इस साल जबसे दुनिया में कोरोना वैक्सीनेशन शुरू हुआ है, गरीब और अमीर देशों के बीच का फर्क पैदा होता जा रहा है। अमीर देशों में जहाँ आधी आबादी को टीका लग गया है, वहीं बहुत से गरीब देशों में टीकाकरण शुरू भी नहीं हुआ है। वैक्सीन उपभोक्ता सामग्री है, जिसकी कीमत होती है। गरीबों के पास पैसा कहाँ, जो उसे खरीदें। विश्व व्यापार संगठन के ट्रेड रिलेटेड इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (ट्रिप्स) इसमें बाधा बनते हैं। दवा-कम्पनियों का कहना है कि अनुसंधान-कार्यों को आकर्षक बनाए रखने के लिए पेटेंट जरूरी है।
भारत और दक्षिण
अफ्रीका ने पिछले साल अक्तूबर में विश्व व्यापार संगठन में कोरोना वैक्सीनों को पेटेंट-मुक्त करने की पेशकश की थी। इसे करीब 100
देशों का समर्थन हासिल था। हालांकि अमेरिका ने केवल कोरोना-वैक्सीन पर एक सीमित
समय के लिए छूट देने की बात मानी है, पर वैक्सीन कम्पनियों को इसपर आपत्ति है।
यूरोपियन संघ ने भी आपत्ति व्यक्त की है।
ब्रिक्स
भी आगे आया
इस महीने ब्रिक्स
देशों के विदेशमंत्रियों के एक सम्मेलन में भारत और दक्षिण अफ्रीका के उस प्रस्ताव
का समर्थन किया गया, जिसमें गरीब देशों के वैक्सीन देने, उनकी तकनीक के हस्तांतरण
और उत्पादन की क्षमता के विस्तार में सहायता देने की माँग की गई है, ताकि इन देशों
में भी बीमारी पर जल्द से जल्द काबू पाया जा सके।
यह पहला मौका है, जब ब्रिक्स देशों ने इस मामले में एक होकर अपनी राय व्यक्त की है। हालांकि अमेरिका ने शुरूआती झिझक के बाद इस सुझाव को मान लिया है, पर यूरोपियन यूनियन ने इसे स्वीकार नहीं किया है। ईयू ने गत 4 जून को डब्लूटीओ को एक प्रस्ताव दिया है, जिसके तहत टीकों के वैश्विक वितरण में तेजी लाने का सुझाव है, पर उसमें लाइसेंस से जुड़े नियमों में छूट देने की सलाह नहीं है।
यूरोपीय संघ ने
प्रस्तावित कोविड-19 वैक्सीन के वास्तविक मुद्दे को संबोधित करने के बजाय, पेटेंट पूल के विषय को लाकर मुद्दे को
भटकाने की रणनीति अपनाई है। इसके पहले सन 2003 में डब्लूटीओ ने गरीब देशों के
हितों की रक्षा के लिए दवाओं के मामले में अपने कुछ नियमों में बदलाव किया था।
सुस्त
प्रक्रिया
डब्लूटीओ की
निर्णय-प्रक्रिया बहुत सुस्त है। उसे फैसला करने में ही महीनों लगेंगे। दुनिया के
गरीब देशों के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट वैक्सीन प्राप्ति का है। भारत समेत
विकासशील देशों का कहना है कि यह वैश्विक आपदा है। इस खास अवसर पर वैक्सीनों और
महामारी से जुड़ी दवाओं को पेटेंट-मुक्त करने की माँग की जा रही है।
शुरू में अमेरिका ने
इस माँग का समर्थन नहीं किया था, पर बाद में डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर से यह
