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Friday, July 16, 2021

सवालों के घेरे में अफगानिस्तान और भारतीय विदेश-नीति की परीक्षा


अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के साथ ही तालिबान हिंसा के सहारे फिर से अपने पैर पसार रहा है। करीब बीस साल से सत्ता से बाहर रह चुके इस समूह की ताकत क्या है, उसे हथियार कौन दे रहा है और उसका इरादा क्या है, और अफगानिस्तान क्या एकबार फिर से गृहयुद्ध की आग में झुलसने जा रहा है? क्या अफगानिस्तान में फिर से कट्टरपंथी तालिबानी-व्यवस्था की वापसी होगी, जिसमें नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार शून्य थे? स्त्रियों के बाहर निकलने पर रोक और उनकी पढ़ाई पर पाबंदी थी। उन्हें कोड़े मारे जाते थे। पिछले बीस वर्षों में वहाँ व्यवस्था सुधरी है। कम से कम शहरों में लड़कियाँ पढ़ने जाती हैं। काम पर भी जाती हैं। उनके पहनावे को लेकर भी पाबंदियाँ नहीं हैं।

हम क्या करें?

ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब पाने की हमें कोशिश करनी चाहिए, पर फिलहाल हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल है कि इस घटनाक्रम से भारत के ऊपर क्या प्रभाव पड़ने वाला है और हमें करना क्या चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान बुनियादी तौर पर पाकिस्तान की देन हैं। अस्सी के दशक में पाकिस्तानी मदरसों ने इन्हें तैयार किया था और उसके पीछे अफगानिस्तान को पाकिस्तान का उपनिवेश बनाकर रखने का विचार है। पिछले बीस वर्षों में अफगानिस्तान सरकार ने अपने देश को पाकिस्तान की भारत-विरोधी गतिविधियों का केंद्र बनने से रोका है। भारत ने इस दौरान करीब तीन अरब डॉलर की धनराशि से वहाँ के इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए प्रयास किए हैं। भारत ने वहाँ बाँध, पुल, सड़कें, रेल लाइन, पुस्तकालय और यहाँ तक कि देश का नया संसद भवन भी बनाकर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं।

इन सबकी तुलना में ईरान के चाबहार के रास्ते मध्य एशिया तक जाने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की आधार-शिला भी भारत ने डाली है। यह कॉरिडोर चीन और पाकिस्तान के सी-पैक के समानांतर होगा और यह अंततः हमें यूरोप से सीधा जोड़ेगा। चूंकि पाकिस्तान ने सड़क के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से भारत को जोड़ने की योजनाओं में अड़ंगा डाल रखा है, इसलिए यह एक वैकल्पिक-व्यवस्था थी। दुर्भाग्य से अमेरिका और ईरान के बिगड़ते रिश्तों के कारण इस कार्यक्रम को आघात लगा है। पाकिस्तान की कोशिश लगातार भारतीय हितों को चोट पहुँचाने की रही है और अब भी वह येन-केन प्रकारेण चोट पहुँचाने का प्रयास कर रहा है।

रूस और चीन की भूमिका

अफगानिस्तान में इस समय वैश्विक स्तर पर दो धाराएं सक्रिय हैं। एक है अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों की और दूसरी रूस और चीन के नेतृत्व में मध्य एशिया के देशों की। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान में चीन अब ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए। उसकी आड़ में उसे अपनी गतिविधियाँ चलाने का मौका मिलेगा। चीन चाहता है कि उसके शिनजियांग प्रांत में सक्रिय वीगुर उग्रवादी अफगानिस्तान में सक्रिय न होने पाएं। पाकिस्तान ने पिछले दो वर्षों में चीन और तालिबान के बीच तार बैठाए हैं। चीन ने अफगानिस्तान में पूँजी निवेश का आश्वासन भी दिया है।

