कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद सुलझे हुए और समझदार नेता माने जाते हैं, पर उन्होंने अपनी नई किताब में हिंदुत्व की तुलना इस्लामी आतंकी संगठनों बोको हरम और इस्लामिक स्टेट से करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आग में घी डालने का काम किया है। इस बहस में कांग्रेस पार्टी को राजनीतिक रूप से नुकसान पहुँचेगा। इस किस्म की बातों से रही-सही कसर पूरी हो जाएगी। पार्टी की ‘हिंदू-विरोधी छवि’ को ऐसे विचारों से मजबूती मिलती है। बोको हरम और तालिबान की तुलना बीजेपी से करके आप कुछ हासिल नहीं करेंगे, बल्कि अपने बचे-खुचे आधार को खो देंगे। ऐसी बातों को चुनौती दी जानी चाहिए, खासतौर से उन लोगों की ओर से, जो खुद को धार्मिक कट्टरपंथी नहीं मानते हैं।
केवल हिंदू-कट्टरता
सलमान खुर्शीद को राहुल गांधी का समर्थन मिला
है। दोनों ‘राजनीतिक-हिंदुत्व’ को सनातन-हिंदू धर्म से अलग साबित
करना चाहते हैं। व्यावहारिक सच यह है कि सामान्य व्यक्ति को दोनों का अंतर समझ में
नहीं आता है। जब आप हिंदुत्व का नाम लेते हैं, तब केवल नाम ही नहीं लेते, बल्कि
सनातन-धर्म से जुड़े तमाम प्रतीकों, रूपकों, परंपराओं, विचारों, प्रथाओं का
एकमुश्त मजाक उड़ाते हैं। वामपंथी इतिहास लेखकों ने इसकी आधार भूमि तैयार की,
जिन्हें पचास के दशक के बाद कांग्रेसी-व्यवस्था में राज्याश्रय मिला था। एक समय तक
कट्टरपंथ के नाम पर हर प्रकार की धार्मिक कट्टरताओं का विरोध होता था, पर अब
धार्मिक कट्टरता का अर्थ केवल हिंदू-कट्टरता रह गया है। इससे पैदा हुए ध्रुवीकरण का
राजनीतिक लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला है।
कांग्रेसी-अंतर्विरोध
स्वतंत्रता के पहले देश में कांग्रेस की छवि हिंदू और मुस्लिम लीग की मुस्लिम पार्टी के रूप में थी। स्वतंत्रता के बाद पार्टी के अंतर्विरोध उभरे। सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू के मतभेद जगजाहिर हैं। पुरुषोत्तम दास टंडन और नेहरू के विवाद को फिर से पढ़ने की जरूरत है। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस की ही उस धारा को अपने साथ लिया है, जो हिंदू-भावनाओं को अपने साथ लेकर चलना चाहती थी। इस वैचारिक टकराव को मीनाक्षीपुरम धर्मांतरण, शाहबानो और अयोध्या प्रकरणों से हवा मिली। ऐसे सवालों की गंभीरता पर 1947 से पहले विचार किया जाना चाहिए था, जिससे न केवल बचने की कोशिश की गई, बल्कि भारतीय इतिहास-लेखन को सायास बड़ा मोड़ दिया गया।
दोषपूर्ण इतिहास-दृष्टि
प्रतिष्ठित इतिहास लेखक डॉ धर्मा कुमार ने नब्बे के उत्तरार्ध में लिखा था, ‘भारतीय इतिहास का धर्मनिरपेक्षतावादी संस्करण न
केवल गम्भीर रूप से दोषपूर्ण है, बल्कि व्यावहारिक दृष्टि से खराब है, क्योंकि इसके
कारण बहुत से उन हिंदुओं के मन में उसके प्रति विरक्ति का भाव पैदा होता है, जो
