उन्हें सम्मानित करना बड़ी बात है। अभिजात्यवाद से हटकर उन ज़मीनी लोगों को खोजना जो इस देश के वास्तविक रत्न हैं। ऐसे रत्नों की कमी नहीं है। उन्हें खोजने की जरूरत भर है।

पद्म पुरस्कारों के माध्यम से, सरकार कला, साहित्य और शिक्षा, खेल, चिकित्सा, सामाजिक कार्य, विज्ञान और इंजीनियरिंग, जनसेवा, लोक सेवा, व्यापार और उद्योग जैसे विभिन्न क्षेत्रों में ‘विशिष्ट कार्य’ को मान्यता देती है। पद्म विभूषण असाधारण और विशिष्ट सेवा के लिए, पद्म भूषण उच्च क्रम की विशिष्ट सेवा के लिए और पद्मश्री किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए दिया जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार 2014 से पद्म पुरस्कारों से कई  गुमनाम नायकों को सम्मानित कर रही है, जो विभिन्न तरीकों से समाज में योगदान दे रहे हैं।

सामान्यतः इन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया जाता है, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी यह पहली पहचान ही होती है। अब उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसे नायकों की न केवल संख्या बढ़ेगी, बल्कि उन्हें उच्चतर श्रेणियों के सम्मान भी मिलेंगे। पुरस्कारों की घोषणा हर साल गणतंत्र दिवस के मौके पर 25 जनवरी को की जाती है, और पुरस्कार-समारोह अप्रैल में होता है। महामारी के कारण 2020 और 2021 के पुरस्कार तय समय पर नहीं दिए जा सके थे, इसलिए 2020 और 2021 दोनों साल के पद्म विजेताओं का इस साल एक साथ सम्मान किया गया। यह समारोह इसीलिए दो दिन चला।

पारंपरिक कौशल

अच्छी बात यह है कि अब देश का कोई भी नागरिक किसी ऐसे व्यक्ति के नाम का अनुमोदन कर सकता है, जिसे वह सम्मान का पात्र समझता है। यह व्यवस्था 2017 से शुरू हुई है। शायद इसी वजह से पिछले पाँच वर्षों से ऐसे नाम सामने आ रहे हैं। दूसरी अच्छी बात यह है कि अब सम्मानित हो रहे व्यक्ति केवल दिल्ली या उसके आसपास के लोग ही नहीं हैं। सुदूर पूर्व और दक्षिण के लोगों की संख्या भी बढ़ी है। संगीत, कला, दस्तकारी और समाज सेवा के क्षेत्रों में शास्त्रीय कलाओं के साथ-साथ लोक-कलाओं और पारंपरिक-कौशलों से जुड़े लोगों के नाम भी सामने आ रहे हैं।

सन 2017 में देश ने केरल की मीनाक्षी अम्मा का नाम सुना। 75 वर्षीय मीनाक्षी गुरुक्कल यानी मीनाक्षी अम्मा, परंपरागत युद्ध-कौशल कलारीपयट्ट में सिद्धहस्त हैं। कलारीपयट्ट तलवारों और लाठियों से खेला जाने वाला केरल की प्राचीन मार्शल-आर्ट है। उस साल के पद्म पुरस्कारों पाने वालों में उनके अलावा तेलंगाना खम्मम जिले के रेड्डिपल्लि गांव के 84 वर्षीय दरिपल्ली रमैया का नाम भी था, जो एक करोड़ से अधिक पौधों को पेड़ बना चुके हैं। दरिपल्ली रमैया को लोग ‘ट्री मैन’ के नाम से जानते हैं। वे बीज बोकर पौध उगाते हैं और फिर उसे रोपकर बच्चे की तरह देखभाल करके पेड़ बनाते हैं।

