अफगानिस्तान की तालिबान सरकार एक बड़ी गलती करने से बच गई। नई सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह के लिए 11 सितम्बर की तारीख घोषित कर दी गई थी, जिसे बाद में रद्द किया गया। बताया जाता है कि चीन ने सलाह दी कि ऐसी गलती मत करना। फिर भी तालिबान ने उस रोज अपने राष्ट्रपति भवन पर तालिबानी झंडा फहरा कर नई सरकार के औपचारिक कार्यारम्भ की घोषणा की। यानी वे इस दिन से जुड़ी प्रतीकात्मकता को छोड़ेंगे नहीं। 9/11 का आतंकी हमला अमेरिका के इतिहास का काला दिन है। इस दिन शपथ-ग्रहण का मतलब था अमेरिका को साफ इशारा। चूंकि वह हमला अलकायदा ने किया था, इसलिए मतलब साफ था कि हम अलकायदा के साथ हैं। तालिबान और चीन अभी अमेरिका से पंगा लेना नहीं चाहेंगे।
ब्रिक्स सम्मेलन
अफगानिस्तान में कई तरह का धुँधलका है, जिसे
साफ होने में समय लगेगा। गत 9 सितम्बर को हुए ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन में
इस बात पर आम सहमति थी कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल वैश्विक आतंकवाद के लिए
नहीं होना चाहिए। सम्मेलन का घोषणापत्र हालांकि भारत की अध्यक्षता में जारी हुआ
है, पर इसे भारतीय विदेश-नीति की पूरी अभिव्यक्ति नहीं मान लेना चाहिए। आतंकवाद को
लेकर भारत और दूसरी तरफ रूस और चीन के दृष्टिकोणों में अंतर है और ब्रिक्स में इन
देशों का खासा प्रभाव है।
चीनी रवैया
यह बात पाँच साल पहले अक्तूबर 2016 में गोवा में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में स्पष्ट हो गई थी। लगभग उसी समय अमेरिका ने तालिबान के साथ गुपचुप सम्पर्क बना लिया था। सन 2018 को अमेरिका और कतर के प्रभाव से पाकिस्तान ने मुल्ला बरादर को जेल से रिहा कर दिया था। पाकिस्तान ने उन्हें 2010 में गिरफ्तार किया था। अमेरिका-पाकिस्तान-चीन-रूस रिश्तों की भावी रूपरेखा तभी से बनने लगी थी। गोवा ब्रिक्स सम्मेलन जिस साल हुआ उसी साल पठानकोट और उड़ी पर पाकिस्तानी हमले हुए थे और इस सम्मेलन के ठीक पहले भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक किया था।
पाकिस्तानी भूमिका
नरेन्द्र मोदी को उस सम्मेलन में पाकिस्तान के
खिलाफ आवाज बुलंद करने का मौका मिला। उन्होंने पाकिस्तान को आतंक का 'मदर-शिप' बताया था और यह भी कहा कि ‘ब्रिक्स’ को
इस खतरे के खिलाफ एक सुर में बोलना चाहिए। पर ब्रिक्स ने सुर नहीं मिलाया, बल्कि चीन
और रूस ने जो रुख अपनाया, उसका निष्कर्ष था कि वे हमारी समस्या
को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का हिस्सा नहीं मानते। चीन ने गोवा सम्मेलन के दौरान और
उसके बाद साफ-साफ पाकिस्तान के समर्थन में बयान दिए। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग
ने कश्मीर की ओर ध्यान खींचा। पुतिन ने आतंकवाद का जिक्र भी नहीं किया। सम्मेलन के
घोषणापत्र में आतंकवादी गिरोहों में लश्करे तैयबा और जैशे मोहम्मद के नाम नहीं थे।
अज़हर मसूद का नाम आतंकवादियों की सूची में शामिल होने से चीन रोक ही रहा था।
तालिबान का नाम नहीं
हालांकि ब्रिक्स के ताजा घोषणापत्र में आतंकवाद
का जिक्र है, पर न तो पाकिस्तानी संगठनों के नाम हैं और न तालिबान का नाम लिया गया
है। तालिबान का उल्लेख संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में भी नहीं है।
पर देखना होगा कि वैश्विक-मत इस सिलसिले में क्या है। चीन के मुकाबले रूस हमारे
ज्यादा करीब है, पर भारतीय विदेश-नीति की परीक्षा अब होगी। इसकी शुरुआत ब्रिक्स के
इस शिखर सम्मेलन से हुई है। इसी महीने होने वाले दो और कार्यक्रमों में यह ज्यादा
स्पष्ट होगी। भारत के सामने दो सवाल हैं। क्या हम तालिबान सरकार को मान्यता देंगे? मध्य,
पश्चिम और दक्षिण एशिया से लेकर हिंद-प्रशांत तक की हमारी नीति में क्या बदलाव आने
वाला है? भारतीय विदेश-विभाग के सूत्रों से पहले खबर आई थी कि ‘लोकतांत्रिक-ब्लॉक’ जो फैसला करेगा भारत उसके साथ जाएगा। ‘लोकतांत्रिक-ब्लॉक’ का मतलब है क्वॉड+यूरोप।
रूस से सम्पर्क
भारत की कोशिश रूस के साथ सम्पर्क बनाए रखने की
है। नरेंद्र मोदी और रूसी
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच 24 अगस्त को फोन पर हुई
वार्ता के बाद अफगानिस्तान के मुद्दे पर द्विपक्षीय चैनल बनाने पर सहमति बनी है।
जिस तरह तालिबान ने चीन के साथ सम्पर्क साधा है उसी तरह उन्होंने रूस के साथ भी
पिछले कुछ वर्षों से सम्पर्क बनाकर रखे हैं। अब देखना है कि भारत के साथ उनके
रिश्ते किस प्रकार के बनेंगे। इधर लग रहा है कि दोनों देशों ने आपसी रिश्तों को
बेहतर किया है। गत 3 सितम्बर को ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम (ईईएफ)
के व्लादीवोस्तक में हुए छठे शिखर सम्मेलन के भाषण में नरेंद्र मोदी ने कहा कि
भारत और रूस की मैत्री समय की कसौटी पर खरी उतरी है। इस वर्चुअल सम्मेलन में उनके
भाषण को राजनयिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। सवाल है कि क्या अमेरिका और
रूस के बीच समन्वय का काम भारत कर सकेगा?