माँग उठने पर मई में जो बाइडेन ने इस माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। अब यह प्रस्ताव फिर से डब्लूटीओ के सामने गया है। इसके
प्रस्तावकों में भारत भी शामिल है। अक्तूबर में जब भारत और दक्षिण अफ्रीका ने यह
प्रस्ताव रखा था, तब अमेरिका के केंटकी राज्य का उदाहरण दिया था, जहाँ के गवर्नर
एंडी बैशेयर ने एन-95 रेस्पिरेटरों की कमी होने पर उसके निर्माताओं से कहा
था कि वे उत्पादन बढ़ाने के लिए उसे पेटेंट-मुक्त कर दें।
हालांकि आपातकाल में
सरकारों के पास कम्पनियों को किसी उत्पाद का पेटेंट न होने पर भी उसे बनाने की
अनुमति देने का अधिकार होता है, पर वह लम्बी प्रक्रिया है और उसमें कानूनी
दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। पेटेंट-मुक्ति पहला कदम है। उसके बाद भी बहुत से देशों
में वैक्सीन नहीं बन पाएगी, क्योंकि उनके पास तकनीकी जानकारी नहीं है। सुझाव है कि
अमेरिका वैक्सीन का जखीरा जमा करने के बजाय दूसरों को दे। ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम,
फ्रांस, जापान और ब्रिटेन जैसे देश वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाएं और गरीबों को दें।
बढ़ता
कारोबार
वैक्सीनों का वैश्विक
बाजार सन 2019 में 41.7 अरब डॉलर का था, जिसके सन 2024 तक 58 अरब डॉलर तक पहुँचने
की उम्मीद है। यह पारम्परिक अनुमान है, वास्तविक रूप से इस समय शायद यह 70 अरब से ऊपर जा चुका है। इस कारोबार के विकास की
गति बहुत तेज है। कोविड-19 की वैक्सीनों के कारण शायद यह अनुमानों से कहीं ज्यादा बड़ा हो जाएगा।
तेज टीकाकरण के लिए
जरूरी है, वैक्सीनों का तेज उत्पादन। इस गति को कुछ कारोबारी नियम रोकते हैं।
पूँजी निवेश और वैक्सीन के लिए आवश्यक कच्चे माल के अलावा सबसे बड़ी बाधा इससे
जुड़े बौद्धिक सम्पदा अधिकार हैं, जिसके कारण इनका उत्पादन हर जगह सम्भव नहीं है।
नब्बे के दशक में
वैश्वीकरण की शुरुआत 1986-94 के बीच चले उरुग्वाय राउंड के बाद हुई थी। इसमें
ट्रेड रिलेटेड इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (ट्रिप्स) पर पहली बार दुनिया के
देशों के बीच समझौता हुआ था। इस समझौते का विनियमन विश्व-व्यापार संगठन (डब्लूटीओ)
के मार्फत होता है। इस कारोबारी समझौते के समांतर नब्बे के दशक में ही दुनिया में
गरीबी के खात्मे के प्रयास भी शुरू हुए हैं।
खुशहाली
का सपना
संयुक्त राष्ट्र,
विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के लक्ष्य एक जगह पर जाकर मिलते हैं। लक्ष्य है
खुशहाल, स्वस्थ, समृद्ध और इंसाफ-परस्त दुनिया। हम संरा के संधारणीय विकास
लक्ष्यों पर काम कर रहे हैं, जिन्हें 2030 तक हासिल करना है। इसके पहले संरा ने
2015 तक मानव विकास के जो लक्ष्य रखे थे, वे पूरे नहीं हुए। संधारणीय विकास के लक्ष्य
कुछ दूर हैं, क्या उनके पहले हम वैश्विक टीकाकरण कर पाएंगे?