पद्म पुरस्कार नहीं मिलता तो लोग गिरीश भारद्वाज के बारे में नहीं जान पाते। कर्नाटक के गिरीश भारद्वाज ने दूर-दराज के गाँवों में कम लागत से और पर्यावरण के अनुकूल सवा सौ से ज्यादा पुल तैयार किए हैं। उन्हें सेतु-बंधुके नाम से जाना जाता है| उसी साल इंदौर की 91 वर्षीय डॉक्टर दादी भक्ति यादव को पद्म सम्मान मिला, जो 1940 से मरीजों का मुफ्त इलाज करती रहीं। इस सम्मान के कुछ समय बाद उनका निधन हो गया। इस देश में ऐसी तमाम महान विभूतियाँ हैं, जिनका समय रहते सम्मान होना चाहिए।

पुरस्कारों की राजनीति

18 अगस्त 2007 को जब दशरथ माझी का दिल्ली में कैंसर से लड़ते हुए निधन हुआ था, तब उसके जीवट और लगन की कहानी देश के सामने आई थी। पर तब किसी ने नहीं कहा कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए। हमारे अभिजात्य मन में यह बात नहीं आती थी। 16 नवंबर 2013 को सचिन तेन्दुलकर ने प्रतियोगी क्रिकेट से जिस दिन संन्यास लेने की घोषणा की, उसी रोज भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा भी की। उनके साथ प्रसिद्ध गणितज्ञ सीएनआर राव को भी भारत रत्न दिया गया। दोनों की महानता पर कोई शक नहीं, पर पुरस्कारों को लेकर एक बहस तब चली थी, जिसके कुछ मुद्दे तब महत्वपूर्ण थे और आज भी प्रासंगिक हैं।

सचिन तेन्दुलकर देश की पहचान हैं। उनकी प्रतिभा और लगन युवा वर्ग को प्रेरणा देती है। सहज और सौम्य हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं, माँ का सम्मान करते हैं और एक साधारण परिवार से उठकर आए हैं। इन सभी कसौटियों पर वे श्रेष्ठ हैं, पर उन्हें पुरस्कार देने वालों ने इन कसौटियों पर उन्हें सम्मानित किया था क्या? शायद ऐसा 2014 के चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया था। यह तय करने का कोई मापदंड नहीं कि वे देश के सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं भी या नहीं। कुछ और खिलाड़ी भी इस सूची में हैं। मसलन ध्यानचंद। ध्यानचंद महान खिलाड़ी थे, और उस दौर में थे जब हमें आत्मविश्वास की ज़रूरत थी। फिर भी वे लोकप्रियता के उस शिखर पर नहीं थे, जिसपर सचिन तेन्दुलकर रहे। तब वह मीडिया भी नहीं था, जो व्यक्ति को लोकप्रिय बनाता है। हमने उन्हें सम्मान दिया है। ध्यानचंद के जन्मदिन को हम राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाते हैं।

दूसरी तरफ देखें कि सचिन को लोकप्रिय बनाने वाली एक पूरी कारोबारी मशीनरी थी। यह सवाल अपनी जगह बना रहेगा कि हमारे समाज ने ध्यानचंद को इतना लोकप्रिय क्यों नहीं बनाया कि वे 1955 में ही भारत रत्न होते? भारत रत्न महात्मा गांधी भी नहीं बने, पर वे नेहरू से छोटे नेता भी नहीं थे। सचिन तेन्दुलकर को लोकप्रिय बनाने वाले और ध्यानचंद को लोकप्रियता के शिखर पर न लाने वाले राज-समाज के बारे में भी हमें विचार करना चाहिए। इस विचार से ध्यानचंद निरर्थक हैं। भीड़ उन्हें पहचानती नहीं, भले ही वे महान थे। हमने इस भीड़ को उनकी महानता से परिचित ही नहीं कराया। अच्छी बात यह है कि खिलाड़ियों को भारत रत्न का सम्मान भी मिलने लगा, जो उसके पहले संभव नहीं था।