अन्यथा धर्मनिरपेक्ष नीति के समर्थक हैं। इस्लाम और हिंदू मान्यताओं के बीच भारी
अंतर को बिसरा कर समन्वयवादी और ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ पर अतिशय जोर देने से, भारतीय इतिहास का काफी अर्थ खो
जाता है।’
धर्मा कुमार साधारण इतिहासकार नहीं थीं और न
उन्हें कोई सांप्रदायिक कह सकता है। उन्होंने लिखा, भारतीय इतिहासकारों के एक समूह
ने, जिन्हें मैं वामपंथी धर्मनिरपेक्षतावादी कह रही हूँ, अपने लेखन के मार्फत सांप्रदायिकता
से लड़ने के लिए एक सामूहिक परियोजना पर काम शुरू किया है। धर्मनिरपेक्ष भारत की
स्थापना के उनके इरादों में जहाँ मैं उनके साथ हूँ, वहीं मैं समझती हूँ कि उनका यह
उद्यम, वर्तमान राजनीतिक-रणनीति और इतिहास से जुड़े बौद्धिक-कर्म के लिहाज से भटका
हुआ है।
सेक्युलर-वामपंथी मॉडल
उन्होंने लिखा, ‘सेक्युलर-वामपंथी मॉडल’ की पहली
धारणा है कि हिंदू और मुसलमान अंग्रेजों के आने के पहले मध्ययुग में आमतौर पर मित्रवत
या मधुर वातावरण में रहते थे। दूसरे, आधुनिक सांप्रदायिकता के बीज औपनिवेशिक युग
में पड़े थे। तीसरा विचार है कि औपनिवेशिक दौर में हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों में
भारी बदलाव आया। चौथे, आज भारत में सबसे बड़ा खतरा हिन्दू-सांप्रदायिकता का है। पाँचवें, उपनिवेशवादियों द्वारा तैयार की गई और हिंदू संकीर्णतावादी
लेखकों द्वारा चमकाई गई गलत धारणाओं पर हिन्दू सांप्रदायिकता पनपी। छठे, इन बातों
से निष्कर्षतः इतिहास के इस
राजनीतिक दुरुपयोग के कारण जरूरी हो जाता है कि ‘इतिहासकार’ हस्तक्षेप करे। धर्मा कुमार ने ईपीडब्लू में प्रकाशित
एक लंबे लेख में जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ के 25 सदस्यों द्वारा
तैयार किए गए मैनिफेस्टो का जिक्र करते हुए लंबी टिप्पणी की थी, जिसमें ‘इतिहासकार के राजनीतिक-हस्तक्षेप’ की उन्होंने आलोचना की
थी। वह टिप्पणी आज भी पठनीय है।
चुनावी
राजनीति
भारत में टकराव का एक
प्रमुख कारण धर्मांतरण है, पर सबसे बड़ा कारण राजनीतिक-सत्ता है, जो
चुनाव के सहारे हासिल होती है। कांग्रेस को पहले तीन संसदीय चुनावों में सफलता
मिली, पर उसके बाद उसका क्षरण शुरू हुआ। इस क्षरण के पीछे सामाजिक इंजीनियरी थी।
हिंदू-समाज के जातीय अंतर्विरोधों ने खुलना शुरू किया। उत्तर भारत में 1967 के बाद
की गैर-कांग्रेसी सरकारों ने मुख्यतः मध्यवर्ती जातियों के राजनीतिक-नेतृत्व के
उभार को रेखांकित किया। यह उभार हिंदू समाज के बिखराव को व्यक्त कर रहा था, जिसके
समांतर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व में हिंदुत्व का सामाजिक एकीकरण
एजेंडा चल रहा था। यह काम अब भी जारी है।
कांग्रेसी आधार का क्षरण
कांग्रेस का विचार बुनियादी तौर पर भारतीय
राष्ट्रवाद की नई समावेशी-धारणाओं पर केंद्रित था। सामाजिक क्षरण ने उसे गहराई तक
प्रभावित किया। उसका विशाल हिंदू-आधार ही अब भारतीय जनता पार्टी के पास है। पार्टी
