‘राजनीतिक हिन्दुत्व’ को लेकर दुनिया के 53 से ज्यादा विश्वविद्यालयों से जुड़े अकादमिक विद्वानों का एक वर्चुअल सम्मेलन 10 से 12 सितम्बर के बीच चल रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस सम्मेलन का आयोजन विश्वविद्यालयों के इन विभागों के सहयोग से हो रहा है। सम्मेलन को लेकर विवाद की एक लहर है, जो भारतीय राजनीति और समाज को जरूर प्रभावित करेगी। सम्मेलन का शीर्षक विचारोत्तेजक है। शीर्षक है, ‘ग्लोबल डिस्मैंटलिंग ऑफ ग्लोबल हिंदुत्व’ यानी वैश्विक हिंदुत्व का उच्छेदन। इस सम्मेलन के आलोचक पूछते हैं कि क्या आयोजक ऐसा ही कोई सम्मेलन ग्लोबल इस्लाम को लेकर करने की इच्छा रखते हैं? छोड़िए इस्लाम क्या वे डिस्मैंटलिंग कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चायना का आयोजन कर सकते हैं?
हिंदू और
हिंदुत्व का फर्क
सम्मेलन के आयोजक राजनीतिक हिंदुत्व और हिंदू धर्म के बीच सैद्धांतिक रूप से अंतर मानते हैं, पर भारतीय राजनीति में हिंदू और हिंदुत्व का अंतर किया नहीं जाता और व्यावहारिक रूप से हिंदुत्व के आलोचक भी हिंदू और हिंदुत्व के अंतर को अपनी प्रतिक्रियाओं में व्यक्त नहीं करते। बल्कि सम्मेलन के पहले ही दिन विमर्श में शामिल पैनलिस्ट मीना धंढा ने साफ कहा कि मुझे दोनों में कोई फर्क नजर नहीं आता है। बहरहाल इस सम्मेलन के नकारात्मक प्रभाव होंगे। इसके समर्थक मानते हैं कि इसे हिंदू धर्म के खिलाफ अभियान नहीं मानना चाहिए, पर इसके विरोधी सम्मेलन को हिंदू विरोधी मान रहे हैं।
इस आयोजन की तारीख 10 से 12 सितम्बर भी ध्यान
खींचती है। 11 सितम्बर को दुनिया का ध्यान अल कायदा के आतंकवाद की ओर जाता है, जो
अंततः एक धार्मिक आतंकवाद की ओर इशारा करता है। दूसरा संयोग यह है कि इस आयोजन
की घोषणा 15 अगस्त को हुई, जिस दिन काबुल पर तालिबान का कब्जा हुआ। वह तारीख
भारत की आजादी की तारीख भी है। क्या यह इस्लामिक आतंकवाद की तरफ से ध्यान हटाने की
कोशिश है? सम्मेलन के समर्थकों की इस बात को स्वीकार किया
जा सकता है कि जब राजनीतिक हिंदुत्व एक सच्चाई है, तो उसपर विचार के लिए सम्मेलन
के आयोजन में दिक्कत क्या है? परेशानी की बात है या नहीं, यह दीगर मसला
है। सम्मेलन किया है, तो उसके आयोजन के पीछे के इरादों पर टिप्पणियाँ होने से आपको
परेशानी क्या है? आपने विचार व्यक्त किए हैं, तो दूसरों को भी
अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है।
आयोजकों को धमकियाँ
इस बीच लंदन के अखबार द गार्डियन में एक खबर
छपी है कि सम्मेलन के आयोजकों को जान
से मारने की धमकियाँ दी गई हैं। कतर के मीडिया हाउस अल जज़ीरा की एक रिपोर्ट
के अनुसार हिंदू
जन-जागृति समिति नाम के एक संगठन ने यह धमकी दी है। इस संगठन पर 2017 में
पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या का आरोप है। धमकियों का समर्थन नहीं किया जा सकता। वह
आपराधिक कृत्य है और उसकी जाँच होनी चाहिए और धमकियाँ देने वालों पर नियमानुसार
कार्रवाई होनी चाहिए।
दूसरी तरफ सम्मेलन के प्रति विरोध-पत्रों को भेजने वाले
संगठनों में विश्व हिंदू परिषद ऑफ अमेरिका, कोलीशन ऑफ हिंदूज़ इन नॉर्थ अमेरिका और
हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन जैसी संस्थाओं के नाम हैं। इंडियन
एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार इन संगठनों ने अनेक विश्वविद्यालयों को 13
लाख ईमेल भेजे हैं कि आप इस सम्मेलन से खुद को अलग करें। धमकियों की खबर विचार के
एक बिन्दु से ध्यान हटाती है।
इसके विपरीत यदि इन विश्वविद्यालयों के पास
विरोध-पत्र जाते हैं या ई-मेल भेजे गए हैं, तो इसमें गलत क्या है? यह तो वैध और
लोकतांत्रिक गतिविधि है। कोलीशन ऑफ हिंदूज़ इन नॉर्थ अमेरिका का
कहना है कि यह सम्मेलन हिंदुओं को चरमपंथी विचारों का प्रवर्तक साबित करता है। इन
पत्रों को प्राप्त करने के बाद कुछ विश्वविद्यालयों ने जिनमें रटजर्स और डलहौजी
शामिल हैं, खुद को इस आयोजन से अलग कर लिया है और विश्वविद्यालय का लोगो इस्तेमाल
करने से मना किया है।
विमर्श का विषय बनाएं
हिंदू या राजनीतिक हिंदुत्व को लेकर बहस करने
या विश्वविद्यालयों में अकादमिक स्तर पर
विचार-विमर्श करने में कोई हर्ज नहीं है, बल्कि इसे जरूर होना चाहिए, पर उसे
राजनीतिक एजेंडा के रूप में सामने नहीं आना चाहिए। राजनीतिक एजेंडा राजनीतिक दलों
का काम है। आप अकादमिक लोग हैं, तो अकादमिक तरीके से बात करें। इस विषय को लेकर
आपत्ति नहीं होती यदि इन विश्वविद्यालयों ने डिस्मैंटलिंग इस्लामिज़्म या इवैंजिलिज़्म
को कैसे उखाड़ें जैसे विषयों पर भी सम्मेलन किए होते। स्वराज्य मैगज़ीन के सम्पादक
आर
जगन्नाथन ने लिखा है कि इन्हें पोलिटिकल इस्लाम, पोलिटिकल क्रिश्चियैनिटी और
पोलिटिकल बुद्धिज़्म स्वीकार है, पोलिटिकल हिंदुइज़्म नहीं। हिंदुओं के जातीय
भेदों को कम करते हुए उन्हें एकताबद्ध करने के प्रयासों को आप गलत मानते हैं।
सम्मेलन के लिए जो प्रतीक चित्र बनाया गया है,
उसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ स्वयं सेवकों की कतार दिखाई गई है, जिनमें
से एक को एक हथौड़े
की उल्टी ओर से उखाड़ते हुए दिखाया गया है, जैसे कील को उखाड़ते हैं। यह संघ
की विचारधारा का वैचारिक आधार पर विरोध नहीं है, बल्कि वैसा ही है जैसे हिटलर का
यहूदियों को निशाना बनाना।
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