सम्मान हैं, खिताब नहीं

कुछ लोग अपने नाम के पहले पद्मश्री वगैरह लगाकर घूमते हैं। अदालतें और सरकारें यह चेतावनी देती रहती हैं कि इनका इस्तेमाल नाम के साथ खिताब की तरह नहीं किया जाना चाहिए। यह बात अच्छी तरह स्थापित होनी चाहिए कि पद्म सम्मान अंग्रेजी सरकार के खिताबों जैसे नहीं हैं। बालाजी राघवन/एसपी आनंद बनाम भारतीय संघ (1995) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये पुरस्कार हैं खिताब नहीं। सत्यपाल डांग ने सन 2005 में जब पद्मभूषण सम्मान लौटाया तब उन्होंने उसकी गरिमा गिरने के साथ-साथ इस बात का ज़िक्र भी किया कि लोग अपने नाम के पहले पद्मश्री, पद्मभूषण वगैरह लगाते हैं, जो नैतिक और कानूनी रूप से गलत है।

राजेन्द्र प्रसाद पर अपनी नर्स को और राजीव गांधी पर अपने स्कूल-प्रिंसिपल को पद्मश्री देने का आरोप लगा। यह भी कि राजीव ने तमिल वोट पाने की खातिर एमजी रामचंद्रन को भारत रत्न दिलाया। भीमराव आम्बेडकर को भारत रत्न मिलने पर वीपी सिंह पर दलित वोट की राजनीति का आरोप लगा। सन 2010 में अमेरिका में होटल चलाने वाले संत सिंह छटवाल को जब पद्मभूषण मिला, तब भी वह विवाद का विषय बना।

आचार्य जेबी कृपालानी ने सन 1969 में ऐसे सम्मानों को खत्म करने के लिए लोकसभा में निजी विधेयक पेश भी किया। वह पराजित हो गया। इसके एक साल पहले हृदय नारायण कुंजरू ने भारत रत्न देने की सरकारी पेशकश को ठुकराया था। सरकारी प्रतिनिधियों को अनुमान नहीं था कि संविधान सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने ऐसे पुरस्कारों का विरोध किया था। सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का अलंकरण दिया गया। दूरदर्शन ने जब मोरारजी से प्रतिक्रिया माँगी तो उन्होंने कहा, मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूँ, पर आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ।

शैक्षिक और सैन्य-श्रेष्ठता

संविधान का अनुच्छेद 18(1) कहता है ‘राज्य, सेना या विद्या संबंधी सम्मान (एकैडमिक ऑर मिलिटरी डिस्टिंक्शन) के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा। ‘संविधान सभा में प्रोफेसर केटी शाह ने अनुच्छेद 12 का समर्थन किया था, जो बाद में अनुच्छेद 18 बना। आमराय थी कि अंग्रेज सरकार की तरह खिताब और उपाधियाँ सरकार नहीं देगी। संविधान सभा की राय थी कि सरकार को खिताब देने ही नहीं चाहिए। क्या इन पुरस्कारों को रणक्षेत्र की बहादुरी और विद्या से जुड़ी श्रेष्ठता से जोड़ा जा सकता है?

सन 1955 में सरकारी आदेश के रूप में इन्हें शुरू किया गया था। यह बहस चलती रही है और शायद चलती रहेगी कि पद्म पुरस्कार विद्या, कौशल या सेवा-संबंधी अन्य सम्मानों जैसे हैं। सच यह है कि अतीत में काफी वाजिब लोग सम्मानित हुए हैं, पर यह भी सच है कि सम्मान पाने के इच्छुक लोगों की लाइन लगती रही है। अच्छी बात यह है कि अब ऐसे नाम सुनाई पड़ने लगे हैं, जो वास्तव में सम्मान के पात्र हैं। कोई जरूरी नहीं है कि सारे प्रश्नों पर संविधान सभा में विचार हो सका होगा। दिन-प्रतिदिन के अनुभव भी हमारी रीति-नीति को तय करते हैं। इन पुरस्कारों के माध्यम से देश की वास्तविक-प्रतिभा को सामने आने का जो अवसर अब मिल रहा है, वह प्रशंसनीय है। यह परंपरा आगे बढ़नी चाहिए।

पाञ्चजन्य में प्रकाशित

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