टीकों का विकास करने वाली कम्पनियाँ पेटेंट-अधिकारों में ढील देना नहीं चाहतीं।
कमाई का यह बेहतरीन मौका है। टीकों पर शोध
करने वाली कुछ बड़ी कम्पनियाँ हैं: एस्ट्राजेनेका,
फायज़र, सनोफी, नोवावैक्स, मॉडर्ना, साइनोवैक बायोटेक, जॉनसन एंड जॉनसन, सिमवाइवो,
शंघाई फोसन, कैनसीनो बायलॉजिक्स, क्योरवैक, आर्कटरस थिरैप्टिक्स। तीन भारतीय
कम्पनियाँ कैडिला हैल्थकेयर, सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक भी इस सूची में
शामिल हैं।
बड़ी संख्या में
दूसरी कम्पनियाँ टीकों का विकास करने में लगी हैं। फिलहाल बीमारी पर काबू पा लें,
तब भी टीकों की जरूरत भविष्य में होगी। इन कम्पनियों को अलग-अलग देशों की सरकारों
ने भी सहायता दी है। पिछले साल अक्तूबर ने विश्व बैंक ने इस काम के लिए 12 अरब की
सहायता देने की घोषणा की थी।
ट्रिप्स के इस विवाद
के बीच कुछ कम्पनियाँ ऐसी भी हैं, जिन्होंने शुरू में ही घोषणा कर दी थी कि वे
मुनाफे के लिए यह काम नहीं कर रही हैं। उन्होंने भी ‘नॉन प्रॉफिट मेडिसंस पेटेंट पूल’ बनाया है। भरत, चीन, बांग्लादेश और दक्षिण अफ्रीका की
18 दवा कम्पनियों ने गरीब देशों के लिए टीकों की व्यवस्था करने का जिम्मा लिया है।
इनमें भारत की सन फार्मा, ल्यूपिन, ऑरोबिंदो, ज़ायडस कैडिला, हेरेटो, नैटको और
स्ट्राइड्स शैसुन शामिल हैं।
नैतिक कर्म
स्वास्थ्य-रक्षा श्रेष्ठ-कर्म है, नोबल प्रोफेशन। इस बात को मानने वाले भी
दुनिया में हैं। तमाम उदाहरण हैं। दुनिया
में अकेली सबसे ज्यादा बिकने वाली औषधि है इंसुलिन। चिकित्सक और शोधकर्ता फ्रेडरिक
बैंटिंग ने 1923 में इसकी खोज की थी। उन्होंने इसके पेटेंट पर अपना नाम नहीं डाला।
उनका कहना था, प्राणरक्षक दवा के नाम पर कमाई अनैतिक है।
जोनास एडवर्ड सॉक (28
अक्टूबर1913-23 जून 1995) के नाम से भी बहुत ज्यादा लोग परिचित नहीं हैं। परिचित
हैं भी तो इस बात से कि उन्होंने पोलियो का वैक्सीन तैयार किया। उन्हें श्रेय जाता
है ऐसे रोग का टीका तैयार करने
का, जो 1955 के पहले तक सार्वजनिक स्वास्थ्य के सामने खड़ा सबसे बड़ा खतरा था। अमेरिका में पोलियो की महामारी ने 1952
में तकरीबन 58,000
लोगों को निशाना बनाया।
अमेरिकी लोगों के मन
में एटम बम के बाद दूसरी सबसे खतरनाक चीज पोलियो की बीमारी थी। राष्ट्रपति
रूज़वेल्ट भी इसकी लपेट में आ चुके थे। जो लोग बच भी जाते तो जीवन भर विकलांग रहते।
वैक्सीन बनने के बाद उसके फील्ड ट्रायल भी विलक्षण थे। देश के 20,000 डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों,
64,000 स्कूल कर्मचारियों, 2,20,000 वॉलंटियरों और 18,00,000 बच्चों ने इसके परीक्षण में हिस्सा
लिया।
12 अप्रेल 1955 को जब
इस वैक्सीन की सफलता की घोषणा हुई तो सॉक को चमत्कारिक व्यक्ति के रूप में याद
किया गया। वह दिन राष्ट्रीय अवकाश जैसा था। जब एक टीवी इंटरव्यू में सॉक से सवाल
किया गया कि इस टीके का पेटेंट किसके नाम होगा। सॉक ने जवाब दिया, कोई पेटेंट नहीं, क्या आप सूरज को पेटेंट करा सकते हैं? ऐसी बात कहने वाले आज कितने हैं?
No comments:
Post a Comment