चीन ने रूस में भी पूँजी निवेश किया है और वह रूसी पेट्रोलियम भी खरीद रहा है, जिसके कारण रूस का झुकाव चीन की तरफ है। अमेरिका के साथ रूसी रिश्ते भी बिगड़े हैं, जिस कारण से ये दोनों देश करीब हैं। इसके अलावा रूस इस बात को भूल नहीं सकता कि अस्सी के दशक में अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूसी कब्जे के खिलाफ लड़ाई में मुजाहिदीन का साथ दिया था। उधर अमेरिकी शक्ति क्षीण हो रही है। वह अफगानिस्तान से हटना चाहता है। पिछले दो साल से वह तालिबान के साथ बातचीत चला रहा था। इस बातचीत के निहितार्थ को समझते हुए रूस और चीन ने भी तालिबान के साथ सम्पर्क स्थापित किया था। इसका ज्यादा स्पष्ट रूप अब हमें देखने को मिल रहा है।

अस्सी के दशक में भारत और रूस के रिश्ते बेहतर थे, अब हम अमेरिका के करीब हैं। इस साल 18 मार्च को मॉस्को में अफगानिस्तान को लेकर एक बातचीत हुई, जिसमें रूस, चीन, अमेरिका की तिकड़ी के अलावा पाकिस्तान, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें भारत को नहीं बुलाया गया, जबकि फरवरी 2019 में हुई मॉस्को-वार्ता में भारत भी शामिल हुआ था। बहरहाल कई कारणों से रूस अब भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता। पर भारत को हाशिए पर रखने की पाकिस्तानी कोशिशें लगातार जारी हैं।

चीन और रूस ने सन 2001 में अफगानिस्तान में अल-कायदा के खिलाफ की गई अमेरिकी कार्रवाई का विरोध नहीं किया था। अलबत्ता वे इस इलाके में अमेरिकी सेना की लम्बी उपस्थिति से परेशान थे। चीन अब अंतरराष्ट्रीय-व्यवस्था को चलाए रखने के लिए एक वैकल्पिक मॉडल देने का प्रयास कर रहा है। देखना यह है कि उसके पास पूँजी की ताकत कितनी है। अमेरिका के अपमानित होने से इन देशों को संतोष जरूर होगा, पर भविष्य की व्यवस्था के बारे में भी उन्हें सोचना होगा। चीन और रूस नहीं चाहेंगे कि अफगानिस्तान आतंकवाद की नर्सरी बने। ईरान को तालिबानी सुन्नी कट्टरपंथ नहीं भाएगा। पाकिस्तान के साथ भी अफगानिस्तान राष्ट्रीय-हित टकराते हैं।

विदेशमंत्री की पहल

गत 13 और 14 जुलाई को ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में जो विचार व्यक्त किए गए हैं, उनसे इतना जरूर लगता है कि ये देश भी चाहते हैं कि अफगानिस्तान में फिर से अराजक स्थितियाँ पैदा नहीं होनी चाहिए। लगता यह भी है कि तालिबान ने इन देशों के हितों की रक्षा करने में सहयोग करने का आश्वासन दिया है। सम्मेलन में भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा कि अफगानिस्तान का भविष्य वैसा नहीं हो सकता, जैसा अतीत रहा है। यानी कि सन 2001 के पहले के तालिबानी अफगानिस्तान की वापसी नहीं होनी चाहिए।

विदेशमंत्री की इस दौरान रूसी और चीनी विदेशमंत्रियों से भी मुलाकात हुई। उन्होंने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ ग़नी से भी मुलाकात की। यह  मुलाकात उज्बेकिस्तान के ताशकंद में हुई। विदेशमंत्री ताशकंद कनेक्टिविटी सम्मेलन में भाग लेने के लिए उज्बेकिस्तान पहुंचे थे। यानी कि भारत ने काफी तेजी से राजनयिक गतिविधियों में भाग लिया है। मॉस्को यात्रा पर गए विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि अंततः सबसे महत्वपूर्ण मसला यह है कि अफगानिस्तान में किसका शासन होगा। अमेरिका और पश्चिम के दूसरे देशों ने भी कहा है कि अफगानिस्तान में ताकत के जोर पर सरकार बनाने की कोशिशों को स्वीकार नहीं किया जाएगा, पर सवाल है कि वे करेंगे क्या? दुबारा तो वहाँ अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई होगी नहीं।