बाइडेन की शी से वार्ता
शुक्रवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच फोन पर बातचीत हुई, जो 90 मिनट तक चली। करीब
सात महीने बाद पहली बार दोनों नेताओं के बीच बात ऐसे मौके पर हुई है, जब दुनिया
अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार कर रही है। इस बातचीत के दो दिन पहले बाइडेन ने
कहा था कि अफगानिस्तान में चीन अपने पैर फैलाना चाहता है। यह सही है कि अमेरिका इस
इलाके से हट रहा है, तो शून्य पैदा होगा। अमेरिका पहले से कहता रहा है कि भारत की
भूमिका अफगानिस्तान में होगी, पर वैसा तभी सम्भव था, जब वहाँ अशरफ ग़नी की सरकार
बचती।
चीन-तालिबान रिश्ते
यह बात पाकिस्तानी हितों के खिलाफ थी।
पाकिस्तान यहाँ चीन की उपस्थिति चाहता है। पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद
कुरैशी जुलाई के आखिरी हफ्ते में चीन गए और उसी दौरान तालिबानी नेता मुल्ला बरादर
भी चीन आए। उसी समय चीन की तरफ से कहा गया कि चीन और पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में
'संयुक्त कार्रवाई' करने
का फ़ैसला किया है। हालांकि चीन ने अभी अफगानिस्तान को मान्यता नहीं दी है, पर 3.1
करोड़ डॉलर की पहली सहायता की घोषणा चीन ने की है। देर-सबेर चीन-पाकिस्तान सहयोग
गलियारे ‘सीपैक’ में
अफगानिस्तान भी शामिल हो जाएगा। बावजूद इसके अफगानिस्तान के आर्थिक उत्थान की
कुंजी चीन या रूस के हाथ में नहीं है, बल्कि अमेरिका के हाथ में है। विश्व बैंक और
मुद्राकोष से सहायता उसे तभी मिलेगी, जब वह अमेरिका के साथ रिश्ते कायम करेगा।
मुलाकातों का
सिलसिला
पिछले हफ्ते रूस की
सुरक्षा परिषद के सचिव जनरल निकोल पात्रुशेव, अमेरिकी सीआईए के प्रमुख निकोलस
बर्न्स और ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई6 के प्रमुख रिचर्ड मूर दिल्ली आए और यहाँ
उच्चस्तरीय मुलाकातें कीं। दिल्ली में बैठक ऐसे मौके पर हुई है, जब तालिबान ने अंतरिम सरकार का एलान कर दिया है। आने
वाले दिनों में पीएम नरेंद्र मोदी क्वॉड शिखर सम्मेलन और शंघाई सहयोग संगठन की
बैठकों में हिस्सा लेने वाले हैं। नरेंद्र मोदी तीन दिन की अमेरिका-यात्रा पर जा
रहे हैं। उसी दौरान क्वॉड का शिखर सम्मेलन भी होगा। इससे पहले 16-17 सितम्बर को दुशान्बे में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का
शिखर सम्मेलन होने वाला है। एससीओ में भारत और पाकिस्तान दोनों सदस्य हैं, पर यह मूलतः
चीनी दबदबे वाला संगठन है। इसमें ईरान पर्यवेक्षक के रूप में आता है।
अफगानिस्तान के पड़ोसी
देशों में ईरान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के दृष्टिकोण पाकिस्तानी दृष्टिकोण
से फर्क हैं, पर चीन और पाकिस्तान का आपसी समन्वय है। आने वाले समय में
अफगानिस्तान से जुड़ी बहुत सी बातें इस महीने के अंत तक स्पष्ट होंगी। जहाँ तक
भारत की बात है देर-सबेर भारत नई सरकार को मान्यता दे सकता है, पर ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि वैश्विक राजनीति किस दिशा
में जाने वाली है। भारत ने पहले ही कहा कि जब लोकतांत्रिक ब्लॉक तालिबान को मान्यता
देगा, हम भी दे देंगे। लोकतांत्रिक देश चाहते हैं
कि अभी तालिबान के क्रिया-कलाप पर नजरें रखी जाएं। इस लिहाज से यह महत्वपूर्ण समय
है।
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