उसे वापस पाने की कोशिश बड़े अटपटे तरीके से कर रही है, जिसे कुछ लोग ‘सॉफ्ट
हिंदुत्व’ कहते हैं। कुछ कर्मकांडों की मदद से
सनातन-हिंदू समाज का मन जीतने में उसे सफलता नहीं मिलेगी। राजनीतिक-हिंदुत्व पर
प्रहार उसे हिंदू-सनातन समाज से दूर ले जा रहा है।
हिंदुत्व-विरोधी अभियान
यह केवल भारत में ही नहीं हो रहा है, बल्कि
अमेरिका और यूरोप की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा इसमें भागीदार है। ‘राजनीतिक-हिन्दुत्व’ को लेकर दुनिया के 53 से ज्यादा विश्वविद्यालयों से जुड़े अकादमिक
विद्वानों का एक वर्चुअल सम्मेलन हाल में 10 से 12 सितम्बर के बीच चला। इस सम्मेलन
का आयोजन विश्वविद्यालयों के इन विभागों के सहयोग से हुआ था। सम्मेलन का
विचारोत्तेजक शीर्षक था, ‘डिस्मैंटलिंग ऑफ ग्लोबल हिंदुत्व’ यानी
वैश्विक हिंदुत्व का उच्छेदन। सम्मेलन के आलोचकों का पहला सवाल था कि क्या आयोजक
ऐसा ही कोई सम्मेलन ग्लोबल इस्लाम को लेकर करने की इच्छा रखते हैं? छोड़िए इस्लाम क्या वे डिस्मैंटलिंग कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चायना का
आयोजन कर सकते हैं? सम्मेलन
के आयोजक राजनीतिक हिंदुत्व और हिंदू धर्म के बीच सैद्धांतिक रूप से अंतर मानते
हैं, पर पहले ही दिन पैनलिस्ट मीना धंढा ने साफ कहा
कि मुझे दोनों (हिंदू और हिंदुत्व) में कोई फर्क नजर नहीं आता है।
हिंदू-विरोधी छवि
ऐसे सम्मेलनों के नकारात्मक प्रभाव होंगे। इसके
समर्थक मानते हैं कि इसे हिंदू-धर्म के खिलाफ अभियान नहीं मानना चाहिए, पर हिंदू-विरोधी छवि से बचने की इसमें कोई कोशिश नहीं थी। यह समझने
की जरूरत है कि बहुसंख्यक हिंदू-समाज इसे किस रूप में लेता है। यह बात कांग्रेस पर
लागू होती है। राहुल गांधी ने सीधे तौर पर कुछ कहने के बजाय इशारों में सलमान
खुर्शीद का पक्ष लेते हुए उन्होंने कहा, 'हिंदू धर्म और हिंदुत्व,
दोनों अलग-अलग बातें हैं। उन्होंने पूछा, हिंदुइज़्म
का मतलब क्या सिख या मुसलमान को पीटना है? राहुल जो भी
कहें, पर बहुसंख्यक हिंदू समुदाय न तो मॉब लिंचिंग का समर्थक है और न मुसलमानों का
विरोधी। उसके सवाल गैर-हिंदू कट्टरता से जुड़े हैं। राजनीतिक हिंदुत्व क्या बोको
हरम की तरह सैकड़ों लोगों की एक साथ हत्या कर रहा है? या
इस्लामिक स्टेट की तरह गर्दनें काट रहा है? उत्तर
भारत में जनाधार खोने के बाद कांग्रेस केरल में जड़ें जमा रही हैं। उसे मुस्लिम
समाज में आधार मिला है। तकरीबन ऐसा ही आधार पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को
और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को मिला है। यह राजनीति एकतरफा नहीं है और गहराई
तक ध्रुवीकरण को जन्म दे रही है। इस ध्रुवीकरण के पीछे केवल बीजेपी का हाथ नहीं है।
इस विषय पर लल्लनटॉप पर चर्चा
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