इस हफ्ते 24 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कश्मीरी नेताओं की वार्ता ने न केवल जम्मू-कश्मीर में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता की सम्भावनाओं का द्वार खोला है। इस बातचीत के सही परिणाम मिलेंगे या नहीं, यह भी कहना मुश्किल है, पर कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के शब्दों में यह ‘सही दिशा में उठाया गया कदम’ है। कश्मीर में लोकतांत्रिक-प्रक्रिया की प्रक्रिया शुरू होने के साथ दूसरी प्रक्रियाएं शुरू होंगी, जिनसे हालात को सामान्य बनाने का मौका मिलेगा। इनमें सांस्कृतिक, शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियाँ शामिल हैं।
पहले
परिसीमन
सरकार ने जो रोडमैप दिया है उसके अनुसार राज्य में पहले परिसीमन, फिर चुनाव और उसके बाद
पूर्ण राज्य का दर्जा देने की प्रक्रिया होगी। पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर
पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि राज्य में परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद
चुनाव होंगे। उसके पहले अगस्त 2019 में गृहमंत्री अमित साह ने संसद में कहा था कि
समय आने पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा। वस्तुतः यह कश्मीर
के नव-निर्माण की प्रक्रिया है।
सन 2019 में संसद से जम्मू-कश्मीर
पुनर्गठन विधेयक के पारित होने के बाद मार्च 2020 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग को
रिपोर्ट सौंपने के लिए एक साल का समय दिया गया था, जिसे इस साल मार्च में एक साल
के लिए बढ़ा दिया गया है। 6 मार्च, 2020 को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त
न्यायाधीश जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में आयोग का गठन किया था।
प्रधानमंत्री के साथ बातचीत का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि पूरी बातचीत में बदमज़गी पैदा नहीं हुई। बैठक में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री ऐसे थे, जो 221 दिन से 436 दिन तक कैद में रहे। उनके मन में कड़वाहट जरूर होगी। वह कड़वाहट इस बैठक में दिखाई नहीं पड़ी। बेशक बर्फ पिघली जरूर है, पर आगे का रास्ता आसान नहीं है।
अटलजी
का अनुभव
इस बातचीत के पहले
देश के प्रधानमंत्री के साथ कश्मीरी नेताओं की वार्ता का एक उदाहरण और है। 23
जनवरी 2004 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कश्मीर के
(हुर्रियत के) अलगाववादी नेताओं की बात हुई थी। उस बातचीत के नौ महीने पहले अटल जी
ने श्रीनगर की एक सभा में ‘इंसानियत,
जम्हूरियत और कश्मीरियत’ का संदेश दिया
था। अटलजी की उस बातचीत के बाद सम्भावनाएं बनी थी कि हुर्रियत भी मुख्यधारा की
राजनीति में शामिल होकर चुनाव में भाग लेने लगेगी।
अगस्त 2002 में हुर्रियत के नरमपंथी धड़ों के साथ अनौपचारिक
वार्ता एक बार ऐसे स्तर तक पहुँच गई थी कि 2004 के विधानसभा
चुनाव में हुर्रियत के हिस्सा लेने की सम्भावनाएं तक पैदा हो गईं। और उस पहल के
बाद मीरवाइज़ उमर फारूक और सैयद अली शाह गिलानी के बीच तभी मतभेद उभरे और हुर्रियत
दो धड़ों में बँट गई। तब सरकार हुर्रियत की काफी शर्तें मानने को तैयार थी, फिर भी समझौता
नहीं हुआ। इतना ज़ाहिर हुआ कि अलगाववादी खेमे के भीतर भी मतभेद हैं।
370 का दबाव खत्म
आज भारत सरकार का रुख बदला हुआ है। तब उस प्रक्रिया को पाकिस्तान-परस्त
ताकतों ने धक्का पहुँचाया था। बावजूद इसके सन 2004 में
एक अरसे बाद शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव हुए थे। आज कश्मीरी मुख्यधारा की
राजनीति के सामने भी अस्तित्व का संकट है और दिल्ली में जो सरकार है, वह कड़े
फैसले करने को तैयार हैं। सन 2002 में 370 का दबाव था। आज वह दबाव भी नहीं है। हुर्रियत
के ज्यादातर नेता कैद हैं, पर देर-सबेर वे बाहर आएंगे। बेहतर हो कि वे भी चुनाव
में हिस्सा लें। हुर्रियत के साथ औपचारिक रूप से बातचीत तभी संभव होगी, जब वह भारतीय
संविधान को स्वीकार करे।
जिन दलों के साथ अभी बातचीत हुई है, वे भारतीय संविधान के दायरे में बात
करते हैं। हालात को सुधारने में पाकिस्तान की भूमिका भी है। भारत-द्वेष की कीमत भी
उन्हें चुकानी होगी। सन 1965 के बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर को जबरन हथियाने का जो
कार्यक्रम शुरू किया है, उसकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच गई है। इस
हफ्ते की खबर है कि एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट से उसे अभी मुक्ति नहीं मिलेगी। पाकिस्तान