तालिबान से सम्पर्क

कहा जा रहा है कि भारत ने तालिबान के साथ सम्पर्क बनाने में देरी की है। भारत ने पहले हामिद करज़ाई और फिर अशरफ गनी पर पूरा भरोसा जताया। दूसरी तरफ जब करज़ाई और ग़नी ने तालिबान से बात शुरू की, तो भारत ने शुरू में हिचक दिखाई। तालिबान को आधिकारिक रूप से भारत ने कभी मान्यता नहीं दी। हमारे विदेश मंत्रालय ने तालिबान के साथ वार्ता की पुष्टि कभी नहीं की लेकिन उन रिपोर्टों से इनकार भी नहीं किया, जिनमें कहा गया था कि भारत तालिबान के कुछ गुटों के साथ बातचीत कर रहा है। भारत ने तालिबान के साथ सीधी बातचीत इसलिए भी नहीं की क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में भारत तालिबान को मददगार और ज़िम्मेदार मानता रहा है।

इन दिनों फिर खबरें सुनाई दी हैं कि भारत ने अफगानिस्तान पर जो सलमा बाँध बनाया है, उसपर हमला हुआ है। तालिबान के साथ बात न करने की एक और वजह यह भी रही है कि ऐसा करने से अफ़ग़ानिस्तान सरकार के साथ हमारे रिश्तों में कड़वाहट आ सकती थी जो काफ़ी अच्छे रहे हैं। आज बड़ा सवाल यह है कि हम अफ़ग़ानिस्तान में अपने निवेशों की रक्षा कैसे करेंगे। हम यही चाहेंगे कि वहाँ राजनीतिक समझौता हो। किसी की एकतरफा जीत नहीं हो। थोड़ी देर के लिए मान लें कि वहाँ तालिबान की एकतरफा जीत हो गई, तो सरकार चलाना उसके लिए भी आसान नहीं होगा। वस्तुतः उसकी निर्णायक जीत सम्भव नहीं है।

भारत को लगता रहा है कि तालिबानी पाकिस्तान के हाथों में खेल रही कठपुतलियाँ हैं। ऐसा भी नहीं है, बल्कि तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि हम भारतीय हितों को चोट नहीं लगने देंगे। पाकिस्तान में काफी लोग अफगानिस्तान को अपने उपनिवेश के रूप में मानते हैं, पर अफगान लोग स्वतंत्र समझ वाले हैं। उम्मीद है कि वे पाकिस्तानियों के बहकावे में नहीं आएंगे।

फिलहाल लगता है कि पाकिस्तान और चीन के गठबंधन को फौरी तौर पर अफगानिस्तान में बढ़त मिलेगी। भारत का रास्ता बंद नजर आता है।  अमेरिकी उपस्थिति के कारण अफगानिस्तान में जो स्थिरता थी, उसका लाभ अब हमें नहीं मिलेगा। खतरा यह भी है कि वहाँ भारत-विरोधी गतिविधियों को फिर से बढ़ावा मिले। नब्बे के दशक में कश्मीर में आतंकवाद की लहर के पीछे अफगानिस्तान के मुजाहिदीन थे, जिन्हें पाकिस्तान लेकर आया था। क्या हम भूल सकते हैं कि सन 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान के अपहरण में तालिबान ने पाकिस्तान की मदद की थी। पाकिस्तानी अपहर्ताओं ने कंधार जाकर तालिबानी विदेशमंत्री की सहायता से मौलाना मसूद अज़हर, अहमद उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद ज़रगर को रिहा कराया था। 

तालिबान पर भरोसा?