का यह हाल उसकी कश्मीर-नीति की देन है।
क्षेत्रीय सहयोग
भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार
यदि एक प्लेटफॉर्म पर आकर आर्थिक सहयोग करें तो यह क्षेत्र चीन की तुलना में कहीं
ज्यादा तेजी से विकास कर सकता है। यह सपना है, जो आसानी से साकार हो सकता है। इसके
लिए सभी पक्षों को समझदारी से काम करना होगा।
गत 18 फरवरी को नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय
सहयोग योजना का जिक्र किया था। उन्होंने कहा था कि 21 वीं सदी को
एशिया की सदी बनाने के लिए अधिक एकीकरण महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान सहित दस पड़ोसी
देशों के साथ ‘कोविड-19 प्रबंधन, अनुभव और आगे बढ़ने का रास्ता’ विषय पर एक कार्यशाला में उन्होंने यह बात
कही। उस वक्तव्य के एक हफ्ते बाद 25 फरवरी को भारत और पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा
पर युद्धविराम की घोषणा की
थी। यानी कि पाकिस्तान के साथ पृष्ठभूमि में जो बातचीत चल रही है, उसका असर भी है।
बहरहाल पहले परिसीमन
होगा, उसके बाद चुनाव होंगे। उसके बाद ही पूर्ण राज्य के
दर्जे की वापसी होगी। गृहमंत्री अमित शाह ने भी कहा कि हम चुनाव और राज्य का दर्जा
देने को वचनबद्ध हैं। इसके साथ ही उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व में बनी एक
समिति कैदियों के मामलों की समीक्षा करेगी।
परिसीमन में समय
लगेगा, पर शेष लोकतांत्रिक-प्रक्रियाएं तो चल ही सकती हैं। इन राजनीतिक दलों को भविष्य की भूमिका के लिए
तैयार होना चाहिए। राज्य में पंचायत और जिला विकास परिषद के चुनाव हो चुके हैं।
राजनीति की एक नई सतह तैयार हुई है। फारूक अब्दुल्ला सहित नेशनल कांफ्रेंस के तीन
सांसदों ने, जिन्होंने परिसीमन
आयोग की बैठकों का बहिष्कार किया था, संकेत दिया है कि वे अब कार्यवाही में शामिल होंगे। फारूक अब्दुल्ला
ने श्रीनगर वापस जाकर कहा है कि परिसीमन के बाद पहले राज्य बनाइए और फिर चुनाव
कराइए। उधर पूर्व मुख्यमंत्री मुज़फ्फर बेग का सुझाव है कि कश्मीर को अनुच्छेद 371
के तहत विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए। यह विचारणीय सुझाव है।
जम्मू
का प्रभाव बढ़ेगा
जस्टिस देसाई के
अलावा चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और जम्मू-कश्मीर राज्य के चुनाव आयुक्त केके
शर्मा आयोग के सदस्य हैं। आयोग के पाँच सहायक सदस्यों में पीएमओ के राज्यमंत्री
जितेन्द्र सिंह और भाजपा के जुगल किशोर शर्मा के अलावा फारूक अब्दुल्ला, मोहम्मद
अकबर लोन और हसनैन मसूदी भी हैं। अभी तक ये इसकी बैठकों में नहीं आ रहे थे। अब आशा
है कि ये बैठक में शामिल होंगे।
लद्दाख की चार सीटों
को अलग कर दें, तो पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र की सीटों को मिलाकर इस समय की राज्य
में विधानसभा सदस्यों की संख्या 107 बनती है, जो जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के
अंतर्गत 111 हो जाएगी। बढ़ी हुई सीटों का लाभ जम्मू क्षेत्र को मिलेगा। इससे नई
विधानसभा में जन-प्रतिनिधित्व का संतुलन भी स्थापित होगा। अनुच्छेद 370 के हटने के
पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सीटों की संख्या 87 थी, जिसमें जम्मू क्षेत्र की 37, घाटी की 46
और लद्दाख की चार सीटें थीं। इनके अलावा 24 सीटें पाकिस्तान-अधिकृत क्षेत्र के नाम
पर हमेशा खाली रहती थीं। जम्मू की सीटें बढ़ने से विधानसभा का झुकाव पूरी तरह घाटी
की ओर नहीं रहेगा।
जहां तक लोकसभा
सीटों का सवाल है, जम्मू-कश्मीर
के लिए परिसीमन अन्य राज्यों के साथ हुआ, लेकिन विधानसभा सीटों का सीमांकन जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार हुआ था। अनुच्छेद 370 हटने के
कारण सारी व्यवस्था अब भारतीय संविधान के
अनुसार होगी। राज्य में अंतिम परिसीमन 1995 में जस्टिस केके गुप्ता की अध्यक्षता
में हुआ था। उसके आधार पर 1996 में विधानसभा चुनाव हुए थे। आतंकी गतिविधियों के
कारण 1991 की जनगणना नहीं हो पाई थी।
सन 2001 में जनगणना
हुई, पर 2005 का परिसीमन नहीं हुआ, क्योंकि 2002 में फारूक अब्दुल्ला सरकार ने
जम्मू कश्मीर जन-प्रतिनिधित्व कानून-1957 में संशोधन करके परिसीमन को 2026 तक के
लिए फ़्रीज़ कर दिया था। उधर राष्ट्रीय स्तर पर सन 2002 में संविधान के 84वें
संशोधन के बाद परिसीमन को 2026 तक के लिए रोक दिया गया। इसलिए अब केवल
जम्मू-कश्मीर में परिसीमन हो रहा है।
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