खबर है कि तालिबान ने पकड़े गए 7,000 लड़ाकों की रिहाई के बदले अफ़ग़ानिस्तान में तीन महीने के संघर्ष विराम का प्रस्ताव रखा है। क्या इनकी रिहाई होगी? और क्या तालिबान पर भरोसा किया जाना चाहिए? शांति-वार्ता के दौरान भी तालिबान ने हिंसा से हाथ खींचने का आश्वासन दिया था, पर पिछले दो साल हिंसा होती रही। और अब भी हो रही है। तालिबान ने दावा किया है कि उसके लड़ाकों ने अफगानिस्तान में 85 फीसदी क्षेत्र को अपने कब्ज़े में ले लिया है।

यह बात सच भी हो सकती है, पर उससे ज्यादा बड़ा सच यह है कि अफगानिस्तान सरकार का पूरे देश पर नियंत्रण कभी था ही नहीं। अभी उसके पास न तो इतनी मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था है और न सेना इतनी बड़ी है कि पूरे देश को काबू में रखा जा सके। इस समय भी सरकार तालिबानियों को रोकने की कोशिश करती दिखाई नहीं पड़ रही है। शायद वह अपनी ताकत को बनाए रखना चाहती है। साथ ही उसे दोहा में चल रही बातचीत के परिणाम का इंतजार है। सरकार को अब भी लगता है कि तालिबानियों के साथ साझा सरकार बनाने का राजनीतिक समझौता हो जाएगा।

अमेरिका और पश्चिमी देश क्या अफगानिस्तान को यों ही छोड़कर चले जाएंगे? तालिबान क्या इतने ताकतवर है कि वे हिंसा के बल पर देश पर कब्जा कर लेंगे? अफगानिस्तान सरकार के पास तालिबानी लड़ाकों की तुलना में चार-पाँच गुना ज्यादा सैनिक हैं और वायुसेना भी है। वह लड़ने पर उतारू हो, तो तालिबान के लिए आसान नहीं होगा। क्या देश अराजकता की ओर बढ़ रहा है? विशेषज्ञों का कहना है कि 1990 के दशक के मुकाबले आज का तालिबान कहीं ज़्यादा बँटा हुआ है। वह ज़मीनी स्तर पर कब्जे की कहानियाँ इसलिए फैला रहा है, ताकि दोहा-वार्ता में मोल-भाव की ताकत बढ़े। इसमें काफी बातें प्रचार का हिस्सा हैं, जिसका सूत्रधार पाकिस्तान है।

तालिबानी आदेश

समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार, उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के एक सुदूर क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के बाद कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन तालिबान ने अपना पहला आदेश जारी किया जिसमें कहा गया है कि ‘महिलाएं किसी पुरुष के साथ बाज़ार नहीं जा सकतीं, पुरुष दाढ़ी नहीं काट सकते और न धूम्रपान कर सकते हैं।’ एजेंसी ने कुछ स्थानीय लोगों के हवाले से यह ख़बर दी है। इन लोगों का कहना है कि तालिबान ने स्थानीय इमाम को ये सभी शर्तें एक पत्र में लिखकर दी हैं। साथ ही कहा गया है कि इस आदेश को ना मानने वालों से सख्ती से निपटा जाएगा।

इस आदेश में अफ़ग़ान सरकार से कहा गया है कि “ आप अपने सैनिकों से आत्मसमर्पण करने को कहे” क्योंकि तालिबान शहरों में लड़ाई नहीं लड़ना चाहता। पिछले महीने, अफ़ग़ानिस्तान के शेर ख़ाँ बांदेर क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के बाद तालिबान ने स्थानीय लोगों को आदेश दिया था कि ‘महिलाएं घर से बाहर न निकलें।’ इसके बाद कई रिपोर्टें आईं जिनमें कहा गया कि शेर ख़ाँ बांदेर क्षेत्र की बहुत सी महिलाएं कशीदाकारी, सिलाई-बुनाई और जूते बनाने के काम में शामिल हैं, लेकिन सभी को तालिबान के डर से काम बंद करना पड़ा है। जानकार बताते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान मूल रूप से रूढ़िवादी देश है जिसके कुछ ग्रामीण हिस्सों में बिना तालिबान की मौजूदगी के ही ऐसे नियम माने जाते हैं। 

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